खेल की दुनिया में अपना परचम लहराने वाली कुछ जानीमानी महिला खिलाडि़यों ने माली हालत खराब होने के बावजूद चुनौतियों का डट कर मुकाबला किया. उन्होंने कई प्रतिबंधों और महिलाओं से जुड़े मिथकों को तोड़ कर खेल की दुनिया में नया कीर्तिमान रच कर देश को सोने के तमगों से नवाजा.
तुम में यदि हिम्मत है तो बगावत कर दो वरना जहां मां-बाप कहें, वहां शादी कर लो.’ शायर कैफी आजमी की इन पंक्तियों को सुन कुछ युवतियों ने बगावत की, तो कुछ ने मां-बाप की मरजी से शादी कर ली.
खेल की बात करें, तो कुछ गिनीचुनी युवतियों के नाम ही जुबां पर आते हैं. इन में मैरी कौम, साइना नेहवाल, सानिया मिर्जा, कर्णम मल्लेश्वरी, पीटी उषा, अंजू बौबी जौर्ज आदि ने महिलाओं से जुड़े मिथकों को तोड़ कर खेल की दुनिया में नए कीर्तिमान रचे हैं, लेकिन इन के अलावा और भी कई नाम हैं, जिनका खेल की दुनिया का सफर काफी चुनौतियों भरा रहा है.
किसी के परिवार ने उन्हें खेलों में आने से रोका, तो किसी को समाज ने और किसी की खराब माली हालत ने, लेकिन सभी ने चुनौतियों का डट कर मुकाबला किया यानी ऐसी बेमिसाल युवतियों व महिलाओं के लिए कहना गलत नहीं होगा कि खेल नहीं है आसान, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है.
वाकई यहां जिन महिला खिलाडि़यों का जिक्र किया जा रहा है, उन्हें मिले तमगों की चमक आग के दरिया को पार करने के बाद ही बनी है. हर चुनौती को इन्होंने बौना ही साबित किया है.
हैमर थ्रो प्लेयर : मंजूबाला
पिताजी ने कर्ज ले कर कराई खेल की तैयारी
हैमर थ्रो प्लेयर मंजूबाला आज एक जानापहचाना नाम है. मंजू ने 2014 में हुए एशियन गेम्स में भारत को सिल्वर मैडल दिलवाया था. मंजू राजस्थान के चुरु जिले के एक छोटे से गांव चांदगोटी की रहने वाली हैं. मंजू के पिता विजय सिंह चाय का ठेला लगा कर परिवार का पोषण करते हैं.
मंजू कहती है कि जब मेरे पिता को मेरे सपने के बारे में पता चला तो वे भी मेरे साथ जुट गए. हालांकि आसपड़ोस के लोगों को यह पसंद नहीं था, क्योंकि गांव की ज्यादातर युवतियां घरों में ही रहती थीं और मैं अकसर खेतों में अपनी प्रैक्टिस किया करती थी. गांव के लोगों और रिश्तेदारों से मुझे खरीखोटी व कड़वी बातें सुननी पड़ती थीं. साथ ही वे मेरे माता-पिता को भी बातें सुनाते थे. कई बार प्रैक्टिस करने के बाद जब मैं देर से घर आती थी तो लोग घर में पूछने तक आ जाते थे कि आप की बेटी अब तक क्यों नहीं आई. आप लोगों ने उसे इतनी छूट क्यों दे रखी है?
पिताजी चाय बेच कर इतना नहीं कमा पाते थे कि वे मेरे खेल की जरूरतें पूरी कर सकें. उन्होंने 2 बीघा खेत गिरवी रख कर कर्ज लिया. मुझे कभी सरकार से भी मदद नहीं मिली, लेकिन मैंने कभी हार नहीं मानी और लगातार प्रयास करती रही. आज जिस खेल को खेलने से युवक भी कतराते हैं, मैंने उसी खेल में भारत को पदक दिलाया है.
मेरा अनुभव है कि देश में खेलों व खिलाडि़यों की हालत ठीक नहीं है. खासतौर से देश के देहाती इलाकों की. खेल के लिए पहले भी मुझे बाहर जाना होता था, तो लोग मुझ पर व मेरे परिवार पर जम कर फबतियां कसते थे. अब मेरी शादी हो चुकी है और मेरे पति मुझे आगे बढ़ने में बहुत मदद करते हैं.
आज भी जब मैं गांव जाती हूं, तो लोग मेरे पहनावे व रहनसहन को ले कर काफी ताने मारते हैं, कई बार जब बाहर खेलने जाती थी, तो युवक भी मुझ पर कई तरह के कमैंट्स करते थे, लेकिन मैं ने खेलना नहीं छोड़ा और न ही छोड़ सकती हूं.
तीरंदाज : संतरा व निकिता
तीरंदाज लिंबाराम से मिली प्रेरणा
जयपुर की रहने वाली सगी बहनें संतरा और निकिता दोनों तीरंदाज हैं. संतरा बताती है कि उसने स्कूली दिनों में 10वीं जमात से ही तीरंदाजी शुरू कर दी थी. परिवार की माली हालत ठीक न होने की वजह से मैं अपनी प्रैक्टिस जारी नहीं रख पा रही थी, क्योंकि स्कूल में एक ही धनुष था, जिस से बाकी लोग भी प्रैक्टिस करते थे.
प्रैक्टिस के लिए मैं और मेरी बहन निकिता दोनों सवाई मानसिंह स्टेडियम जाते थे. यहां हमारी मुलाकात प्रदेश के सब से टौपर तीरंदाज खिलाड़ी लिंबाराम से हुई. उन्होंने हमें लगातार अभ्यास के लिए कहा. जब मैं तीरंदाजी का हुनर सीख गई, तो उन्होंने अपना खुद का धनुष दे कर हमें अधिक अभ्यास करने के लिए कहा.
एक दुर्घटना में पिताजी का एक हाथ टूट जाने के कारण परिवार की आर्थिक स्थिति खराब हो चुकी थी. शुरुआत में मैंने लकड़ी का धनुष खरीदा, जिसके लिए गुल्लक तोड़ कर कुछ पैसे जुटाए. कुछ पैसे पापा ने दिए और कुछ लिंबाराम सर ने. इस धनुष से मैंने स्टेट व नैशनल लेवल पर गोल्ड मेडल जीते. मां चाहती थीं कि मैं और मेरी बहन आगे तक जाएं.
मुझे देख कर छोटी बहन निकिता ने भी तीरंदाज बनने की ठान ली. रोज की प्रैक्टिस से उसका प्रदर्शन ठीक हो गया. उसने स्कूल से ले कर स्टेट व नैशनल लेवल तक पदक जीते हैं. कॉलेज में आने के बाद निकिता को भी नैशनल लेवल की प्रतियोगिता में हिस्सा लेना था, जिसके लिए हमें एक और धनुष की जरूरत थी, जिस की कीमत 3 लाख रुपए के करीब थी. कीमत ज्यादा होने की वजह से हम उसे खरीद नहीं पा रहे थे. ऐसे में पिताजी ने अपना एक भूखंड बेच दिया और हमारे लिए धनुष खरीदा.
निकिता के अभ्यास में कोई रुकावट न आए इसलिए मैं योगा क्लास चलाती हूं. इस सब के चलते निकिता ने पिछले साल साउथ कोरिया के ग्वांगझू में आयोजित प्रतियोगिता में तीरंदाजी में देश का प्रतिनिधित्व भी किया था. सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी बनने के लिए उस ने सीआरपीएफ की नौकरी भी छोड़ दी.
कबड्डी प्लेयर : सुमित्रा शर्मा
परिवार ने मना किया, तो छिप कर की प्रैक्टिस
जयपुर की रहने वाली कबड्डी खिलाड़ी सुमित्रा शर्मा ने 2014 में हुए एशियन गेम्स में भारत को कबड्डी में स्वर्ण पदक दिलाया. इस से पहले सुमित्रा ने 62वीं सीनियर नैशनल कबड्डी चैंपियनशिप में सिल्वर पदक जीता था. साथ ही मलयेशिया में आयोजित हुई जूनियर एशियन कबड्डी चैंपियनशिप में गोल्ड मैडल जीता, लेकिन यह सफर इतना आसान नहीं था.
सुमित्रा एक मामूली परिवार से है. उस के परिवार वाले नहीं चाहते थे कि वह कबड्डी खेले. बकौल सुमित्रा, घर में जींस टीशर्ट पहनना तक मना था, ऐसे में कबड्डी खेलना तो बहुत दूर की बात थी. घर वाले मेरी शादी भी जल्दी कर देना चाहते थे, लेकिन मैं खेलना चाहती थी. कबड्डी के लिए मेरे भीतर हमेशा से एक जुनून था. मैं इसी में अपना कॅरियर बनाना चाहती थी.
इसलिए कालेज के दिनों में ही घर वालों को बिना बताए छिप कर प्रैक्टिस जारी रखी.
जब मैं प्रैक्टिस के लिए स्टेडियम जाती, तो अपने दोस्तों को बता कर जाती थी, ताकि कोई परेशानी आए तो उन से मदद ले सकूं. रिश्तेदार अकसर मेरी बुराई करते थे. वे कहते कि कबड्डी युवतियों का खेल नहीं है, इसे सिर्फ युवक ही खेल सकते हैं. तुम एक लड़की हो, लोग क्या कहेंगे? इस वजह से ही परिवार वालों ने भी मुझे खेलने से मना कर दिया था. वे भी यही कहते थे कि तुम अगर कबड्डी खेलोगी, तो तुम्हारी शादी में परेशानी आएगी.
प्रैक्टिस के साथ मैं घर वालों को भी मनाने की कोशिश करती रही, लेकिन 2 साल तक वे नहीं माने. जब मुझे इस में कामयाबी मिलने लगी तो मैंने और मेरे साथियों व कोच ने मिल कर मेरे माता-पिता से बातचीत की. काफी समझाने के बाद आखिरकार वे मान गए.
युवतियों के लिए आज भी कई चुनौतियां खेलों की दुनिया में हैं. खराब माली हालात और परिवार का साथ न मिलना सब से बड़ी समस्या है. परिजनों द्वारा शादी का दबाव बनाना भी एक चुनौती व समस्या है. दुनिया में कई तरह के बदलाव लगातार हो रहे हैं, लेकिन लोगों की सोच में अब भी बदलाव नहीं आया है.
सुमित्रा बताती हैं, ‘‘मैं ने सिर्फ अपने लिए ही नहीं, बल्कि घर की बाकी लड़कियों के लिए भी राह खोली है. मेरे घर में लड़कियों को ज्यादा बोलने की इजाजत तक नहीं थी और न ही बाहर आनेजाने की आजादी. मैं ने इन सब की खिलाफत की. इसी का नतीजा है कि अब घर वाले घर की लड़कियों से ज्यादा रोकटोक नहीं करते.’’