Relationship : सवाल वाकई बहुत पेचीदा है कि पैसा अपने शौक पूरे करने खर्च किया जाए या संतान के लिए छोड़ दिया जाए. कहना बहुत आसान और तात्कालिक प्रतिक्रिया है कि अपने शौक पूरे किए जाएं लेकिन इस पर अमल 10 फीसदी से भी कम पेरैंट्स नहीं कर पाते क्योंकि….
ऐसी धारणा है कि यह कहावत बहुत पुरानी है लेकिन इस का प्रमाणिक और घोषित उल्लेख सब से पहले 30 के दशक के मशहूर साहित्यकार मधुशाला के रचयिता और अभिनेता अमिताभ बच्चन के पिता डाक्टर हरिवंश राय बच्चन के खंड काव्य `विरासत` में मिलता है. लेकिन इस से इस कहावत की लोकप्रियता और प्रासंगिकता पर कोई असर नहीं पड़ता. हर कोई मानता है कि बात जिस ने भी कही हो सौ फीसदी खरी और तजुर्बों के तराजू पर तुली हुई है.
लेकिन इस कहावत पर लोग अगर अमल करते होते तो शायद पेरैंट्स और बच्चों का रिश्ता बहुत ज्यादा परवान नहीं चढ़ता और न ही उस में पारिवारिक, सामाजिक और कानूनी झंझटें होतीं. ऐसी खबरें भी हर कभी मीडिया की सुर्खियां न बनती कि जायदाद के लिए बूढ़े मांबाप को घर से निकाला, बेटों ने बूढ़े मांबाप को पाईपाई के लिए मोहताज किया और ऐसी खबरें भी पढ़नेसुनने में न आतीं कि अदालत ने बेटों को मांबाप को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया.
ऐसी घटनाओं पर आम प्रतिक्रिया यही होती है कि ऐसी कलयुगी औलादों से लोग बेऔलाद भले. क्यों आजकल की नालायक संतानों के लिए जिंदगीभर बैल की तरह जुते रह कर पैसा कमाया और इकट्ठा किया जाए. इस से तो बेहतर यह है कि अपनी कमाई से जी भर कर जियो, खूब ऐश करो, घूमोफिरो और अपने शौक पूरे करो. ऐसा कहते सब हैं लेकिन इस पर अमल विरले भी कर नहीं पाते. वजह वही शाश्वत संतान का मोह है जिस ने महाभारत जैसे भीषण युद्ध करवा दिए फिर आम लोगों की विसात क्या.
आम भी मोहग्रस्त और खास भी
लेकिन विजयपत सिंघानिया की गिनती आम लोगों में नहीं की जा सकती. रेमंड जैसे लोकप्रिय ब्रांड के मैनेजिंग डायरेक्टर और चेयरमैन रहे इस खरबपति कारोबारी की दयनीयता पर हर कोई तरस खाता है. विजयपत के पिता कैलाशपत सिंघानिया कोई खास या उल्लेखनीय जायदाद पैसा नहीं छोड़ गए थे लेकिन अपनी मेहनत और लगन से विजयपत ने इतिहास रच डाला. अपने पिता के छोड़े फैब्रिक ब्रांड रेमंड को उन्होंने कारोबार के आसमान का सूरज एक वक्त में बना डाला था. रेमंड के साथ पार्क एंड एवेन्यू ब्रांड भी विजयपत ने लौंच किया था.
1990 में जब उन्होंने रेमंड का पहला शोरूम खोला था तब किसी को अंदाजा नहीं था कि एक दिन वे देश के सब से बड़े रईस कारोबारी बन जाएंगे. 2015 आतेआते उन की नेटवर्थ लगभग 12000 करोड़ रुपए हो गई थी.
विजयपत की शान और रसूख का अंदाजा लगाने यह हकीकत ही काफी है कि लोग उन से मिलने तो दूर की बात है उन की एक झलक पाने के लिए भी तरसते थे. मुंबई स्थित उन के घर जेके हाउस के आगे मुकेश अंबानी का घर एंटेलिया आज भी उन्नीस ही लगता है.
विजयपत के शौक भी उन की शख्सियत और रईसी की तरह निराले थे. उन्हें हवा में उड़ने का शौक था. हवाईजहाज और हेलीकाप्टर वे खिलौनों की तरह उड़ाते थे. उन के पास 5000 घंटों की उड़ान का तजुर्बा है. इतना ही नहीं 67 साल की उम्र में विजयपत ने हौट एयर बैलून सब से ऊंचाई तक उड़ाने के वर्ल्ड रिकौर्ड भी रच रखा था.
फिर एक दिन हवा से वे जमीन पर ऐसे गिरे कि आजतक उठ नहीं पाए. बुढ़ापे में उन्होंने वही गलती की जो आम पिता करता है. वह गलती थी अपने बेटे गौतम सिंघानिया को रेमंड की कमान सहित सारा कारोबार सौंप देने की. यह 2015 की बात है जब इन बापबेटे में एक फ्लैट को ले कर विवाद शुरू हुआ.
अपना सबकुछ बेटे के हाथों में सौंप देने वाले विजयपत को गौतम ने हद से ज्यादा क्रूरता दिखाते घर से ही खदेड़ दिया. जिस के पास अपने ही पैसों का कभी कोई हिसाब नहीं होता था वह कारोबारी मुंबई में ही किराए के फ्लैट में रहने मजबूर हो गया. महंगी गाड़ियों से पांव नीचे न रखने वाले विजयपत को पब्लिक ट्रांसपोर्ट का किराया देने भी पैसे नहीं होते.
सिंघानिया बापबेटे का यह झगड़ा कोर्ट में है जिस का फैसला कुछ भी आए लेकिन यह सबक हर किसी को इस से मिला था कि कभी भी संतान पर इतना अंधा भरोसा नहीं करना चाहिए जितना कि विजयपत ने किया था. उन के शौक अब हवा हो चुके हैं और बेटा उन की कमाई दौलत पर महलों के सुख भोग रहा है. वह सिर्फ इसलिए कि पिता ने अपने शौक तो शौक, जरूरतें पूरी करने अपने पास फूटी कौड़ी भी नहीं रखी थी.
इन दिनों मुकेश अंबानी भी बेटे के मोह में पड़ कर बेहिसाब पैसा फूंक रहे हैं. उस का बेहतर हालिया उदाहरण उन के बेटे अनंत अंबानी की जामनगर से ले कर द्वारकाधीश मंदिर तक की 170 किलोमीटर की पद यात्रा रही जिसे आध्यत्मिक यात्रा करार दे कर करोड़ों रुपए मुकेश ने उस पर खर्च किए. खर्च क्या किए बहा डाले. इतिहास में शायद ही किसी ने बेटे को दुबला बनाने इतना पैसा खर्च किया होगा.
इस शोबाजी के दीगर माने कुछ भी हों पर बेटे की चाहत पर उंगली नहीं उठाई जा सकती ठीक वैसे ही जैसे कभी विजयपत सिंघानिया पर नहीं उठाई जा सकती थी जिस ने इस धारणा को झुठला दिया था कि रईसों के पास इतना पैसा तो होता है कि वे संतानों के लिए आकूत दौलत भी छोड़ जाएं और अपने शौक भी पूरे कर लें.
महंगी पड़ती समझौतावादी मानसिकता
इस में कोई शक नहीं कि आदमी संतान को जान से भी ज्यादा चाहता है और जो भी करता है उसी के लिए करता है. 50 – 55 की उम्र के बाद ही लोग यह राग अलापना शुरू कर देते हैं कि हमारा क्या है हम तो अपनी जिंदगी जी चुके, अब जो भी है बच्चों के लिए है. ये पढ़लिख कर कुछ करने लगें, अपना कमाने खाने लगें, इन की घरगृहस्थी जम जाए तो समझो हम ने गंगाजी नहा ली. पर यह वह गंगा नहाना नहीं है जिस की ख्वाहिशें उन्होंने अपनी जवानी के दिनों में बुनी होती हैं.
खुद सुखसुविधाओं और ऐशोआराम से जिएं या जिंदगीभर जरूरतों की हत्या कर जो पैसा जोड़ा है उसे संतान के लिए छोड़ जाएं यह सवाल हमेशा से ही पेरैंट्स के सामने मुंह बाए खड़ा रहा है. जिस की हकीकत कुछ और यह है कि दरअसल में जिंदगी शुरू ही इस उम्र में होती है जिस में हर किसी के पास इतना तो वक्त और पैसा होता है कि वह वह जिंदगी जी ले जिस के सपने उस ने जवानी में देखे थे.
जिन सपनों पूरा करने के लिए दिनरात मेहनत कर बेहतर आज बनाया था. लेकिन यही आज औलाद के लिए पैसा जमा करने में गुजरता जाता है. सोच यही रहती है कि कभी हमारी औलाद को पैसों की वजह से कभी नीचा न देखना पड़े, किसी के सामने झुक कर बात न करना पड़े और वह कभी किसी की मोहताज न हो.
संतान को कोई कमी न हो भले ही हमें मरने तक कई कमियों से जूझना पड़े यह मानसिकता तय है 90 फीसदी से ज्यादा पेरैंट्स की रहती है. और यही मानसिकता उन्हें वे समझौते करने मजबूर कर देती है जिन्हें वे कैरियर के शुरुआती दौर से ही करते आ रहे होते हैं. यानी जितना हो सके पैसा जमा करो, ज्यादा से ज्यादा बचत करो जो आगे चल कर बच्चों के काम आएगी.
कोई यह नहीं सोचता कि आगे चल कर ये बच्चे उन के काम आएंगे या नहीं. तय है उन्हें यह भी समझ नहीं आता कि पैसे की उपयोगिता और अहमियत खुद के शौक पूरे करने में ज्यादा है या संतान के लिए जमा करते जाने में है. इस में भी कोई शक नहीं कि इस सवाल का जवाब 11 के पहाड़े की तरह आसान नहीं है लेकिन यह 99 के पहाड़े की तरह कठिन भी नहीं है.
इसी सवाल के फेर में उलझे भोपाल के अखिलेश बताते हैं कि इस का सामना उन्हें भी करना पड़ा था. अखिलेश वल्लभ भवन के एक सरकारी महकमे में द्वितीय श्रेणी के राजपत्रित पद से एक साल पहले रिटायर हुए थे. उन्हें जीपीएफ वगैरह का 50 लाख रुपए के लगभग मिला था जिस में से आधे उन्होंने मकान के लोन के चुका कर बैंक की किश्तों के बोझ से छुटकारा पाया 20 लाख रुपए बतौर इमरजैंसी फंड और बेटे की शादी के लिए फिक्स में जमा कर दिए और बचे 5 लाख खुद के शौक पूरा करने रख लिए.
बाकी सब यानी कार, थोड़ा सोना वगैरह तो वे सर्विस में रहते ले ही चुके थे. यानी जिंदगी में कोई झंझट और बड़ी जिम्मेदारी न थी सिवाय इस चिंता के बेटे की छोटीमोटी ही सही नौकरी लग जाए तो अच्छी सी लड़की देख उस के हाथ पीले कर दिए जाएं. तो उन्होंने रिटायर्ड लोगों के संविधान के मुताबिक यही सोचने में लगा दिया कि अब बची जिंदगी में क्याक्या करना है आराम करना है, रिश्तेदारों से मिलनाजुलना है, समाज सेवा करनी है और भी बहुत कुछ करना है जो रिटायर्ड आदमी सोचता तो है तो लेकिन करता नहीं. इसी कड़ी में उन की पत्नी सहित दुबई जाने की पुरानी इच्छा जागृत हुई जिस के लिए बचे 5 लाख रुपए पर्याप्त थे.
जब यह बात बेटे को बताई तो वह सुनते ही बड़ा खुश हुआ और दुबई के बारे में बहुत कुछ बताता रहा. आनेजाने का पैकेज भी उस ने इंटरनेट से निकाल कर रख दिया पर दोतीन दिन में ही जाने कहां से उसे ज्ञान प्राप्त हो गया कि वह अपनी पुरानी जिद और मांग पर अड़ गया कि मुझे बुलेट बाइक चाहिए. जिस की कीमत 3 लाख रुपए के लगभग है.
कहने की जरूरत नहीं कि बेटे की गिद्ध और कुत्सित नजर उन 5 लाख रुपयों पर थी जो अखिलेश जी ने दुबई घूमने जाने रख छोड़े थे. यह मांग रखते वक्त बेटे उन तमाम टोटकों का सहारा लिया था जिस के आजकल के बेटे विशेषज्ञ होते हैं.
मसलन मुंह लटका कर बैठ जाना, खाना कम यानी दिखावे के लिए खाना, रात देर रात घर लौटना और बारबार यह कह कर इमोशनली ब्लैकमेल करना कि अच्छा तो आप लोग ही दुबई हो आओ. किस्मत अच्छी रही तो बाइक तो मैं जौब लगने के बाद ले लूंगा.
मोहग्रस्त कमजोर पिता
अखिलेश हमेशा की तरह बेटे की जिद के आगे कमजोर पड़ गए और दुबई जाने की इच्छा त्याग बेमन से ही सही बेटे को बुलेट दिला दी. लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि वह बेटे की कोई मांग पूरी करने के बाद वे खुश नहीं हुए. वे बताते हैं “मुझे एहसास है कि मैं ने गलत किया मुझे अपना इकलौता अधूरा शौक पूरा कर लेना चाहिए था. पर मुझे लगा कि जिस इकलौते बेटे के लिए जिंदगीभर त्याग किया उस की यह इच्छा भी पूरी कर ही दूं. जिस से उसे यह सोचने में न आए कि वह चूंकि बेरोजगार है इसलिए पेरैंट्स पर बोझ बन गया है.”
इस एक और ऐसे कई उदाहरणों से सहज समझा जा सकता है कि मांबाप कहां, कब, कैसे धर्म संकट में फंसते हैं. इस से बचने का ऐसा भी नहीं कि कोई रास्ता न हो, रास्ता है पैसे के विभिन्न मदों में बंटवारा करने का.
अखिलेश का 20 लाख की एफडी करना भी भविष्य के लिहाज से ठीक था. 25 लाख का होम लोन जमा कर देने का फैसला भी वित्तीय बुद्धिमानी की निशानी था. लेकिन जौब ढूंढे रहे बेटे को 3 लाख की बाइक दिला देने का फैसला शुद्ध मोह से ग्रस्त था.
होना तो यह चाहिए कि अपनी कमाई का 20 फीसदी हिस्सा अपने शौक पूरे रखे जाएं बाकी 80 में से परिस्थितयों के मुताबिक अलगअलग रख देना चाहिए. संतान को भी हालातों के हिसाब से ही देना चाहिए. लेकिन बेहतर यह है कि देने के बजाय अलग रख देना चाहिए जिस से वह बाइक जैसी फिजूलखर्ची में जाया न हो. जिंदगीभर की अपनी गाढ़ी कमाई की पाई भी धार्मिक कार्यों और तीर्थ वगैरह पर लुटाना नहीं चाहिए.
अपनों पे सितम
दौलत को लुटाना तो रिश्तेदारों पर भी नहीं चाहिए क्योंकि रिटर्न उस का भी नहीं मिलता. 45 वर्षीय अम्बुज की पीड़ा यह है कि उस के किसान पिता जिंदगीभर भाईभतीजों पर पैसा उड़ाते रहे. मां ने और अम्बुज ने समझाने की कोशिश की ऊंचनीच बताई तो वे और भड़क गए. अम्बुज बताता है “अब पिता अशक्त हो कर मेरे घर पड़े रहते हैं लेकिन मैं उन की दिल से सेवा शुमार नहीं कर पाता और इस बाबत मुझे कोई गिल्ट भी महसूस नहीं होता. क्योंकि उन्होंने हमारे साथ ज्यादतियां तो की थीं हां मैं उन के साथ वह व्यवहार नहीं करता जो उन्होंने मेरे साथ किया था.
“कालेज के दिनों में उन्होंने अपने बड़े भाई के बेटे यानी मेरे कजिन को बाइक दिलाई थी और मैं कल्पता रह गया था. बात सिर्फ एक बाइक की ही नहीं है बल्कि उन 50 लाख रुपए की भी है जो उन्होंने अपनी भतीजी की शादी के लिए तीन एकड़ जमीन बेच कर दिए थे. फिर छोटीमोटी बातों का तो आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं. एक वक्त में तो मैं मां और छोटा भाई इस बात से डरने लगे थे कि कहीं रोकने पर वे हमें घर से ही न निकाल दें. अब हालत यह है कि उन का कोई भाईभतीजा सेहत का हालचाल पूछने भी नहीं फटकता क्योंकि अब उन के पास देने को कुछ नहीं बचा.”
छोटे कस्बों और शहरों में जब कोई मरता है तो उस की शवयात्रा के पीछे चलने वाले लोग रामनाम सत है की रस्म निभाने के बाद मृतक के चरित्र और उस के आर्थिक स्वभाव की चर्चा चटखारे ले कर करते हैं. मसलन बड़ा कंजूस था यार यह आदमी, जिंदगीभर पैसों को दांत से पकड़े रहा. लेकिन तुक के काम में कभी एक पाई भी खर्च नहीं की. और तो और बेटों को भी अच्छा खाने और अच्छा रहने तरसा दिया. अब सब मिलना तो उन्ही बेटों को है जो मुन्नालाल की होटल के पीछे चिलम फूंकते रहते हैं. देखना इन का पैसा अब गांजे और दारू के ठेकेदारों की तिजोरी भरेगा. किस काम का ऐसा पैसा.
कभी संजीदगी से सोचें कि आप कमाते क्यों हैं जाहिर है पहला जवाब यही होगा कि घर के लिए और बच्चों के लिए लेकिन एक मुकाम यानी उन के कमाने की उम्र हो जाने के बाद संतान पर खर्च करना अक्ल की बात नहीं. यह भी ठीक है अधिकतर आर्थिक फैसले हालातों के मुताबिक लिए जाते हैं मगर इन में एक खाना अपने शौक पूरे करने भी रखा जाना चाहिए. नहीं तो वह कमाई भी किस काम की जो जिंदगीभर अपनों के नाम पर हलाल होती रहे.