शहर और गांव की सीमा पर मैं वैसी ही पड़ी थी जैसा कुदरत ने मुझे इस धरती पर भेजा था. मेरे बदन पर खून से सना झीना सा एक कपड़ा लिपटा था. निगोड़ी हवा के एक झोंके ने उसे भी फडफ़ड़ा दिया था.
मैं 20 मिनट पहले ही दुनिया में आई थी. मैं गला फाड़ कर तो तब रोती जब दाई ने मेरा गला साफ किया होता. मेरा तो गला भी साफ नहीं था इसीलिए तो मैं रुकी बांसुरी सी महीनमहीन रो रही थी.
भय उगलती सांयसांय करती अंधेरी काली रात. बिजली कड़क रही थी. सन्नाटा बेकाबू हुआ जाता था. अंधेरे को अंधेरा बूझे.
कार सामने की सड़क पर आ कर रुकी थी. लंबा, तगड़ा, छोटीछोटी काली दाढ़ीमूंछों वाला एक ड्राइवर कार से नीचे उतरा था. मैं गाड़ी की डिक्की में थी. यदि 2 मिनट और डिक्की नहीं खुलती, तो तेरा दम घुट गया होता. ड्राइवर ने डिक्की से मुझे निकाला. वह सड़क से 10-15 कदम खेतों की ओर बढ़ा. उस ने बड़ी बेरहमी से मुझे नीचे पटक कर, इस विश्वास के साथ कि मैं अभी मर जाऊंगी, कहा, ‘मर.’
ओह, कैसा कसाई था वह. इतने बेदर्द तो वे भी नहीं होते जो मरे जानवर ढोते हैं. बांस की गांठों सी कठोर जमीन पर पड़ते ही मेरे बदन से टीस उठी थी.
मां ने मुझ नाजायज से नजात पा ली थी. टूटबिखर जाते मां के रिश्ते की बात ज्यों की त्यों बनी रह गर्ई थी. घर की इज्जत सलामत थी. पहाड़ से बड़े इस हादसे से परिवार उबर गया था. बड़े घरों में ऐसे अजबगजब नहीं होते.