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लेखक- पूर्वा श्रीवास्तव 

अचानक ही मानसी के पत्रों में से मोहित का नाम गायब होने से शुभा चौंकी तो थी, किंतु मोहित और मानसी के संबंधों में किसी तरह की टूटन या दरार की बात वह तब सोच भी नहीं सकती थी.

‘‘क्या सोच रही हो मैडम, कहीं अपनी सखी के सुख से तुम्हें ईर्ष्या तो नहीं हो रही. अरे भाई, और किसी का न सही, कम से कम हमारा खयाल कर के ही तुम मानसी जैसी महान जीवन जीने वाली का विचार त्याग दो,’’ रंजीत की आवाज से शुभा का ध्यान भंग हो गया. उसे रंजीत का मजाक अच्छा नहीं लगा. रूखे स्वर में बोली, ‘‘मुझ से इस तरह का मजाक मत किया करो तुम. अब अगर मानसी ऐसी हो गई है तो उस में मेरा क्या दोष? पहले तो वह ऐसी नहीं थी.’’

शुभा के झुंझलाने से रंजीत समझ गया कि शुभा को सचमुच उस की बात बहुत बुरी लगी थी. उस ने शुभा का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचते हुए कहा. ‘‘अच्छा बाबा, गलती हो गई. अब इस तरह की बात नहीं करूंगा. आओ, थोड़ी देर मेरे पास तो बैठो.’’

शुभा चुपचाप रंजीत के पास बैठी

रही, पर उस का दिमाग मानसी

के ही खयालों में उलझा रहा. वह सचमुच नहीं समझ पा रही थी कि मानसी इस राह पर इतना आगे कैसे और क्यों निकल गई. रोजरोज किसी नए पुरुष के साथ घूमनाफिरना, उस के साथ एक ही फ्लैट में रात काटना...छि:, विश्वास नहीं होता कि यह वही मानसी है, जो मोहित का नाम सुनते ही लाज से लाल पड़ जाती थी.

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