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लेखिका- डा. रंजना जायसवाल

"मनोजजी, आप क्यों परेशान होते हैं… मैं, मैं मैनेज कर लेती." "इस में परेशान होने जैसा क्या है… इस लौकडाउन में आप ने मदद न की होती तो मैं तो भूखे मर जाता." "ऐसा कुछ भी नहीं है... पड़ोसी ही पड़ोसी के काम नहीं आएगा, तो फिर कौन आएगा."

"सच कह रहे हैं मनोजजी... इस लौकडाउन ने जीवन की सचाई से सामना करा दिया… कि कौन कितने काम आएगा. जो अपने थे वो झांकने तक न आए कि जिंदा भी हूं या फिर... बस एक फोन घुमा दिया... ठीक हो न. किसी चीज की जरूरत तो नहीं… टंडनजी का बेटा अमेरिका से आ कर अपने मांबाप को ले कर चला गया और यहां बंगलोर से कोई झांकने तक....

"खैर छोड़िए... निक्की और अनु कैसे हैं? आप को नौकरी से वालेंटरी रिटायरमेंट ले लेना चाहिए… अब तो लताजी भी नहीं रहीं."

"सोचा था कि रिटायरमेंट के बाद लता के साथ सारी दुनिया घूमूंगा, पर लता मुझे छोड़ कर किसी और दुनिया में चली गई... घर के एकएक कोने में उस की खुशबू है… उस के साथ होने का अहसास दिलाती है. उसे छोड़ कर जाना…"

"सच कह रहे हैं मनोजजी... दीपू भी कितनी बार कह चुका है कि बंगलौर आ जाओ. अब तो पापा भी नहीं रहे, नौकरी तो सिर्फ एक बहाना थी... अपनी जड़ों को छोड़ कर जाना इतना आसान नहीं."

एक अजीब सा गहरा सन्नाटा दोनों के बीच पसर गया. इनसान को जिस उम्र में जीवनसाथी की सब से ज्यादा जरूरत होती है, उस उम्र में वो दोनों ही अकेले और अधूरे थे."कहां थे पापा...? मैं 2 बार फोन कर चुकी हूं… आप का फोन ही नहीं उठ रहा. मैं तो घबरा ही गई थी."

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