शहरः कानपुर

स्थानः डफरिन अस्पताल का इमरजेंसी वार्ड.

वार्ड में दर्द से तड़पती एक गर्भवती महिला पहुँचती है.

डाक्टर महिला सेः तुम्हारे घर वाले कहां हैं?

गर्भवती महिलाः मैं बस चैकअप कराने आई हूं. घर वाले पीछे आ रहे हैं.

डाक्टरः तुम्हारी हालत बहुत खराब है. जान को भी खतरा है. अपने घर वालों को बुलाओ. उन की अनुपस्थिति में तुम्हें कैसे एडमिट किया जाए?

अपना फोन डॉक्टर की तरफ बढ़ाते हुए और फफक कर रोती हुई महिला: आप भी कोशिश कर लीजिए. मेरा तो कोई फोन ही नहीं उठा रहा है.

डाक्टर फोन कान से हटाते हुएः तुम्हारे पति और सासससुर का फोन बंद है और तुम्हारी मां ने अस्पताल आने से मना कर दिया है.

महिला मौन थी. उस के पास कोई जवाब नहीं था. डाक्टर के मन में बहुत से प्रश्न कौंध रहे थे, मगर अभी पूछने का यह सही वक्त नहीं था.

1 घंटे बाद…

महिला ने एक स्वस्थ्य बेटे को जन्म दिया. अस्पताल के डाक्टरों ने ही महिला के इलाज और शिशु की जरूरत की सभी चीजों का इंतजाम किया. इतना ही नहीं एक नर्स को भी महिला और शिशु की देखभाल के लिए लगा दिया. महिला के होश में आने पर अस्पताल के डाक्टरों ने जब उसे उस का बेटा उसे सौंपा, तो महिला की आँखें आंसुओं से भर गईं. उस ने वार्ड में मौजूद डाक्टरों को अपनी आप बीती सुनाई.

महिला ने बताया, “ मैंने और अतुल ने घर वालों की मरजी के खिलाफ प्रेम विवाह किया था. सोचा था शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. फिर सोचा बच्चा होने पर सब ठीक हो जाएगा, लेकिन लगता है अभी भी किसी का दिल नहीं पसीजा. मेरे लिए न सही बच्चे को देखने के लिए ही आ जाते.”

महिला से डाक्टरों ने जब बच्चे के पिता के न आने की वजह पूछी, तो उस के पास फिर कोई जवाब नहीं था. बस इतना ही बोल सकी, “ मैंने फोन पर बताया था कि बहुत दर्द हो रहा है. वो बोले, तुम अस्पताल पहुंचो मैं वहीं आ रहा हूं. दर्द ज्यादा बढ़ा तो मैंने फिर उन्हें फोन किया लेकिन फोन बंद मिला. फिर मैंने अपने और अतुल के घरवालों को फोन किया. कोई भी मदद करने को तैयार नहीं था. पड़ोसी भी साथ अस्पताल चलने को तैयार नहीं हुए. मैं बस किसी तरह अस्पताल आ गई.”

महिला की आपबीती सुन कर डाक्टरों की आंखे भी नम पड़ गईं. सभी के मन में यही सवाल था की पति को तो ऐसा नहीं करना चाहिए था? वैसे यह कहानी सिर्फ इसी महिला की नहीं है. देश भर में महिलाओं को आज भी अपनी सुखसुविधाओं को हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. खासतौर पर गर्भावस्था के दौरान यह संघर्ष और भी बढ़ जाता है.

जो महिला शादी के बाद ससुराल को ही अपना घर और ससुराल के सदस्यों को अपना परिवार समझ लेती है, उसको अपनाने में ससुराल वालों को बहुत समय लग जाता है. भले ही महिला अपने ससुराल के सदस्यों के खानेपीने से ले कर घर की साफसफाई और सभी की इच्छाओं का ध्यान रखती हो लेकिन उस के गर्भधारण करने पर वह ससुराल वालों पर बोझ के समान हो जाती है. फिर चाहे प्रेम विवाह हुआ हो या अरेंज मैरिज, लड़की को गर्भावती होने पर बहुत से समझौते करने पड़ते हैं.

पहला समझौता तो यही होता है कि या तो वह खुद अपने सारे काम करे या फिर अपनी मां के पास मायके चली जाए. लड़के की मां यानी सास तो सब से पहले पीछे हट जाती है. बहु से सेवा कराने में तो सास कभी कोई कमी नहीं छोड़ती, लेकिन बात जब बहु की सेवा की आती है, तो अपने बूढ़े होने की दुहाई देने लगती है. इतना ही नहीं बेटा कहीं बीवी का गुलाम न बन जाए इसके लिए उसे भी पत्नी की सेवा न करने की हिदायत दी जाती है. जबकि गर्भावस्था के दौरान एक महिला को सब से अधिक अपने पति की जरूरत होती है.

मनोचिकित्सक प्रांजली मल्होत्रा कहती हैं, “रिश्तों की डोर मजबूत होने में समय तो लगता ही है, बहु को बेटी मानना भी सास ससुर के लिए थोड़ा मुश्किल होता है. लेकिन पति तो पत्नी का साथी होता है. ससुराल में पत्नी को सब से बेहतर तरीके से सिर्फ पति ही समझ सकता है. इस अवस्था के दौरान होने वाली शारीरिक परेशानियों को एक महिला जितना खुल कर अपने पति को बता सकती है उतना शायद अपनी मां को भी नहीं बता सकती.

पति की जिम्मेदारी तब और भी बढ़ जाती है जब प्रेम विवाह हुआ हो क्योंकि अपनी पत्नी के मूड और इच्छाओं को वह और भी अधिक समझ सकता है क्योंकि दोनों पहले से एक दूसरे को जानते होते हैं. लेकिन पति की दिक्कत होती है कि उस की मां कुछ कहती है और पत्नी कुछ और. दोनों के बीच पिसने से अच्छा उसे बीवी को मायके भेजना लगता है. लेकिन अपनी सुविधा के लिए पत्नी को अकेले छोड़ देने में कोई समझदारी नहीं है.”

पुरुष यह क्यों नहीं समझते कि एक बच्चे को जन्म देना एक महिला के लिए आसान नहीं होता. यह वह अवस्था होती है, जब खुद एक महिला का नया जन्म होता है. इस दौरान असहनीय दर्द और न जाहिर कर पाने वाली तकलीफों से वह गुजरती है. इन तकलीफों को आसान बनाने में एक पति ही अपनी पत्नी की मदद कर सकता है. इसके लिए पति को अपनी तरफ से कुछ प्रयास करने होते हैं, जो निम्नलिखित हैः

1. गर्भावस्था के शुरुआती कुछ महीनों में महिलाओं को कुछ ज्यादा ही तकलीफ रहती है. ऐसे में घर के काम करने का मन न होना स्वभाविक सी बात होती है. कई बार सास का कहना होता है कि बच्चे तो हमने भी पैदा किए हैं लेकिन तकलीफ होने का नाटक नहीं किया. सास की यह बात सुन कर बहु कई बार अपनी तकलीफों को छिपाने का प्रयास करती है. गाइनोकोलोजिस्ट डॉक्टर मीता वर्मा कहती हैं, “बेशक एक वक्त था जब महिलाएं गर्भावस्था में भी फुरती से काम करती थीं. लेकिन उस वक्त उन्हें शुद्ध खानपान मिला करता था.

आज के वक्त में कितने ही पैसे खर्च कर लिए जाएं लेकिन पहले के समय जैसी शुद्धता नहीं लाई जा सकती है. इसलिए बहु की तुलना खुद से करना बेवकूफी है. वर्तमान समय में अच्छा खानपान न मिलने से पहले ही महिलाओं का शरीर कमजोर होता है ऊपर से गर्भधारण करने पर उन के शरीर में वह क्षमता नहीं रह जाती कि वह फुरती के साथ काम कर सकें.

यहां पति का फर्ज है कि इस दौरान पत्नी को आराम करने दें। यदि घर के बुजुर्ग बहु के हर वक्त आराम करन पर आपत्ति जताते हैं, तो पति को पत्नी के साथ घर के काम निबटाने में मदद करनी चाहिए. साथ ही पत्नी को अच्छे से अच्छा और डाक्टर द्वारा बताया आहार खिलाना चाहिए.

2. पति यदि अपनी पत्नी के साथ हर परिस्थिति में साथ खड़ा रहे, तो उस का आत्मविश्वास बना रहता है. हो सकता है कि आप की पत्नी के गर्भधारण करते ही आपकी मां ने उसे मायके जाने का हुकुम सुना दिया हो. मगर इस अवस्था में आपकी पत्नी मायके क्यों जाए? बस इसलिए क्योंकि आपकी मां आपकी पत्नी की गर्भावस्था के दौरान होने वाली इच्छाओं या काम में थोड़ी बहुत मदद करने के लिए तैयार नहीं है. यहां आप को गंभीर होना होगा. आप को साफ बोलना होगा कि आपकी पत्नी आपकी संतान को जन्म देने जा रही है और उसकी देखरेख आपकी नजरों के आगे ही होनी चाहिए.

दरअसल, पति से दूर इस अवस्था में महिलाएं अवसाद की शिकार हो जाती हैं. उन्हें लगता है कि उन्हें इस अवस्था में पति ने अकेला छोड़ दिया. आप को अपनी पत्नी को अवसाद में जाने से बचाना होगा. मनोचिकित्सक प्रांजली मल्होत्रा की माने तो, “भारत में फैमिली काउंसिलिंग का रिवाज नहीं है. हालाकि इस के बड़े फायदे हैं, बेबी प्लानिंग में लड़की और लड़के के पेरैंट्स को भी शामिल करना चाहिए. इस से उन्हें आगे आने वाली जिम्मेदारियों को निभाना बोझ नहीं लगेगा. सब कुछ तय कर के ही बेबी प्लान करना चाहिए.”

3. कई बार पैसे बचाने के चक्कर में घर के बड़ेबुजुर्ग रूटीन चेकअप के लिए डाक्टर के पास बहू को ले जाने के लिए तैयार नहीं होते. उनका मानना होता है कि जब तकलीफ हो तब ही डाक्टर के पास जाया जाए. लेकिन ऐसा अपनी पत्नी के साथ न होने दें. गाइनोकोलॉजिस्ट डा. मीता वर्मा कहती हैं, “गर्भावस्था के शुरुआती 3 महीने रुटीन चैकअप बहुत महत्वपूर्ण होता है. यह वह वक्त होता है जब बच्चे के और्गेंस बन रहे होते हैं. इस दौरान डॉक्टर की सही सलाह की बहुत जरूरत होती है.” पति को बल्कि खुद पत्नी को रूटीन चेकअप के लिए ले जाना चाहिए न कि अपनी मां या बहन के साथ पत्नी को भेजना चाहिए. इस से पत्नी को आप के केयरिंग नेचर का अंदाजा होगा और वह खुद को सुरक्षित महसूस करेगी.

4. गर्भवती महिलाओं को धर्म और अंधविश्वास के नाम पर कई बेतुकी नसीहतें दी जाती हैं. उन का विरोध करें. अमूमन, हिंदू परिवार में महिलाएं गर्भवती महिला को उस का पेट का बढ़ता आकार और गुप्त अंग दिखाने के लिए बाध्य करती हैं. यह सब देख कर गर्भवती महिला को बताया जाता है कि उसे लड़का होग या लड़की. चाहे भविष्यवाणी करने वाले की बात गलत ही क्यों न हो लेकिन इस तरह से गर्भवती महिला लोगों की उम्मीदों से घिर जाती है. यदि भविष्यवाणी में पता चलता है कि लड़की होने वाली है, तो लोग एक नकली मुस्कराहट के साथ कहते हैं कि लड़का हो जाता तो पहली बार में ही निपट जाती. कुछ तो यह तक कह देते हैं कि, चलो सालभर में लड़के के लिए प्रयास कर लेना. पति चाहे तो पत्नी को इन सब से बचा सकता है.

5.बीवी कामकाजी है. प्रैगनैंट होने से पूर्व नौकरी भी करती थी. लेकिन गर्भावस्था के कारण उसे नौकरी छोड़नी पड़ जाती है. जाहिर है, घर का और बीवी का खर्चा भी अब पति को ही उठाना पड़ता है. मनोचिकित्सक प्रांजली मल्होत्रा कहती हैं, “इस के लिए बात-बात पर बीवी को सुनाए नहीं. उसे इस बात का एहसास न कराएं कि आप उसे पालपोस रहे हैं. क्योंकि इस अवस्था में पत्नी को लाने में आप भी जिम्मेदार हैं और वह आप की ही संतान को जन्म देने वाली हैं. इसलिए उस की हर जरूरत को पूरा करना आपकी ही जिम्मेदारी है.”

6. इस दौरान महिलाओं को अकेलापन सताने लगता है. हो सकता है कि आपकी पत्नी आपको दिनभर में कई बार फोन करे. इस अवस्था में आप अपनी पत्नी के फोन कॉल को कभी नजरअंदाज न करें. क्या पता उन्हें कुछ बहुत जरूरी बताना हो. खुद भी बीच बीच में कॉल करते रहें. इस से गर्भवती महिला का अकेलापन दूर होता है और मनोबल बढ़ता है.

ध्यान रखें, लव मैरिज हो या अरेंज मैरिज रिश्ते में साथी के लिए स्नेह को कभी कम नहीं होने दें. खासतौर पर गर्भावस्था के दौरान जब पत्नी के स्वास्थ्य में उतारचढ़ाव आ रहे हों, तब पति की भूमिका और भी बड़ी हो जाती है ऐसे वक्त में पति न केवल पत्नी का जीवनसाथी होता है बल्कि उसे उसके मातापिता की भूमिका भी निभानी पड़ती है और इन भूमिकाओं को जिम्मदोरी के साथ निभाने से पति को कभी भी पीछे नहीं हटना चाहिए.

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