न्यूज चैनल्स की खबरें अब विश्वसनीय नहीं रह गई हैं क्योंकि ये प्रायोजित व पूर्वाग्रह से ग्रस्त होती हैं. इस के अलावा टीआरपी के लिए चैनल्स किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहते हैं, वहीं सनसनी मचाने के लिए तिल का ताड़ बनाने से नहीं चूकते. बताओ बच्चो, ‘थूक कर चाटना’ मुहावरे का अर्थ क्या होता है तो जवाब में 30-40 साल पहले के एक या दोतीन नहीं, बल्कि प्राइमरी कक्षाओं के पूरे बच्चे खड़े हो कर इस मुहावरे का मतलब उदाहरण सहित सम झा देते थे, ‘मोहन ने जंगल में शेर को पछाड़ा लेकिन जिरह करने पर उसे साबित नहीं कर पाया, और तो और, उस ने यह भी माना कि वह कभी जंगल ही नहीं गया.

इसे कहते हैं थूक कर.......’ तब मास्टरजी बड़े प्रसन्न होते थे कि बड़े हो कर ये होनहार बच्चे देशभर में फैल कर उन का, स्कूल का और देश का नाम रोशन करेंगे और वाकई ऐसा हो रहा है. ये बच्चे अब न केवल बड़े हो गए हैं बल्कि बड़े हो कर खूब थूकथूक कर चाट भी रहे हैं. इन में से अधिकतर न्यूज चैनल्स के एंकर बन गए हैं क्योंकि वहां अपनी ही कही बात से पलटने की ही नौकरी उन्हें मिली हुई है. थूक कर चाटने की जैसी सहूलियत इलैक्ट्रौनिक मीडिया में है वैसी सहूलियत और छूट वकालत तो दूर की बात है नेतागीरी या दूसरे किसी कारोबार में भी नहीं है, ऐसा शायद इसलिए कि, थोड़ी ही सही, जवाबदेही का रिवाज या मजबूरी वहां है. यहां थूकने पर भी तालियां बजती हैं और फिर उसे चाटने पर भी तालियां बजती हैं और शाबाशी मिलती है. थूक कर चाटना अब खरबों का ग्लैमराइज्ड बिजनैस है.

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