सरकारी नौकरियां मलाई जीमने और घूसखोरी के लिए मुफीद जगह मानी जाती हैं, इस मिथक को तोड़ता हुआ पी जी गोलवलकर का इस्तीफा सरकारी नौकरियों के दमघोंटू माहौल की सचाई बयां कर रहा है. मौजूदा व्यवस्था में सरकारी कर्मचारी व अधिकारी नेताओं के हाथों की कठपुतली बन कर किस कदर मानसिक तौर पर प्रताडि़त किए जाते हैं, बता रहे हैं भारत भूषण श्रीवास्तव.
मध्य प्रदेश गृह निर्माण मंडल के ग्वालियर में पदस्थ डिप्टी कमिश्नर पी जी गोलवलकर बेहद तल्ख लहजे में कहते हैं, ‘‘बीते कई सालों से मैं नौकरी में एक अजीब सी घुटन महसूस कर रहा था, इसलिए मैं ने इस्तीफा दे दिया. मु?ो कतई इस बात का अंदाजा नहीं था कि मेरे इस्तीफे पर इतनी व्यापक प्रतिक्रियाएं होंगी. मैं तो बस अपने अंदर और बाहर बढ़ रहे दबाव से आजाद होना चाहता था, सो हो गया.’’
7 फरवरी को मध्य प्रदेश गृह निर्माण मंडल के इस डिप्टी कमिश्नर का त्यागपत्र और त्यागपत्र देने का तरीका दोनों भले ही प्रदेश सरकार के मुंह पर मारा गया करारा तमाचा माना जा रहा हो पर गोलवलकर ऐसा नहीं मानते. वे कहते हैं, ‘‘मु?ो लग रहा था कि इस सिस्टम में मैं फिट नहीं बैठ रहा हूं. दूसरे, अपनी सारी जिम्मेदारियां भी मैं पूरी कर चुका था. एक बेटे की नौकरी लग गई है और दूसरे की पढ़ाई पूरी होनेको है. लिहाजा, तनाव में नौकरी करते रहने की कोई वजह या विवशता नहीं रह गई थी.’’
तो क्या इतने साल तक आप ने यह दबाव महज आर्थिक जरूरतें पूरी करने के लिए सहन किया, इस सवाल पर बगैर किसी लागलपेट के वे कहते हैं, ‘‘हां, शायद ऐसा ही है.’’ अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए वे एक विज्ञापन का उदाहरण देते हैं जिस में बौस की ज्यादतियों और मनमानी से परेशान एक मातहत तय कर लेता है कि कुछ भी हो जाए, आज मैं इसे खरीखोटी और सच्ची बात सुना कर ही रहूंगा. पर जैसे ही वह हिम्मत जुटा कर बोलने की तैयारी करता है तो उसे अपने पीछे खड़ी गर्भवती पत्नी दिखती है जिसे देख उस का जोश पिचक कर पूंछ हिलाने लगता है. कुछ सालों बाद भड़ास फिर भर जाती है तो वह दोबारा बौस से भिड़ने की हिम्मत जुटाता है. इस दफा 2 बच्चे भी दयनीय हालत में खड़े दिखाई देते हैं, वह फिर फुस्स हो जाता है.
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