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इन्हीं तनावों से घिरी होने के कारण आज मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था, क्योंकि कपड़े बदलते समय रुपयों का पुलिंदा वहीं कमरे में ही छूट गया था और जो छूट गया सो गया. बस, गलती यह  हुई कि चाय बनाने की जल्दी में वह रुपयों का पुलिंदा उठाना भूल गई. यद्यपि मुझे याद आया, मैं वह पुलिंदा लेने भागी, मेरे कपड़े तो वैसे ही पडे़ थे पर वह पुलिंदा नहीं था. मुझे काटो तो खून नहीं. मुझे ऐसा लगा जैसे मैं चक्कर खा कर गिर जाऊंगी. ये ड्राइंगरूम में बैठे टैलीविजन देख रहे थे, पर उस समय मैं ने इन से कुछ नहीं कहा.

टहलने के लिए जब बाहर निकले तो मुझे गुमसुम देख कर इन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है?’’ मैं चुप रही. कैसे कहूं. समझ में नहीं आ रहा था. मैं चक्कर खा कर गिरने ही वाली थी कि इन्होंने संभाल लिया और समझाने के लहजे से कहा, ‘‘देखो, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, घर में आराम करो, मैं घूमफिर कर आ जाऊंगा.’’

इस बात से इन्हें भी तो धक्का लगेगा, यह सोच कर मेरी आंखों में आंसू आ गए.

‘‘अरे, क्या हुआ, सचमुच तुम बहुत थक गई हो, मेरी देखभाल के साथ घर का सारा काम तुम्हें ही करना पड़

रहा है.’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है.’’

‘‘तो क्या बात है?’’

‘‘चलो, वहीं पार्क में बैठ कर बताती हूं.’’

फिर सारी बात मैं ने इन्हें बता दी. ये बोले, ‘‘चिंता मत करो, जो नहीं होना था वह हो गया. अब समस्या यह है कि आगे क्या करें और कैसे करें. भैया से उधार मांगने पर पूछेंगे कि तुम तैयारी से क्यों नहीं आए? यदि सही बात बताई तो बात का बतंगड़ बनेगा.’’

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