मुसलिम महिला के अधिकारों को ले कर फोकस इसलाम द्वारा प्रदत्त निकाह को खत्म करने के अधिकार पर होता है जिसे ‘खुला’ कहते हैं. इस के द्वारा वह मर्द की तरह स्वयं विवाहविच्छेद कर सकती है. इस की रूपरेखा क्या है और क्या महिलाएं अपने इस अधिकार से भलीभांति परिचित हैं और वे इस का इस्तेमाल भी कर रही हैं या फिर भारत के पुरुषप्रधान समाज में उसे व्यावहारिक रूप में यह अधिकार हासिल है. आइए जानते हैं.

इसलाम में विवाह एक करार है जो निकाह द्वारा अंजाम पाता है. किसी कारणवश मियांबीवी में गुजारा संभव न हो तो उन्हें सम्मानपूर्वक अलग होने के लिए गुंजाइश है. मर्द को तलाक द्वारा निकाह को खत्म करने का अधिकार दिया गया है. मर्द को यह हिदायत दी गई है कि एकसाथ 3 तलाक न दी जाए बल्कि हर महीने की साइकिल के बाद 3 महीने में 3 तलाक दी जाए.

मुसलिम विवाह और तलाक

निकाह में एक मर्द एक औरत को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करता है जिस की इजाजत वह औरत निकाह के समय देती है. वैसे यह इजाजत तो पहले से ली जाती है. इस लिहाज से मर्द पर उस औरत के पालनपोषण और खानपान का दायित्व होता है जिस का उसे निर्वाह करना होता है. इसी आधार पर मर्द को तलाक का अधिकार दिया गया है लेकिन यह अधिकार कुछ शर्तों के साथ है जिस का उल्लेख यहां किया गया है.

उधर, एक औरत जब अपने पति से किसी कारणवश अलग होना चाहे तो इस के लिए उसे ‘खुला’ का अधिकार दिया गया है जिस के माध्यम से वह पुरुष की तरह निकाह को खत्म कर सकती है. तलाक में जहां मर्द को आदेश दिया गया है कि वह औरत को भले तरीके अर्थात कुछ देदिला कर विदा करे वहीं खुला में एक औरत द्वारा मर्द को कुछ देदिला कर छुटकारा पाना होता है. तलाक के समय औरत को देदिला कर विदा करने की व्याख्या करते हुए देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों ने जो फैसले दिए हैं उन के अनुसार, तलाक दी गई बीवी को गुजाराभत्ता उस समय तक दिया जाए जब तक उस की दूसरी शादी न हो जाए या जब तक वह जीवित है. इस व्याख्या को ले कर औल इंडिया मुसलिम पर्सनल लौ बौर्ड का मानना है कि यह इसलाम में हस्तक्षेप है लेकिन बोर्ड ने इस मामले में कोई पुनर्विचार याचिका दाखिल नहीं की.

एक औरत अपने शौहर से यदि छुटकारा (खुला) चाहती है और शौहर भी इस के लिए तैयार है तो निश्चय ही इस में कोई समस्या नहीं है और यह आसानी से संभव हो जाता है. लेकिन यदि शौहर खुला के लिए तैयार नहीं है तब यह मामला काजी के पास जाएगा और काजी पूरी परिस्थिति को समझने के बाद फैसला करेगा. इसलामी न्यायविधियों (फिक्हा) के समीप काजी खुला से मना भी कर सकता है. काजी के इस अधिकार को ले कर यह खुला विवाद का विषय बना हुआ है.

यह सवाल किया जाता है कि यह कैसा अधिकार है जो काजी के विवेक से जुड़ा है जबकि मर्द द्वारा तलाक के अधिकार में कहीं भी काजी का विवेक शामिल नहीं होता. इस के चलते औरतें अपने इस अधिकार से वंचित हो रही हैं. ऐसी औरतें जो शौहरों के अत्याचार से तंग आ कर ‘खुला’ द्वारा छुटकारा हासिल करना चाहती हैं उन्हें काजी द्वारा शौहरों की उपस्थिति को अनिवार्य कर दिया जाता है जबकि चाहे वे विदेश में रहते हों, बुलाने पर न आते हों और जवाब न देते हों. इस तरह के मामलों के सालों लटकाए रखे जाने की घटनाएं अखबारों में आ चुकी हैं. ऐसे में फिर उन्हें अदालतों में जाने को कहा जाता है. अदालतों का हाल यह है कि वहां लाखों मुकदमों का बोझ है जिस के चलते किसी मुकदमे का फैसला होने में 5-7 साल लग जाते हैं जबकि जल्द इंसाफ दिलाना सरकार की बुनियादी जिम्मेदारियों में से है.

औरत तलाक ले सकती है

पहले मुसलिम महिलाएं अपने इस अधिकार से पूरी तरह वंचित थीं. विख्यात कवि डा. मोहम्मद इकबाल ने अपनी किताब में मुसलिम महिलाओं की स्थिति पर चिंता प्रकट करते हुए लिखा है कि जब वे वकालत के पेशे से जुड़े तो उन्हें इस तरह की बहुत सी घटनाओं का सामना करना पड़ा. 20वीं सदी की शुरुआत में तो महिलाएं शौहरों से छुटकारा पाने के लिए यह करतीं कि वे अदालतों में हाजिर हो कर इसलाम त्यागने का ऐलान करतीं और इस तरह निकाह से आजाद हो जातीं. दारुल कजा के गठन के बाद इस तरह के मामले वहां हल किए जाते हैं. इसलामी फिक्ह एकेडेमी के अधिवेशन में पेश की गई रिपोर्ट के अनुसार, दारुल कजा, इमारते शरिया फुलवारी शरीफ, पटना (बिहार) में गत 3 दारुल कजा के अधीन लगभग 50 सहायक दारुल कजा कायम हैं.

ध्यान रहे कि दारुल कजा में खुला की मांग का मुकदमा केवल एक पक्ष की मांग के आधार पर नहीं लिया जाता है. इस का तर्क दिया जाता है कि यदि औरत की ओर से खुला का आवेदन हो और शौहर तलाक देने पर तैयार न हो तो इस तरह का मुकदमा अर्थहीन हो कर रह जाता है जिसे दारुल कजा से खारिज करना पड़ता है. क्योंकि दारुल कजा कोई अदालत नहीं है जिस के फैसले को क्रियान्वित कराया जाए, यह एक तरह का पारिवारिक परामर्श केंद्र है जिस के फैसले को मानने के लिए दोनों पक्ष बाध्य नहीं हैं. यह अलग बात है कि इस आधार पर जिन मामलों में लोग कोर्ट गए, वहां कई मामलों में कोर्ट ने दारुल कजा के ही फैसले को सही ठहराया है.

तलाक की वजहें

शौहर का छोटा कद होना, काला होना, मियांबीवी दोनों की उम्र में बड़ा अंतर होना, औरत का शौहर से घृणा करना, मियांबीवी के बीच परिवार का फर्क इस तरह कि बीवी उच्च परिवार की जबकि शौहर ऐसे परिवार से हो जिस को बीवी कमतर समझे, शौहर का शादीशुदा होना जबकि औरत को इस की जानकारी न होना या सौतन के साथ रहने के लिए तैयार न होना जैसे कारणों को ले कर औरतों को खुला के लिए आवेदन करने का पात्र माना जाता है. जिन मामलों में शौहरबीवी तैयार हो जाते हैं वहां खुला की कार्यवाही आसानी से हो जाती है लेकिन जिन मामलों में शौहर जिद और अहं के चलते इस के लिए तैयार नहीं होता, उन मामलों में काजी गवाहों के बयान सुनने के बाद शरई दिशानिर्देश में छूट देते हुए सुधार हेतु बीवी को शौहर के साथ विदा करने का आदेश जारी करता है.

ऐसी परिस्थिति में सवाल है कि फिर महिलाओं को यह अधिकार कैसे हासिल हो? इस बाबत इसलामविदों का सुझाव है कि निकाह के समय निकाहनामे में औरत को तलाक लेने के हक की शर्त लगा दी जाए जिस से दोनों की जिंदगी अच्छी गुजरे और यदि दायित्वों के अदा करने में कोताही हो तो तलाक हो जाएगा. शौहर राजी हो या न हो, तलाक हो जाएगा. इस तरह की शर्त से शौहर भी बीवी से भयभीत रहेगा और शौहर के तलाक अथवा खुला के लिए तैयार न होने की सूरत में औरत आसानी से छुटकारा हासिल कर लेगी.

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