आयुष्मान भव:... जुग-जुग जियो... दूधों नहाओ, पूतों फलो... जैसे आशीर्वादों से भरे देश में जिन्दगी को ठोकर मार कर मौत की आगोश में सो जाने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. बीते पांच दशक में भारत में आत्महत्या की दर में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है. किसानों की आत्महत्या के बारे में हम लम्बे समय से सुनते आ रहे हैं. कर्ज, भूख, गरीबी, बीमारी से लगातार आत्महत्या कर रहे किसानों का मामला बहुत गम्भीर है. यह चर्चा का वृहद विषय है. जिसके तार सियासत, सियासी नीतियों और वोटबैंक से जुड़े हैं, जिसके चलते देश में किसानों-मजदूरों की आत्महत्याओं का आंकड़ा भयावह है. मगर चिन्ता की बात यह है कि किसानों के बाद देश की पढ़ी-लिखी युवा आबादी भी आत्महत्या की ओर तेजी से बढ़ रही है. भारत एक युवा राष्ट्र है अर्थात यहां युवाओं की आबादी सबसे ज्यादा है, मगर यह विचलित करने वाली बात है, कि इस आबादी का बड़ा हिस्सा निराशा और अवसाद से ग्रस्त है. वह दिशाहीन और लक्ष्यहीन है. खुद को लूजर समझता है. लक्ष्य को हासिल करने के पागलपन में उसके अन्दर संयम, संतुष्टि और सहन करने की ताकत लगातार घट रही है और किसी क्षेत्र में असफल होने पर जीवन से नफरत के भाव बढ़ रहे हैं. शिक्षा, बेरोजगारी, प्रेम, जैसे कई कारण हैं जो युवाओं को आत्महत्या की ओर उकसाते हैं. राष्ट्रीय क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में आत्महत्या करने वालों में सबसे ज्यादा (40 फीसदी) किशोर और युवा शामिल हैं.
पहलवानी के नाम पर दहशतगर्दी
भारत में युवाओं में ही नहीं, बल्कि अच्छे पदों पर आसीन लोगों में भी आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही है. पहले जहां निम्न और मध्यमवर्गीय तबकों में आत्महत्या की दर ज्यादा थी, वहीं हाल में उच्च वर्ग में भी जिन्दगी के प्रति निराशा और अवसाद के चलते आत्महत्या की घटनाओं में तेजी आयी है. उच्च पदों पर आसीन पुलिस अधिकारियों, नेताओं, समाज को दिशा देने वाले संतों तक में जीवन को त्यागने की प्रवृत्ति हाल के दिनों में सामने आयी है. इंदौर के चर्चित संत भय्यूजी महाराज की आत्महत्या की घटना ने तो देश को हिला दिया. एक संत जो दूसरों को जीवन की राह दिखाता हो, वह खुद इतना निराश और अवसादग्रस्त जीवन जी रहा था, इस बात पर यकीन करना मुश्किल है. भय्यूजी ने जीवन से निराश होकर, बदनामी, ब्लैकमेलिंग और कुछ अन्य कारणों से खुद को गोली मार कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली, जबकि उनकी इन सारी समस्याओं का समाधान हो सकता था बशर्ते वे आशावादी होते और जीवन को उसके वृहद स्वरूप में समझते. जिन्दगी अनमोल है, मगर इस अनमोल चीज को खो देने की ओर धर्म, समाज और सियासत तीनों ही प्रेरित करती है? कैसे? इस बात को समझना बहुत जरूरी है.
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