हिन्दी की दुर्दशा को अब बजाय किसी भूमिका या प्रस्तावना के इसे आंकड़ों और तथ्यों के जरिये समझने की जरूरत है कि यह पेट की भाषा क्यों नहीं बन पा रही. पिछले साल भोपाल में आयोजित हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने  हिन्दी भाषियों को हिन्दी के भविष्य को लेकर यह कहते हुए आश्वस्त किया था कि चिंता या घबराहट की कोई बात नहीं हम सबसे बड़ा बाजार है और हर कोई  हमारा मोहताज है.

बात में दम था इसलिए वह पसंद की गई थी लेकिन एक साल गुजरते गुजरते हिन्दी भाषियों को फिर समझ आ रहा है कि हमारे पास विलाशक थोड़ा बहुत पैसा है और हम दुनिया के बड़े उपभोक्ता सही लेकिन इससे हमें सिवाय स्वांत: सुखाय के क्या हासिल हो रहा है. पैसा तो अंग्रेजी बोलने वाले को ज्यादा मिल रहा है जो आज के प्रतिस्पर्धा के दौर की पहली जरूरत है. आत्मसम्मान और स्वाभिमान से सर तो गर्व से ऊँचा होता है लेकिन पेट पिचकता जा रहा है. हिन्दी भाषी अब भी ग्लानि, कुंठा और आत्महीनता के शिकार इसलिए हैं कि हिन्दी का रोजगार और पेट से कोई संबंध नहीं.

आंकड़े चिंताजनक ओर हैरान कर देने वाले हैं कि देश में धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलने महज 5 फीसदी हैं लेकिन उनकी कमाई हिन्दी भाषियों से लगभग 40 फीसदी ज्यादा है. इतना ही नहीं जो लोग कामचलाऊ अंग्रेजी यानि टूटे फूटे वाक्य बोल लेते हैं वे भी हिन्दी बोलने वालों से 15 प्रतिशत ज्यादा कमा रहे हैं.

देश में हिन्दी बोलने वालों की संख्या 45 करोड़ के लगभग है इनमे से भी 25 करोड़ अंग्रेजी नहीं बोल पाते जाहिर हे वे पिछड़े गंवार और अर्धशिक्षित हैं. इनका पेशा मेहनत मजदूरी और कृषि है. बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी अनिवार्य है अगर किसी को उच्चतम न्यायालय के फैसले समझना है तो उसे अंग्रेजी आना चाहिए, संसदीय ब्यौरे और मसौदे अंग्रेजी में ज्यादा छपते हैं, बैंकों की भाषा कमोवेश अभी भी अंग्रेजी ही है.

उलट इसके 55 लाख करोड़ की हमारे देश की अर्थव्यवस्था का आधे से ज्यादा बाजार हिन्दी पर टिका है, रोजाना कोई 20 करोड़ अखबार हिन्दी के निकलते हैं और हर साल हिन्दी की औसतन 600 फिल्में बनती हैं जो लगभग 12 हजार करोड़ रुपये का व्यवसाय करती हैं. टेलीविजन का व्यवसाय अब 20 हजार करोड़ रुपये का आकंड़ा छू रहा है. पर बावजूद इस आर्थिक आधिपत्य के पैसे का बड़ा हिस्सा अंग्रेजी बोलने वालों के खीसे में जा रहा है.

यानि अंग्रेजी की आर्थिक अनिवार्यता से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता फिर ऐसे में हिन्दी के प्रचार प्रसार और प्रोत्साहन के माने क्या यह बात सिरे से ही समझ से परे है. हिन्दी में किताबें सबसे ज्यादा छप रही हैं पर बिकती अंग्रेजी की चुनिंदा किताबें हैं क्योंकि नई पीढ़ी बतौर फैशन इन्हें खरीद कर पढ़ती है. सरकारी विज्ञापनों का बड़ा हिस्सा अंग्रेजी अखबारों और पत्रिकाओं को जाता है जबकि उनके पाठकों की संख्या हिन्दी पाठकों के मुकाबले 90 फीसदी कम है.

ऐसे में अगर हिन्दी भाषियों को अंग्रेजी मुनाफे की जुबान लगती है तो बात हैरत की नहीं है. भविष्य और कैरियर के लिहाज से तमाम अभिभावक चाहते हैं कि बच्चा अंग्रेजी स्कूल में पढ़े, अंग्रेजी लिखना पढऩा-बोलना सीखे जिससे पेट पाल सके. जब हिन्दी से पेट नहीं भरा जा सकता तो हिन्दी दिवस को धार्मिक त्यौहारों की तरह मनाने का कोई औचित्य नहीं रह गया है. हिन्दी अब घरों और समाज में संवादों के आदान प्रदान का काम कर रही है वह भी इसलिए कि यह नेक काम अंग्रेजी में सभी नहीं कर सकते यानि अंग्रेजी नहीं बोल सकते.

सरकार को कोस लें, अंग्रेजी को दोषी ठहरा दें लेखकों और साहित्यकारों को कटघरे में खड़ा कर खुश हो लें पर इस सब से पहले यह सोचें कि हिन्दी को रोजगार की भाषा कैसे बनाएं. हिन्दी दिवस पर दिन भर कर्मकाण्ड कर उसे देर रात वैचारिक समुद्र में विसर्जित कर देने का फैशन यूं ही चलता रहा तो तय है हिन्दी से हो रही कमाई अंग्रेजी बोलने वाले हिन्दी भाषी देसी गिरमिटिये डकारते रहेंगे.

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