हमारे देश में आबादी के मुकाबले डाक्टरों की कमी है, जरूरत के अनुसार अस्पताल नहीं हैं और दवाएं बेहद महंगी हैं. ऐसे में यदि मध्यवर्गीय या गरीब परिवार में एक व्यक्ति बीमार पड़ता है तो उस का इलाज कराने में पूरे परिवार की कमर टूट जाती है. इस की एक बड़ी वजह है डाक्टरों का फार्मा कंपनियों व टैस्ट लैब्स के बीच कायम गठजोड़, जो मरीज को ठीक करने के बजाय उस की आर्थिक तबाही में लगा रहता है.
डाक्टर मरीजों के इलाज में काम आने वाली सस्ती जैनरिक दवाएं लिख सकते हैं, पर कमीशन और फार्मा कंपनियों से मिलने वाले महंगे उपहारों व मोटे कमीशन के लालच में वे उन्हीं ब्रैंडों की दवाएं लिखते हैं. अकसर ऐसी ब्रैंडेड दवा सामान्य जैनरिक दवाओं की तुलना में कई गुना महंगी होती है.
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस समस्या की नब्ज पर उंगली रखते हुए कहा था कि उन की सरकार एक लीगल फ्रेमवर्क के तहत यह सुनिश्चित करेगी कि डाक्टर सिर्फ जैनरिक दवाएं ही लिखें जो सस्ती होने के कारण मरीजों पर बोझ नहीं बनती.
एक आकलन है कि ब्रैंडेड और जैनरिक दवाओं की कीमत में 90 प्रतिशत तक का अंतर होता है. जैनरिक दवाएं ब्रैंडेड दवाओं के मुकाबले कितनी सस्ती हो सकती हैं, इस का एक अंदाजा ब्लड कैंसर की दवा ग्लिवेक नामक ब्रैंडेड दवा की एक महीने की खुराक से लगाया जा सकता है.
ब्रैंडेड दवा की एक महीने की डोज की कीमत तकरीबन 1.14 लाख रुपए की होती है, जबकि इस की जैनरिक दवा का महीनेभर का खर्च करीब 11 हजार रुपए ही पड़ता है. ऐसा ही अंतर बहुत सी ब्रैंडेड और जैनरिक दवाओं की कीमतों में है. आम लोग इस मामले में ज्यादा जानकारी नहीं रखते. लिहाजा डाक्टर्स व फार्मा कंपनियां महंगी ब्रैंडेड दवा का ही विकल्प सब के आगे रखती हैं ताकि मरीज किसी ब्रैंडेड दवा लेने को मजबूर हो.