एक प्रश्नचिह्न था शेष सब के चेहरे पर. बस, एक चाची थीं जो तटस्थ थीं. न कोई खुशी, न कोई गम. खुशी भी मनातीं तो क्या सोच कर और दुखी भी होतीं तो क्यों. ऐसा क्या था जो उन्होंने खो दिया था और एक भी ऐसी कौन सी आशा थी जो अब इस उम्र में जागती.
बीमारी की हालत में ही रहे चाचा कुछ दिन. विजय सहमासहमा था शायद चाची से. पता चला 2 साल पहले चाचा ने विजय की मां को तलाक दे दिया था. वह बीमार थी, चाचा साथ रखना नहीं चाहते थे.
‘क्या? बीमार थी इसलिए चाचा ने तलाक दे दिया?’
अवाक् रह गया था मैं. 15-16 साल के बच्चे की मां को चाचा ने इसलिए तलाक दे दिया कि वह बीमार थी. तरस आया था मुझे उस औरत पर. दबेघुटे शब्दों में यह भी कानों में पड़ा कि वह चरित्रहीन भी थी. मैं हैरान था कि वह बीमार भी थी और चरित्रहीन भी. हाथ छोड़ना हो तो मनुष्य क्याक्या बहाने बना लेता है. और निभाना हो तो कोई सीमा ही नहीं. चाची बेचारी बिना साथ के ही निभाए जा रही हैं और चाचा ने हाथ छोड़ दिया क्योंकि वह बीमार थी. कैसा बेमेल रिश्ता है दो बेमेल इंसानों में. क्योंकि चाचा बीमार थे. कोई दयाभाव, कोई तरसभाव ही ले कर सब सेवा करते रहे और लगभग 2 महीने बाद चाचा भी चले गए उस पार. यह विजय रह गया था अकेला. चाची धीरेधीरे इस अनाथ बच्चे से प्यार करने लगीं. एक धोखेबाज पति की संतान से घुलनेमिलने लगी थीं. मां बन कर इसे सहेजने लगीं. भूल गई थीं वह सब. मात्र इंसान बन कर इंसान से प्यार करने लगी थीं.