‘‘आजकल काम मंदा है. 2-4 दिन ठहर कर आना,’’ लहना सिंह ने सादा वरदी में महीना लेने आए ट्रैफिक पुलिस के एक सिपाही से कहा.

‘‘यह नहीं हो सकता. इंचार्ज साहब ने बोला है कि पैसे ले कर ही आना. आज बड़े साहब के यहां पार्टी है. वहां शराब की एक पूरी पेटी पहुंचानी है,’’ सिपाही ने कोल्डड्रिंक की बोतल खाली कर उसे थमाते हुए कहा.

‘‘अरे भाई, 4 दिन से गाड़ी खाली खड़ी है. एक पैसा नहीं कमाया. जेब बिलकुल खाली है,’’ लहना सिंह ने मजबूरी जताई. हकीकत में उस की जेब खाली थी.

‘‘जब इंचार्ज साहब यहां आएं, तब उन से यह सब कहना. कैसे भी हो, मुझे तो 3 सौ रुपए थमाओ. मुझे औरों से महीना भी इकट्ठा करना है,’’ सिपाही पुलिसिया रोब के साथ बोला.

लहना सिंह ने जेब में हाथ डाला. महज 60-70 रुपए थे. अब वह बाकी रकम कहां से पूरी करे? वह उठा और अड्डे पर मौजूद दूसरे भाड़े की गाडि़यां चलाने वाले साथियों से खुसुरफुसुर की.

किसी ने 20 रुपए किसी ने 50 रुपए, तो किसी ने सौ रुपए थमा दिए. लहना सिंह सिपाही के पास पहुंचा और गिन कर उसे ‘महीने’ के 3 सौ रुपए थमा दिए.

सिपाही रुपए ले कर चलता बना. लहना सिंह भाड़े का छोटा ट्रक चलाता था. पहले वह एक ट्रक मालिक के यहां ड्राइवर था, जिस के कई ट्रक थे. फिर उस ने अपने मालिक से ही यह छोटा ट्रक कबाड़ी के दाम पर खरीद लिया था.

लहना सिंह ने कुछ हजार रुपए ऊपर खर्च कर ट्रक को काम देने लायक बना लिया था.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...