कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की ये पंक्तियां हर भारतवासी के मन में सदैव गुंजायमान रहती हैं, हमारे
अंतर्मन को प्रेरित करती हैं और एक नई ऊर्जा का संचार करती रहती हैं.

ये पंक्तियां कई बार एक प्रश्न भी खड़ा करती हैं कि सुभद्रा कुमारी चौहान ने रानी लक्ष्मीबाई के लिए मर्दानी संज्ञा का उपयोग क्यों किया? क्या मर्दानी कह कर उन के स्त्रीत्व को कमतर आंका गया है? इस की समीक्षा प्रत्येक पाठक अपनी समझ के अनुरूप करता है.

जब मैं ने गहन चिंतन किया तो पाया कि स्त्री होना अपनेआप में प्रकृति का एक अनूठा वरदान है. एक बालिका समयानुसार एक कोमल हृदय स्त्री में परिवर्तित हो जाती है और हमारी सामाजिक व्यवस्था उसे यह अधिकार देती है कि वह अपने मनोभावों को सदैव प्रकट कर सकती है, अपनी चिंता और दुख को आंसुओं के रूप में बाहर निकाल सकती है. वहीं दूसरी ओर एक बालक जब पुरुष के रूप में परिवर्तित होता है, तो शारीरिक बदलाव के साथसाथ उसे मानसिक बदलाव की प्रक्रिया से भी गुजरना पड़ता है. एक बालक को अपने कोमल स्वभाव को बदल कर एक दृढ़निश्चयी व कठोर चट्टान जैसे व्यक्तित्व का स्वामी बनना पड़ता है, सही समय पर निर्णय लेने की क्षमता को अपने भीतर रोपना होता है. साथ ही, उस निर्णय के भविष्य में होने वाले अच्छे या बुरे परिणाम को भी स्वीकार करना पड़ता है.

जब हम रानी लक्ष्मीबाई के बाल्यकाल को देखते हैं, तो पाते हैं कि माता भागीरथी देवी की मृत्यु के पश्चात 4 वर्ष की मनु को उन के पिता मरोपंत तांबे ने बहुत लाड़प्यार से पाला, किंतु स्नेह के साथ उन्होंने मनु को।एक आम नारी से भिन्न व्यक्तित्व देने का प्रयास किया. एक ऐसा व्यक्तित्व, जिस में नारी की कोमलता, गंभीरता, त्याग, समर्पण और प्रेम के साथ साहस, दृढ़निश्चय, निर्भीकता, दूरदर्शिता, कुशल नेतृत्व, कुशल राजनीति कौशल व अप्रतिम योद्धा जैसे गुण भी हों, जो कि एक वीर पुरुष व प्रभावशाली राजा की पहचान माने गए हैं.

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