मोबाइल पर यह प्रश्न ‘कहां हो’ सर्वाधिक लोकप्रिय है. प्रश्न पूछने के ?ाठे शिष्टाचार का इस ने खूब खात्मा किया है. लोगों ने मर्यादा, लोकलाज तथा छोटेबड़े के नाम पर अपने कहीं भी होने को बड़ा गोपन रखने की परंपरा बना रखी थी, वह भी इस ने खूब ध्वस्त की है. अब तो वह शख्स तक इस प्रश्न को पूछता/पूछती है जिस को आप के कहीं भी होने या न होने से कोई फर्क ही न पड़ता हो. इतनी रट तो कोई पपीहा व चकवा तक न लगाता होगा.

हम से तो ज्यों ही यह प्रश्न पूछा जाता है त्यों ही मन करता है पूछने वाले की कनपटी पर एके-47 तान कर कहें, ‘हूं, तो इसी नश्वर संसार में मर भाई, तू होता कौन है, यह पूछने वाला. तेरी बला से मैं कहीं भी होऊं.’ पर आप को पता होगा, कितनी सुसंस्कार शालाओं में पढ़ालिखा कर अपने को सुसमृद्ध किया गया है. फिर अपुन अकेले तो भुक्तभोगी हैं नहीं. आप सब का साथ तो है ही.

बौस अपने सबआर्डिनेट से पूछता है, ‘कहां हो?’ औफिस से 3 किलोमीटर दूर विचरण या धूम्रपान कर रहा कर्मचारी अत्यंत विनीत मुद्रा में जवाब देता है, ‘सर, बस गेट पर ही हूं. तू डालडाल मैं पातपात.’ बौस कहता है, मैं भी गेट पर ही हूं पर तुम कहीं नहीं दिख रहे.’ ‘सर, मैं बैक गेट पर हूं, आप चलिए, बस, मैं अभी आया.’ बौस को लगता है या तो उस की दूर की नजरें कमजोर हो गई हैं या पास की नजरें भी धोखेबाज, तभी यह घड़ी तक खुराफाती लगने लगी है.

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