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‘‘ये...ये बचे थे, साहब ने कहा कि रख लो, बच्चों को दे देना. इसलिए रख लिए.’’ आभा कुछ भी न बोल पाई. उस का मन किसी भावी आशंका की चेतावनी दे रहा था. शाम को जब अमित घर आया तो आभा ने उसे सब बता दिया. उस के ललाट पर भी चिंता की गहरी रेखाएं खिंच गईं. जब से उन की मां नहीं रहीं पापा खाना प्राय: अपने कमरे में ही मंगा कर खाते थे. मालती 1-1 फुलके के बहाने कई चक्कर उन के कमरे के लगा लेती थी. यह आभा को बहुत अखर रहा था.

एक दिन वह बोली, ‘‘मालती, तुम जल्दी खाना बना कर घर चली जाया करो.’’ ‘‘साहब को गरम फुलके पसंद हैं और आप लोगों को भी तो. देरसवेर की क्या बात है. बना खिला कर चली जाया करूंगी. आप क्यों परेशान हो, मुझे तो आदत है.’’

‘‘नहीं, तुम कल से हम दोनों का खाना कैसरोल में बना कर रख दिया करो और आटा सान कर रख देना, मैं पापा को खुद सेंक कर खिला दूंगी. जैसा मैं ने कहा है वैसा करो, समझी,’’ उस ने जरा सख्त लहजे में कहा तो वह चुप रह गई. परंतु थोड़ी देर पश्चात ही उस की चुप्पी का कारण सामने आ गया. पापा ने आभा को आवाज दी. ‘‘तुम ने मालती को शाम का खाना बनाने से क्यों मना किया?’’

‘‘मना कहां किया, पापा. यह कहा कि हम दोनों का खाना बना कर कैसरोल में रख दे, अगर आप गरम फुलके चाहेंगे तो मैं सेंक कर आप को खिला दूंगी, तो वह आप से शिकायत कर गई?’’ आभा को गुस्सा आ गया. ‘‘शिकायत क्यों, बस कह रही थी कि कल से बेबी आप की रोटियां सेंकेगी. बेकार में तुम क्यों गरमी में मरो, बनाने दो उसे.’’

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