न्यायपालिका का पहला कर्तव्य न्याय देना है. कोई निरपराधी जेल में बंद न हो जाए, इस का ध्यान भी रखना होता है. इसी के चलते आपराधिक मामलों में अपील करने का अधिकार मुलजिम को दिया गया है. सुरेंद्र ने बैंक से कर्ज ले कर स्कूटर खरीदा. जिस दिन स्कूटर शोरूम से निकल कर आया उसी दिन वह अपने दोस्त के घर मिलने जाने लगा. रास्ते में ट्रैफिक पुलिस ने ड्राइविंग लाइसैंस न होने के कारण उस का चालान कर दिया. अदालत ने उसे 2,000 रुपए के जुर्माने की सजा दे दी.
लोगों ने उस के मन में डर बैठा दिया कि वह सरकारी कर्मचारी है, इस सजा के कारण उस के खिलाफ विभाग भी कार्यवाही करेगा. उस ने इस जुर्माने की सजा के खिलाफ अपील पेश की. उस की अपील को अदालत ने यह कहते खारिज कर दिया कि जिस मामले में मुलजिम ने खुद जुर्म को मंजूर किया हो उस मामले में अपील किया जाना संभव नहीं है. अदालत में पुलिस जब चालान पेश कर देती है तब मुलजिम से अदालत द्वारा यह पूछा जाता है कि वह जुर्म को मंजूर करना चाहता है या मुकदमा लड़ना चाहता है. इस तरह यह मुलजिम पर निर्भर है कि वह चाहे तो जुर्म को मंजूर करे और चाहे तो मुकदमा लड़े. सुरेंद्र से पूछा गया तो उस ने लाइसैंस न होना स्वीकार कर लिया.
सुरेंद्र के जुर्म मंजूर करने पर अदालत ने उस पर जुर्माना कर दिया. इस प्रकार अदालत का फैसला सुरेंद्र के जुर्म मंजूर करने के बाद हुआ. इस देश में आपराधिक मामलों में अपीलें करना न केवल बहुत मुश्किल है, बल्कि महंगा भी है. इस में होने वाली देरी से मुलजिम का अपील का अधिकार ही लगभग समाप्त हो जाता है. अपराधियों की लगभग 1.83 लाख अपीलें आज उच्च न्यायालय में लंबित पड़ी हैं. जहां जमानत मिल चुकी हो, वहां तो ठीक है पर जहां जमानत न मिली हो वहां आरोपी बिना कानूनी अधिकार उपयोग कर पाए वर्षों जेलों में सड़ता है और कोड औफ क्रिमिनल प्रोसीजर के अपील के प्रावधान, कुंडली में लिखे सुखमय भविष्य की तरह धरे रह जाते हैं. इलाहाबाद उच्च न्यायालय में 2000 से 2021 तक 1,71,481 अपीलें आपराधिक मामलों की दर्ज की गईं. इस दौरान 31,044 का ही निबटारा हुआ जिन में पिछली बकाया अपीलें शामिल हैं.
7,214 आरोपी तो 10 साल से ज्यादा की कैद अपनी अपीलों के दौरान भुगत रहे हैं. बड़ी अदालतों का बोझ कम करने के लिए कानून में यह प्रावधान भी किया गया है कि छोटे मामलों में एक अदालत का फैसला हो जाने पर उस फैसले के खिलाफ अपील नहीं की जा सकेगी. जब हाईकोर्ट किसी आपराधिक मामले में 6 महीने की कैद की सजा या एक हजार रुपए का जुर्माना कर दे या सैशन न्यायालय 3 महीने तक की कैद या 200 रुपए का जुर्माना कर दे और मजिस्ट्रेट 100 रुपए का जुर्माना कर दे तो इन फैसलों के खिलाफ अपील नहीं होती है. रहमान के खिलाफ सरकारी रकम के गबन का मुकदमा चलाया गया. उसे अदालत ने एक साल कैद की सजा और जुर्माने का दंड दिया.
लेकिन सरकार इस फैसले से संतुष्ट नहीं हुई. उस ने सजा बढ़ाने के लिए बड़ी अदालत में अपील पेश कर दी. बड़ी अदालत ने मामले की गंभीरता को देखते हुए 2 साल कैद की सजा सुना दी. कल्याणकारी राज्य में यह माना जाता है कि जुर्म किसी आदमी के खिलाफ न किया जा कर सरकार के खिलाफ किया गया है. यही कारण है कि पीडि़त आदमी की तरफ से सरकार पूरे मामले की पैरवी करती है. पीडि़त आदमी को अपनी तरफ से वकील नियुक्त करने की कोई जरूरत नहीं है. सरकारी वकील उस की ओर से खुद मुकदमे की पैरवी करते हैं. सो, जिस मामले में मुलजिम बरी हो जाता है या उसे कम सजा दी जाती है तो सरकार ही बड़ी अदालत में अपील पेश करती है.
अपील का पूरा खर्चा सरकारी खजाने से किया जाता है. रिपोर्ट लिखने में आनाकानी कई बार पुलिस रिपोर्ट लिखने में आनाकानी करती है या फिर रिपोर्ट लिखने से साफ मना कर देती है तो रिपोर्ट अदालत में दर्ज कराई जा सकती है. राकेश के साथ भी ऐसा ही हुआ. उस के पड़ोसी ने बच्चों के झगड़े की रंजिश की वजह से उस के घर में घुस कर मारपीट की. वह पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखाने गया तो पुलिस ने रिपोर्ट नहीं लिखी. राकेश ने वकील से सलाह ले कर अदालत में रिपोर्ट पेश कर दी. अदालत ने राकेश और उस के गवाहों के बयान लिए और पूरी सुनवाई के बाद इस नतीजे पर पहुंची कि चश्मदीद गवाहों ने मारपीट की तस्दीक नहीं की. सो, मुलजिमों को बरी कर दिया. यदि राकेश इस फैसले से संतुष्ट न हो तो उसे अपील करने के लिए उच्च न्यायालय से विशेष इजाजत लेनी पड़ेगी. उसे वकील भी खुद को ही नियुक्त करना पड़ेगा. सरकार इस मामले में राकेश की कोई मदद नहीं करेगी.
इस की वजह यह है कि राकेश ने निजी हैसियत से मुकदमा दर्ज कराया था. यही मुकदमा पुलिस के मारफत अदालत में आया होता तो सरकारी वकील ही पूरा मुकदमा लड़ते. फरियादी को ही बरी के फैसले के खिलाफ अपील पेश करने का अधिकार है. अगर किसी मामले में फैसले के बाद अपील पेश करने से पहले ही फरियादी का देहांत हो जाए तो उच्च न्यायालय फरियादी के वारिस या अन्य चश्मदीद गवाहों को अपील पेश करने की इजाजत दे देते हैं. आपराधिक मामलों में उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ हर मामले में अपील नहीं की जा सकती. जब किसी मामले में मुलजिम को निचली अदालत ने बरी कर दिया हो और अपील की सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने उसे 10 साल से ज्यादा की कैद या फांसी की सजा सुनाई हो तो मुलजिम सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकते हैं.
महेश को अदालत ने सजा सुनाई. तब वह जेल में बंद था. उस ने जेलर को पूरे हालात बता दिए. जेलर की सलाह पर उस ने जेलर की मारफत बड़ी अदालत में अपनी अपील की अरजी पेश की. अदालत ने सरकारी खर्च पर उसे वकील मुहैया कराया और उस की अपील की सुनवाई कर फैसला सुनाया. गरीबों और जेल में बंद व्यक्तियों को मुफ्त कानूनी सहायता मुहैया कराने का इंतजाम किया गया है. जो लोग गरीबी के कारण अपनी पैरवी नहीं कर सकते उन्हें भी इंसाफ प्राप्त करने का हक है. न्यायालयों की स्थापना करने का मकसद पीडि़त व्यक्ति को इंसाफ और मुलजिम को सजा देना है ताकि समाज में शांति रह सके. अगर एक अदालत से किसी के हक में फैसला न हुआ हो और उस फैसले की अपील करने का कानूनी प्रावधान हो तो अपील की जानी चाहिए. आज मुलजिम को सजा देने से पहले उसे सुनवाई का मौका देना जरूरी है. इस सुनवाई के समय वह अपने हालात को बयान कर अदालत से कम सजा दिए जाने की गुजारिश कर सकता है. सोहनलाल और माखन सिंह के खिलाफ एक ही तरह की मारपीट करने के मुकदमे अलगअलग अदालतों में चले. सोहनलाल को तो 3 महीने कैद की सजा हुई. मगर माखन सिंह को एक साल तक सदाचरण के लिए पाबंद कर छोड़ दिया गया.
इस तरह की अलगअलग सजाएं होने की वजह मुलजिमों की आयु, मुकदमे की सुनवाई के दौरान उस का बरताव और उस पर आश्रितों की संख्या का भी खयाल रखा जाना है. माखन सिंह की आयु 65 साल के करीब थी. इस वजह से अदालत ने उसे एक साल के लिए नेक चालचलन की जमानत ले कर पाबंद किया व छोड़ दिया. अपील की अदालतों को वास्तविक न्याय करने के मकसद से बहुत सी शक्तियां दी गई हैं. ये अदालतें जब अपील की सुनवाई के दौरान यह महसूस करती हैं कि मुकदमे के सभी पहलुओं पर विचार नहीं किया गया है तो अनसुने पहलुओं पर विचार करने के लिए मुकदमे को उसी अदालत को वापस भेज देती हैं. जहां तक संभव हो सके वहां तक अपील जल्दी से जल्दी करनी चाहिए. अपील के लिए भी एक निश्चित समय तय किया गया है. इस समय के गुजर जाने के बाद पेश की गई अपील को सामान्य हालात में नहीं सुना जाता है.
अगर अपील करने का समय निकल गया हो तो देरी के सभी कारणों को अदालत में साबित किए जाने पर अदालत देरी को माफ करती है. यह नहीं भूलना चाहिए कि एक व्यक्ति को गलत तरह से जेल में भेज देने पर सजा वह व्यक्ति ही नहीं भुगतता, उस का पूरा परिवार भुगतता है. जेलों का आतंक तो एक तरफ है ही, दूसरी तरफ सामाजिक बहिष्कार है जो जेल में बंद या जमानत में बाहर व्यक्ति के घरवालों, पत्नी, बच्चों, मांबाप को सहना पड़ता है. जेलों में भ्रष्टाचार छिपा नहीं है. अपील का अधिकार न हो या आधाअधूरा हो तो यह तानाशाही युग की वापसी नजर आती है. हर जज को इस बात का ध्यान रखना होता है कि कोई निरपराधी जेल में बंद न हो, अपीलों का प्रावधान इसीलिए है.