बुलडोजर इमारतों पर ही नहीं बल्कि लोगों की आजादी सहित कला और फिल्मों पर भी चल रहा है क्योंकि मौजूदा सरकार बुलडोजर को एक विचार की शक्ल में भी स्थापित कर चुकी है. इस बवंडर में वास्तविक मुद्दे दोयम दर्जे के और दोयम दर्जे के मुद्दे वास्तविक लगने लगते हैं. इमारतों वाले बुलडोजरों पर गुवाहटी हाईकोर्ट के फैसले ने सरकारों की मंशा पर पानी तो फेर दिया है लेकिन विध्वंसक विचारों वाला बुलडोजर बेकाबू है जैसे पुराणों में भस्म करने का श्राप देते थे वैसे ही बुलडोजर विध्वंस करने की सजा दे रहे हैं. ?
बुलडोजर अब उस दैत्याकार मशीन का नाम नहीं रह गया है जिस का जायजनाजायज ?ांपड़ों से ले कर बड़ीबड़ी इमारतों को ढहाने में इस्तेमाल किया जाता है बल्कि बुलडोजर अब एक सरकारी नीति बन गई है जो हर उस आवाज को कुचल देना चाहता है जो उस के मिशन में आड़े आती है. साल 2022 के आखिरी महीने में ऐसी कई घटनाएं हुईं जिन्होंने यह साबित कर दिया कि बुलडोजर संस्कृति अब विकराल विकृति की शक्ल ले चुकी है. अब जो भी सनातन या भगवा गैंग की मंशा व मनमानी पर असहमति या एतराज जताता है उस का अंजाम अच्छा तो कतई नहीं होता. दिसंबर के तीसरे हफ्ते में शाहरुख खान अभिनीत फिल्म ‘पठान’ का एक गाना क्या रिलीज हुआ, भगवा बुलडोजर विचार मंच के कर्ताधर्ताओं ने देश सिर पर उठा लिया. इस गाने में अभिनेत्री दीपिका पादुकोण भगवा रंग की बिकिनी पहने शाहरुख से लिपटी नजर आ रही हैं.
यह कहीं से भी किसी भी धर्म या संस्कृति का अपमान नहीं था लेकिन चूंकि भगवा सोच के अनुसार एक खूबसूरत और सैक्सी हिंदू ऐक्ट्रैस एक मुसलमान अभिनेता के गले लिपटी थी, इसलिए भगवा ठेकेदारों के सीनों पर सांप लोट गए. विरोध का सार यह था कि हिंदू या सनातन धर्म या संस्कृति, कुछ भी कह लें, पर एक मुसलमान ऐक्टर ने प्रहार किया है, इसलिए इसे बरदाश्त नहीं किया जाएगा. जिस के मुंह में जो आया वह उस ने बका. इस पर कोई सैंसरशिप नहीं थी. भोपाल से लोकसभा के लिए चुनी गईं सांसद व कट्टरवादी हिंदू साध्वी प्रज्ञा सिं?ह भारती तो शाहरुख खान जैसे अभिनेता के हाथमुंह तोड़ने की धमकी देती नजर आईं. यह बुलडोजर मानसिकता का एक अलोकतांत्रिक नमूनाभर था. अच्छा तो उन का यह न कहना रहा कि जिन सिनेमाघरों में ‘पठान’ फिल्म प्रदर्शित होगी उन पर भी बुलडोजर चलवा दिया जाएगा. आने वाले वक्त में आप को और हमें ऐसे बुलडोजरी वक्तव्यों को सुनने को तैयार रहना चाहिए. ऐसे दृश्य देखने की अपनेआप में हिम्मत पैदा कर लेनी चाहिए. ‘पठान’ के बेमतलब लेकिन प्रायोजित विरोध को ले कर जो दहशत फैलाई गई उस के अपने माने भी थे कि खामोश रहो, जुबान सिल लो, वरना तो देश छोड़ दो.
अगर इस देश में रहना है तो उस की कीमत बहुत मामूली है कि आप भी मुट्ठीभर सनातनी ठेकेदारों के सामने सिर ?ाका कर चलो नहीं तो किसी न किसी बुलडोजर से कुचल दिए जाओगे. लोकतांत्रिक तार्किक और वामपंथियों व दूसरी विचारधाराओं वाले दलों व चिंतकों को ईडी एजेंसी जैसे बुलडोजर ‘लगभग’ नेस्तनाबूद कर चुके हैं. ?ारखंड के स्टेन स्वामी जैसे फक्कड़ों, जिन के पास सिवा विचारों के कुछ नहीं था, को इसी हथियार से जेल में सड़ा कर मार दिया गया. बाकी जो अर्बन नक्सली बचे हैं वे भी कराह रहे हैं. लेकिन जो चलफिर रहे हैं, बख्शा उन्हें भी नहीं जा रहा. तवांग मसले पर जैसे ही राहुल गांधी ने राजस्थान से केंद्र सरकार को चीन की बदनीयती की बाबत आगाह कराया तो समूचा मंत्रिमंडल तिलमिला उठा मानो देश से जुड़े किसी मसले पर विपक्ष को कुछ बोलने का हक ही नहीं.
‘भारत जोड़ो’ यात्रा में लगे राहुल को तरहतरह से लताड़ा गया और तरहतरह से, हमेशा की तरह, उन का मजाक भी बनाया गया. राहुल गांधी न डर रहे और न ?ाक रहे तो यह उन की खूबी ही है. इन्हीं दिनों में उन्होंने एक भाषण में कहा भी कि वे आरएसएस या भाजपा से डरते नहीं हैं लेकिन उन से नफरत भी नहीं करते. जो डरते हैं वे जुल्म करते हैं और जिन के दिल में डर होता है वे मोहब्बत कर ही नहीं सकते. भगवा गैंग शाहरुख खान से भी डरता है और राहुल गांधी से भी और हर उस नेता व कलाकार से भी डरता है जो उन की हकीकत जानता है और कलई उधेड़ने का माद्दा रखता है. इसी डर के चलते उस ने हर मोरचे पर तरहतरह के छोटेबड़े बुलडोजर फिट कर रखे हैं जो हैडक्वार्टर से निर्देश मिलते ही धर्म और संस्कृति के नाम पर भोंपू की तरह चिल्लाने लगते हैं. अब तो इन की नजरें न्यायपालिका पर भी चस्पां हो गई हैं जिस की वजह से 15-20 फीसदी डैमोक्रेसी वजूद में बची लगती है. अब इसे जीरो पर लाने की कोशिशें शुरू हो गई हैं. निशाने पर न्यायपालिका भी न्यायपालिका की मुश्कें कसने के लिए सरकारी बुलडोजर की भूमिका कानून मंत्री किरण रिजिजू निभा रहे हैं लेकिन हर बार उन्हें मुंह की खानी पड़ रही है क्योंकि सामने कोई फिल्म अभिनेता या अभिनेत्री, विपक्ष का कोई नेता या कलाकार, लेखक, पत्रकार नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट है जिस पर सरकार का फिलहाल कोई जोर नहीं चल रहा.
कानून मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के कुछ जस्टिसों का विवाद भी पिछले साल के आखिरी 2 महीने कम सुर्खियों में नहीं रहा था जिस के तहत सरकार चाहती यह है कि न्यायपालिका भी उस के इशारों पर नाचे. लोकसभा द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री के हाथों में ही सब अधिकार हैं, यह सोच बुलडोजरी है क्योंकि कुछ अधिकार संविधान ने कार्यपालिका को दिए ही नहीं हैं पर आज सरकार उन अधिकारों को ढहा देना चाहती है. एक उदाहरण उस विवाद का उभर कर उस वक्त सामने आया था जब सरकार ने पंजाब कैडर के 1985 के बैच के आईएएस अधिकारी अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया था जिन्होंने नियुक्ति के 2 दिनों पहले ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली थी. जब इस हैरतंगेज और पूर्व नियोजित नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा चुनौती दी गई तो सब से बड़ी अदालत ने इस पूरी नियुक्ति प्रक्रिया का ब्योरा मांगा और कहा कि 24 घंटे से भी कम वक्त में यह फैसला कैसे ले लिया गया. देश को इस वक्त टी एन शेषन जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त की जरूरत है. जस्टिस अजय रस्तोगी, अनिरुद्ध बोस, ऋषिकेश राय और सी टी रवि कुमार की बैंच ने आगे कहा कि जमीनी स्थिति खतरनाक है. अब तक कई सीईसी रहे हैं मगर टी एन शेषन जैसा कोई नहीं रहा.
हम नहीं चाहते कि कोई उन्हें ध्वस्त करे, तीनो लोगों (सीईसी और दो चुनाव आयुक्तों) के नाजुक कंधों पर बड़ी शक्ति निहित है. हमें सीईसी की पोस्ट के लिए सब से अच्छा व्यक्ति खोजना होगा. वर्तमान में जो व्यवस्था है उस के तहत अगर केंद्र में कोई भी सत्ताधारी दल खुद को सत्ता में बनाए रखना चाहता है तो वह इस पद पर अपने यस मैन की नियुक्ति कर सकता है. इतना सुनना भर था कि किरण रिजिजू के तनबदन में आग लग गई क्योंकि इस टिप्पणी से आम लोगों में सरकार की मनमानी करने की मंशा का मैसेज गया था. लिहाजा, कानून मंत्री ने कोर्ट को ही विवादों में घसीट लिया. उन्होंने इस टिप्पणी पर पलटवार करते कहा, यह कैसा सवाल है, अगर ऐसा है तो आगे लोग यह भी पूछ सकते हैं कि कौलेजियम किस तरह जजों को चुनता है.
जजों को अपने फैसलों के जरिए बोलना चाहिए और इस तरह की टिप्पणी करने से बचना चाहिए. कौलेजियम यह नहीं कह सकता कि सरकार उस की तरफ से भेजे हर नाम को तुरंत मंजूरी दे. विवाद को हवा तब और मिली जब 28 नवंबर को जजों की नियुक्ति के मामले में कौलेजियम की तरफ से भेजे गए नामों में सरकार की तरफ से कोई फैसला नहीं लिया गया. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती दिखाते कहा कि सरकार ने फैसला नहीं लिया तो न्यायिक आदेश देना पड़ सकता है. कुछ नाम डेढ़ साल से भी ज्यादा वक्त से सरकार के पास हैं. इस तरह सिस्टम कैसे चल सकता है.
अच्छे वकीलों को जज बनने के लिए सहमत करना आसान नहीं होता लेकिन सरकार ने नियुक्ति इतनी कठिन बना रखी है कि देरी से परेशान लोग खुद अपना नाम वापस ले लेते हैं. सरकार अपनी मरजी से नाम चुन रही है, यह भी गलत है. और भी कई बातें हुईं लेकिन उन में भद्द सरकार और किरण रिजिजू की ही पिटी क्योंकि लोग कोर्ट को उन के मुकाबले सही मानते हैं. दरअसल सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच विवाद पहले भी होते रहे हैं लेकिन इस दफा बात कुछ ज्यादा ही बिगड़ी जिस में साबित यह हुआ कि सुप्रीम कोर्ट अभी तक बुलडोजरप्रूफ है क्योंकि वह कानूनी बारीकियों से बेहतर तरीके से वाकिफ है. लेकिन सम?ाने वाले ही सम?ा पाए कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के मई महीने में दिए उस फैसले पर खार खाए बैठी है जिस में कोर्ट ने बहुत तल्खी से साफ कर दिया था कि राजद्रोह नाम के कानून यानी इंडियन पीनल कोड की धारा 124 ए का इस्तेमाल न हो सकेगा, साथ ही यह भी कहा था कि जब तक पुनर्विचार होगा तब तक इस धारा के तहत कोई नया मामला दर्ज नहीं किया जा सकता.
एक तरह से सुप्रीम कोर्ट ने कुछ बुलडोजरों के पहियों को जंजीरों से जकड़ा है, जिस पर सरकार तिलमिला कर रह गई थी क्योंकि अब राजद्रोह कानून, जिसे वह बुलडोजर की तरह इस्तेमाल कर रही थी, के तहत विरोधियों को हर कभी हर कहीं जेल में नहीं डाल सकती थी. उस के बाद अब आया गुहावटी हाईकोर्ट का फैसला जिस ने तो बुलडोजर संस्कृति और विचारों को ही कटघरे में खड़ा कर दिया. यह कहा गुवाहटी हाईकोर्ट ने कानून और व्यवस्था दोनों के अलगअलग ध्येय हैं. संविधान ने कोर्ट और पुलिस को 2 अलगअलग जिम्मेदारियां दी हैं. अगर पुलिस खुद ही फैसला करने लगेगी तो यह ठीक नहीं होगा. अपराध रोकने के लिए बुलडोजर जैसी नीतियां 18वीं और 17वीं सदी में सही मानी जा सकती थीं. 21वीं सदी में इस की बात करना उचित नहीं है. बड़ी मुश्किल से देश के अंदर रूल औफ लौ यानी कानून का राज स्थापित हो पाया है. पिछले 75 वर्षों से यह चलता भी रहा है.
इसे और बेहतर बनाया जाना है. इसे तोड़ा नहीं जा सकता. गुवाहाटी हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस आर एम छाया ने असम के नगांव जिले में आगजनी की घटना के आरोपी के मकान को गिराए जाने के संबंध में सुनवाई के दौरान जोर दे कर कहा, ‘भले ही कोई एजेंसी किसी बेहद गंभीर मामले की ही जांच क्यों न कर रही हो, किसी के मकान पर बुलडोजर चलाने का प्रावधान किसी भी आपराधिक कानून में नहीं है. हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं. मकानों पर इस तरह से बुलडोजर चलाने की घटनाएं फिल्मों में होती हैं और उन में भी इस से पहले तलाशी वारंट दिखाया जाता है.’ गुवाहाटी के मछली व्यापारी शफीकुल इसलाम की कथित रूप से पुलिस हिरासत में मौत के बाद भीड़ ने बीती 21 मई को बटाद्रवा थाने में आग लगा दी थी. इसलाम को एक रात पहले ही पुलिस ले कर गई थी.
उस के एक दिन बाद जिला प्राधिकारियों ने इसलाम सहित कम से कम 6 लोगों के मकानों को उन के नीचे कथित तौर पर छिपाए गए हथियारों और नशीले पदार्थों की तलाशी के लिए ध्वस्त कर दिया था. इस के लिए बुलडोजर का इस्तेमाल किया गया था. कोर्ट ने कहा कि, ‘किसी के घर की तलाशी लेने के लिए भी अनुमति की आवश्यकता है. भले ही तलाशी लेने वाला वह एक एसपी हो और यहां तक कि उच्चअधिकारी को कानून के दायरे से गुजरने की जरूरत है. केवल इसलिए कि वे पुलिस विभाग के प्रमुख हैं, वे किसी का घर नहीं तोड़ सकते. अगर इस तरह की कार्रवाई की अनुमति दी जाती है तो इस देश में कोई भी सुरक्षित नहीं है.’ यही नहीं, कोर्ट ने बेहद तल्ख लहजे में यह भी कहा, ‘कल अगर आप को कुछ चाहिए होगा तो आप मेरे अदालत कक्ष को ही खोद देंगे. आखिरकार देश में एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है.’ पीठ ने जानना चाहा कि क्या कार्रवाई के लिए कोई पूर्वअनुमति मांगी गई थी?
जिस पर राज्य के वकील ने जवाब दिया कि यह घरों की तलाशी के लिए है. न्यायमूर्ति छाया ने आश्चर्य व्यक्त किया और कहा, ‘‘यह (कार्रवाई) अनसुनी है कम से कम मेरे अब तक के कैरियर में. मैं ने किसी पुलिस अधिकारी को तलाशी वारंट के रूप में बुलडोजर चलाते हुए नहीं देखा है.’ न्यायमूर्ति छाया ने कहा, ‘यहां तक कि अगर एक एजेंसी द्वारा एक बहुत ही गंभीर मामले की जांच की जा रही है तो भी किसी भी आपराधिक कानून के तहत घर पर बुलडोजर चलाने का प्रावधान नहीं है.’ कोर्ट ने राज्य सरकार से पूछा है कि किस कानून के तहत ऐसी बुलडोजर कार्रवाई की गई? गुवाहाटी होईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आर एम छाया और न्यायमूर्ति सौमित्र साइकिया ने पुलिस अधीक्षक की ओर से 5 आरोपियों के मकानों पर की गई बुलडोजर कार्रवाई को ले कर राज्य सरकार से जवाब मांगा है. जिन आरोपियों के मकानों पर बुलडोजर चला, उन पर एक पुलिस थाने में आग लगाने का आरोप है.
राज्य सरकार के वकील ने एसपी की ओर से कार्रवाई को ले कर एक रिपोर्ट कोर्ट में सौंपी. इस पर कोर्ट ने सरकार के वकील से कहा, ‘आप हमें कोई आपराधिक कानून दिखाएं जिस के तहत अपराध की जांच करते हुए बिना किसी आदेश के पुलिस बुलडोजर से किसी व्यक्ति के घर को उखाड़ सकती है.’ इस पर सरकार के वकील ने स्पष्ट करने का प्रयास किया कि यह कार्रवाई किसी व्यक्ति को उखाड़ने के लिए नहीं थी. यूपी समेत देश के कई राज्यों में अपराधियों के घरों पर बुलडोजर चलाए जाने की कार्रवाई के बीच गुवाहाटी हाईकोर्ट ने यह अहम टिप्पणी की है. हाईकोर्ट ने जोर दे कर कहा कि किसी भी आपराधिक कानून के तहत मकानों पर बुलडोजर चलाने का प्रावधान नहीं है. भले ही कोई जांच एजेंसी किसी भी बेहद गंभीर मामले की जांच कर रही हो. गुवाहाटी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आर एम छाया ने असम के नगांव जिले में आगजनी के एक मामले में आरोपी का घर गिराए जाने के इस मामले का स्वत: संज्ञान लिया था. जस्टिस छाया ने सवाल किया कि कानून और व्यवस्था शब्दों का एकसाथ उपयोग क्यों किया जाता है? बुलडोजर चलाना कानून और व्यवस्था को नियंत्रित करने का तरीका नहीं है. उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ यह रोग विरोधियों पर बुलडोजर का प्रयोग उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ. यह पहली बार चर्चा में तब आया जब ‘कानपुर का बिकरूकांड’ हुआ.
अपराधी विकास दुबे के साथ मुठभेड़ में आधा दर्जन पुलिस वालों की हत्या होती है. बदले की कार्रवाई में पुलिस ने बुलडोजर से विकास दुबे का पूरा घर गिरा दिया. इस के बाद मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद जैसे तमाम अपराधियों पर यह बुलडोजर चला. एक के बाद एक घरों पर बुलडोजर चलने लगा. सीएए और एनआरसी का विरोध करने वालों के खिलाफ भी यह कदम उठाया गया. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का नाम ही ‘बुलडोजर बाबा’ पड़ गया. 2022 के विधानसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के इतिहास में पहले ऐसे मुख्यमंत्री बन कर उभरे जो लगातर दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे. इस जीत का श्रेय उन की कड़क कानून व्यवस्था को दिया गया. इस में बुलडोजर ब्रैंड बन कर उभरा. तमाम चुनावी रैलियों में बुलडोजर को भी ला कर रखा जाने लगा था. धीरेधीरे उत्तर प्रदेश से चला बुलडोजर देश के दूसरे राज्यों में भी असर करने लगा.
मध्य प्रदेश, दिल्ली और गुजरात जैसे तमाम राज्यों से होता यह बुलडोजर असम तक पहुंच गया. जहां गुवाहाटी होईकोर्ट को इस की लगाम खींचनी पड़ी. अगर यह सम?ों कि बुलडोजर संस्कृति क्यों बढ़ती जा रही है तो पता चलता कि यह नेताओं की छवि गढ़ने के लिए प्रयोग की जा रही है. विरोधी भले ही इसे गलत मान रहे हों लेकिन जनता का एक वर्ग इस को सही मानती हुई नेता की छवि को मजबूत सम?ाता है. सोशल मीडिया के जमाने में इस भ्रम को बड़ी आसानी से गढ़ा जाता है कि बुलडोजर अपराधों को कम करता है. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावप्रचार को देखें तो पता चलता है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 2022 के विधानसभा चुनाव में अपनी 58 रैलियों में बुलडोजर शब्द का इस्तेमाल किया. पार्टी ने इन सभी सीटों पर जीत दर्ज की. उत्तर प्रदेश में योगी को ‘बुलडोजर बाबा’ के बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को ‘बुलडोजर मामा’ का नाम दिया गया. उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने भी उठाए सवाल उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में दोमंजिले घर में जावेद मोहम्मद अपनी पत्नी और 2 बेटियों के साथ रहते थे.
सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन की वजह से प्रदेश सरकार ने उन के घर पर बुलडोजर चला दिया. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों और वरिष्ठ वकीलों ने योगी सरकार के इस कदम पर सवाल उठाते हुए सर्वोच्च अदालत से मामले पर स्वत: संज्ञान लेने की अपील की है. मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने ट्वीट कर के लिखा है कि- अपराधियों/माफियाओं के विरुद्ध बुलडोजर की कार्रवाई सतत जारी रहेगी. किसी गरीब के घर पर गलती से भी कोई कार्रवाई नहीं होगी. यदि किसी गरीब, असहाय व्यक्ति ने कतिपय कारणों से अनुपयुक्त स्थान पर आवास निर्माण करा लिया है तो पहले स्थानीय प्रशासन द्वारा उस का समुचित व्यवस्थापन किया जाएगा.’ लेकिन योगी आदित्यनाथ यह नहीं बता पाए कि ऐसा हो ही क्यों और इस दौरान जो सजा गरीब, असहाय आदमी की औरतें भुगतेंगी, सरकार उस की भरपाई कैसे करेगी. उन की मानसिक यंत्रणा का तो कोई मोल हो ही नहीं सकता . ऐसे में सवाल उठता है कि बुलडोजर से घर ढहाए जाने की कार्रवाई कानूनी है या गैरकानूनी? अपराधियों के खिलाफ त्वरित कार्रवाई के नाम पर उत्तर प्रदेश के बाद मध्य प्रदेश में भी बुलडोजर का इस्तेमाल शुरू हो गया. 4 बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बन चुके शिवराज सिंह चौहान ने कहा, ‘गुंडे, बदमाश, और दबंग को छोड़ने वाला नहीं हूं. चकनाचूर कर के मिट्टी में मिला कर रहेंगे हम और बेटी की तरफ अगर गलत नजर उठी तो जमींदोज कर दिए जाएंगे, मकानों का पता नहीं चलेगा, दुकानों का पता नहीं चलेगा. ऐसे बदमाशों पर बुलडोजर चलेगा.’ दूसरे नेताओं को लगने लगा कि इस तरह से वे भी योगी की तरह से सफल हो जाएंगे.
लेकिन फिलौसफी से एमए करने वाले शिवराज सिंह भी न सोच पाए और न बता पाए कि गुंडेबदमाशों की गलती की सजा उन के बीवीबच्चों को देना कहां का इंसाफ है जिन्हें बुलडोजर चलने के बाद अपने उजड़े आशियाने के अवशेष भी नहीं बीनने दिए जाते और वजह कोई भी हो, किसी भी जायदाद को नष्ट करना कौन से अर्थशास्त्र के किस अध्याय में लिखा है. मध्य प्रदेश सरकार के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र ने खुल्लमखुल्ला कहा कि जिन घरों से पत्थर आए हैं उन घरों को पत्थर का ढेर बनाएंगे. इस बयान के बाद खरगौन जिले में प्रशासन ने कई लोगों के घर गिरा दिए. सरल शब्दों में उस का मतलब यह है कि किसी व्यक्ति द्वारा किए गए किसी अपराध की सजा के रूप में उस का घर गिराया जा सकता है. चाहे अदालत का फैसला आना बाकी क्यों न हो. भारत का कानून ऐसे कदम उठाने की इजाजत कतई नहीं देता है? गुवाहाटी होईकोर्ट की टिप्पणी इस मसले पर बेहद खास है.
धर्म देता है इजाजत कानून ऐसे कदम उठाने की इजाजत दे न दे लेकिन पौराणिक ग्रंथों में इफरात से ऐसे किस्से भरे पड़े हैं जिन में विध्वंस महज प्रतिशोध की भावना और इरादे से किया गया. ताकत व्यक्तिगत हो या अर्जित की गई, उस का बेजा इस्तेमाल त्रेता और द्वापर युग में भी किया गया है. चूंकि तब बुलडोजर नहीं थे, इसलिए ऋषिमुनि और देवीदेवता श्राप नाम के बुलडोजर से काम चला लेते थे. उन्हें जो ‘दिव्य शक्तियां’ मिली होती थीं वे भी किसी बुलडोजर से कम विध्वंसक नहीं थीं. हनुमान जब सीता को खोजने लंका गए तो अशोक वाटिका को उन्होंने तहसनहस कर रावण को अपनी ताकत का एहसास कराया था. हालांकि इस बुलडोजर प्रवृत्ति का इस्तेमाल राक्षस भी इफरात से करते थे, वे जंगलों में तपस्या और यज्ञ, हवन करने वाले ऋषिमुनियों के आश्रम उजाड़ देते थे, जिस से आएदिन ?ाड़पें होती रहती थीं. राम से इन ऋषिमुनियों ने याचना की तो उन्होंने राक्षसों का समूल नाश कर दिया. श्राप शक्ति की तो महिमा ही अपरंपार थी. वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में दुर्वासा ऋषि जब राम से मिलने पहुंचते हैं तो लक्ष्मण उन्हें रोकते हैं क्योंकि ऐसा आदेश उन्हें राम से ही मिला था. दुर्वासा बातबात में श्राप देने के लिए कुख्यात थे.
वे लक्ष्मण सहित भरत और रघुकुल की अगली पीढ़ी को भी श्राप देने को उतारू हो गए तो लक्ष्मण को लगा कि इस श्रापरूपी बुलडोजर से ज्यादा नुकसान हो, इस से तो अच्छा है कि मैं राम को दुर्वासा के आने की खबर कर दूं जोकि उन्होंने की. इस के बाद जो हुआ वह हर कोई जानता है. महाभारत काल में पांडवों के अज्ञातवास के दौरान लाक्षागृह में लगी आग का उदाहरण भी बुलडोजर सरीखा ही है जिस का मकसद पांडवों को खदेड़ कर बाहर निकालना था. जब असली मशीनी बुलडोजर बन गए तो हिंदी फिल्मकारों ने हकीकत दिखाना शुरू की कि कैसे अमीर लोग गरीबों की बस्तियां बुलडोजर से उजाड़ते हैं और ऐन वक्त पर हीरो आ कर उन्हें बचा लेता है. जब डायरैक्टर को लगा कि हीरो और विलेन के गुर्गों के बीच मारधाड़ कहानी से मेल नहीं खा रही है तो उस ने हीरो के हाथ में कोर्ट का स्टे और्डर थमाना शुरू कर दिया. सुभाष घई निर्देशित फिल्म ‘मेरी जंग’ में जैसे ही खलनायक के गुर्गे गरीब बस्ती को तहसनहस करने के लिए बुलडोजर ले कर पहुंचते हैं तो हीरो फट से कोट की जेब से स्टे और्डर निकाल कर डायलौग बोलने लगता है. यह फिल्मी बात है, नहीं तो अभी तक जिन लोगों के घरों पर बुलडोजर चले हैं उन्हें अदालत तक पहुंचने का वक्त ही नहीं दिया गया.
ऐसी तोड़फोड़ अकसर अलसुबह की जाती है जिस से कि पीडि़त कुछ सोचसम?ा ही न पाए. बेचारा यह सच भी नहीं बोल पाता कि मैं ने तो महज 4 फुट पर नाजायज निर्माण किया था, आप के बुलडोजर ने तो जायज हिस्सा भी गिरा दिया. यही पौराणिक काल से ले कर अभी तक के बुलडोजरों की खूबी है कि वे सोचने या कुछ करने की भी मोहलत नहीं देते जबकि कानून कहता है कि उन्हें मौका मिलना चाहिए. बदले की भावना से किए जा रहे फैसले विरोधियों का आरोप है कि इस तरह घर गिराए जाने जैसे कदम गैरकानूनी और बदले की भावना से उठाए जा रहे हैं. कानून के जानकार भी मानते हैं कि मौजूदा कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि किसी संदिग्ध के घर पर बुलडोजर चलाया जाए. सरकार यह कहती है कि बुलडोजर नगर निगम से जुड़े कानून के उल्लंघन के लिए चलाया गया है.
यहां यह गौर करना चाहिए कि नगर पालिकाओं के अपराधों के मामलों में कोई अधिकार नहीं होते. नगर पालिका अगर सभी अतिक्रमण करने वालों के मकान गिरा रही है तो वह उस का हक माना जा सकता है पर वह केवल अपराधी माने गए व्यक्ति का घर नहीं गिरा सकती. नगर निगम को नोटिस और नोटिस के बाद सुनवाई का मौका देना चाहिए. यहां जो कुछ हो रहा है, वह नगर निगम के कानून के उल्लंघन की वजह से नहीं हो रहा है. यह किसी व्यक्ति का केंद्र या राज्य सरकार की राजनीतिक नीति के खिलाफ प्रोटैस्ट या अन्य किसी घटना में शामिल होने के संदेह होने पर की गई बदले की कार्रवाई है. यह सरासर गैरकानूनी है. यही नहीं, इंडियन पीनल कोड में भी कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है कि किसी व्यक्ति को दोषी पाए जाने पर उस का घर गिरा दिया जाए.
कानून में सिर्फ इतना प्रावधान है कि दोषी ठहराए गए व्यक्ति पर जुर्माना लगाया जा सकता है जिस के लिए बाद में पीडि़त पक्ष को समय दिया जा सकता है. अगर वह समय पर जुर्माना नहीं दे पाता तो घर को नीलाम करने का कदम उठाया जाता है. लेकिन आज तक कोई ऐसा कानून नहीं बना है जिस के आधार पर अगर कोई व्यक्ति दोषी पाया जाता है तो उस का घर गिराया जाए. यहां तो दोषी पाए जाने से पहले ही घर बुलडोजर से गिराए जा रहे हैं. अपराध रोकने के नाम पर कानून का उल्लंघन नहीं किया जा सकता. इस तरह की बुलडोजर गलतियां अगर सरकार करती रही तो जनता में हाहाकार मच सकता है जिस के बाद मसले को हल करना कठिन हो जाएगा. लोकतंत्र में जनता का विद्रोह आमतौर पर वोट के जरिए प्रकट होता है. लेकिन जनता आमतौर पर ही बारीक और खुद के हितों से जुड़े मुद्दों पर वोट नहीं डालती और बाद में हाथ मलती रह जाती है. इधर कट्टर सरकारें अपनी कमजोरियां ढकने के लिए भगवा बिकिनी जैसे गैरजरूरी व बेकार के विवाद को ही मुद्दा बना दें तो यह सब तो होता रहेगा यानी बुलडोजर मकानों और दुकानों सहित व्यक्तिगत स्वतंत्रता व विचारों को भी रौंदता रहेगा ठीक वैसे ही जैसे नोटबंदी ने आम लोगों और जीएसटी जैसे बुलडोजरी फैसलों ने कारोबारियों को रौंदा था.