कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

अभी शाम के 7 भी न बजे थे. सुंदर ने अंदाजा लगाया कि शकुन को आने में एक घंटा तो लगेगा ही.उस की खुशी का कोई ठिकाना न था. जिस काम को वह अपनी पहुंच से बाहर समझता था, उस ने 75 साल की उम्र में कर दिखाया था. अपने अंगूठे और उंगली को झुलसने से बचाते हुए सुंदर ने अपनी सफलता की प्रतीक रोटी को गैस स्टोव की आग से उठाया और बड़े चाव से केसरौल में डाल दिया. रोटी चैदहवीं के चांद जैसी चमचमा रही थी. उस ने स्टोव की नीली लपटों में रोटी को क्षणभर के लिए गुब्बारे की तरह फूलते देखा था. फिर फूली हुई रोटी ऐसे बैठ गई थी जैसे मन की कोई मुराद पूरी होने पर दिल को तसल्ली मिलती है.

पास पड़े हुए डब्बे में से सुंदर ने चम्मच से गाय के दूध से बना मदर डेयरी ब्रांड का देशी घी निकाला और रोटी पर अच्छी तरह चुपड़ दिया. फिर उस ने दूसरी रोटी बनाई, फिर तीसरी और चैथी. सारी की सारी गोल, फूली हुई और घी की सही मात्रा से चुपड़ी हुई. 2 रोटी शकुन के लिए और 2 रोटी अपने लिए. इतनी काफी थीं. उस ने स्टोव बुझा दिया. रोटियों को पोने में लपेट कर उस ने केसरौल में डाला और ढक्कन से बंद कर दिया.  फिर तवा, चकलाबेलन और दूसरे छोटेमोटे बरतनों को धोधा कर सूखने के लिए प्लास्टिक की बास्केट में रखा.

रसोई साफ करने में उसे तकरीबन 5-7 मिनट लगे होंगे. आश्वस्त हो कर वह बेडरूम में चला आया और आरामकुरसी पर शान से बैठ कर टीवी में ‘आजतक’ चैनल देखने लगा. किंतु उस का मन पराए देशों और उन में रहने वाले अनजान लोगों की खबरों में नहीं लग सका. उस ने तो स्वयं खबर रच डाली थी. कितनी ही नाकाम कोशिशों के बाद, और अपने अडिग मनोबल के रहते उस ने सीख लिया था कि आटा कैसे गूंधा जाए, चकलाबेलन की मदद से रोटी को गोल शक्ल कैसे दी जाए, ऐसा क्या करें कि गूंधा हुआ आटा न तो उंगलियों से चिपके और न ही चकले और न तवे से. सब से महत्वपूर्ण उस ने यह सीखी कि अधपकी रोटी को कब आग की लपटों में सेंका जाए कि वह गुब्बारे जैसी फूल सके.

“75 साल के ऐसे कितने आदमी होंगे, जिन्हें इतनी कामयाबी मिली हो?” सुंदर ने अपनेआप से पूछा. “शायद ही कोई हो,” उस ने स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर दिया. यह ऐसी सफलता थी, जिसे वह हर किसी को बताना चाहता था.

पर बताता किसे? उस के करीबी दोस्त एकएक कर के चल बसे थे. हाउसिंग सोसाइटी के लोगों से उस की बस दुआसलाम ही थी. पड़ोस के पार्क में वह सुबहशाम सैर के लिए जाता था जरूर, पर बात किसी से न होती थी.

“या सैर करो या बातें,” यही उस का फंडा था.

नातेरिश्तेदारी में उस का मिलनाजुलना या तो शादीब्याह में होता था या कहीं मातमदारी में. उस की बेटी आरणा पुणे में रहती थी. आरणा को अपने काम से फुरसत न थी. बेटा अरुणजय भी अपनेआप में मस्त था.

बेटी आरणा स्टार्टअप में उलझी थी, तो बेटा जेएनयू में फिलोसौफी पढ़ा रहा था. सुंदर को अंदेशा था कि अगर वह अपने बच्चों से, जो दोनों 40 की उम्र पार कर चुके थे, अपनी सफलता की बात भी करता तो वे उस की हंसी उड़ाते.

“खाना बाहर से मंगवा लेते पापा? ये सब करने की क्या आप की उम्र है?” आरणा कहती. “आप कुछ ढंग का काम नहीं कर सकते, पापा?” अरुणजय अपनी फिलोसौफी झाड़ता.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...