मृतक के हाथ में एक छोटा सा फटेचिटे कपड़े का टुकड़ा था, जिस पर लिखा हुआ था, ‘दहेज उत्पीड़न के आरोप को सह न पाने के कारण मजबूरन मुझे यह रास्ता अख्तियार करना पड़ा.’ आत्महत्या करने वाले इस शख्स का नाम था प्रयाग सिंह. 1983 में घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को ढाल के रूप में 498ए कानून सौंपा गया था. आज ज्यादातर मामलों में यह ढाल अब एक धारदार हथियार के रूप में तबदील हो चुकी है.
विवाहित महिलाओं को विशेष तरह की सुरक्षा देने वाली भारतीय दंड विधान की धारा 498ए के लागू होने के 3 दशक पूरे हो चुके हैं. वास्तविकता यह है कि सही माने में मुट्ठीभर मामलों को छोड़ कर न्याय देने और दिलाने में यह धारा कोसों दूर है. इस धारा का पुरुषों के खिलाफ बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है. इस का अंदेशा शुरू से ही था और समयसमय पर विभिन्न मोरचों पर इस को ले कर बहुत बहस भी हो चुकी है. इस में जो नया है वह यह कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि 498ए धारा के अंतर्गत अभियोजन पक्ष द्वारा महज शिकायत करने पर बगैर जांच के अभियुक्त/अभियुक्तों को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता.
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने पहले भी इस धारा के बेजा इस्तेमाल पर नाराजगी जाहिर की थी. एक बार तो इसे ‘कानूनी आतंकवाद’ का भी नाम दिया गया. लेकिन धारा के लागू होने के 3 दशक के बाद सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश सी के प्रसाद की खंडपीठ ने घरेलू हिंसा के एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि देखा जा रहा है धारा 498ए का इस्तेमाल ढाल के बजाय हथियार के रूप में कहीं अधिक हो रहा है. इसलिए पुलिस मामले की जांच किए बगैर अभियुक्त को गिरफ्तार नहीं कर सकती है. थाना क्षेत्र के पुलिस जांच अधिकारी को मैजिस्ट्रेट के सामने अभियुक्त की गिरफ्तारी के लिए तर्क और तथ्य पेश करने होंगे. वहीं, न्यायाधीश सी के प्रसाद की खंडपीठ ने मजिस्ट्रेटों को भी ताकीद की है कि ऐसे मामले में वे भी मशीनी तौर पर अपना फैसला न सुनाएं.