‘‘अरे, ऐसे उदास क्यों बैठी हो?’’ उदास बैठी शिखा के कंधे पर हाथ रखते हुए अभय ने पूछा. अपने मनोभावों को छिपाते हुए शिखा हड़बड़ा कर उठी, ‘‘कुछ नहीं, ऐसे ही बैठी थी. आप के लिए चाय बना दूं?’’

शिखा के माथे पर खिंची लकीरों को देख कर अभय को अंदाजा तो हो गया था कि कोई तो विशेष घटना घटित हुई है. अभय ने रसोईघर में शिखा के पास जा कर प्यार से पूछा, ‘‘शिखा, तुम्हारे चेहरे पर उदासी मुझे अच्छी नहीं लगती. क्या बात है, बताओ न?’’ अभय के प्रेमपूर्ण स्पर्श ने जैसे उस के तपते मन पर बर्फ सी रख दी.

शिखा की आंखें पिघल उठीं, ‘‘क्या मैं इस कलंक से मुक्त नहीं हो सकती, अभय?’’

अभय उस के दिल की बात समझ गया. उसे सोफे पर बैठाया. खुद ही दोनों की चाय कप में पलट कर लाया और फिर प्रेम से पूछा, ‘‘क्या हो गया आज जो तुम्हारा दिल इतना भर आया है? क्या घर से फोन आया था?’’ शिखा ने न में सिर हिला दिया. अभय के बारबार पूछने पर आंखों में रुकी नदी बहने ही लगी, ‘‘शाम को तुम्हारे आने से पहले वर्तिका के घर बच्चों के लिए इडलीसांभर ले कर गई थी...’’

‘‘अच्छा, फिर?’’

‘‘वर्तिका भाईसाहब से कह रही थी कि आज सुबह उस मनहूस बांझ का मुंह देख कर गए थे इसलिए सब काम बिगड़ गया,’’ इतना कहते ही वह अभय से लिपट कर रोने लगी.

‘‘इतनी छोटी बात कर दी भाभीजी ने...’’ अभय भी अब थोड़ा गंभीर

हो चला.

आंसू पोंछते हुए वह आगे बोली, ‘‘सुबह औफिस जाने से पहले मैं ने भाईसाहब के प्रोजैक्ट के बारे में पूछा था. वह बड़ा प्रोजैक्ट उन के हाथों से निकल गया.’’

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...