सांप्रदायिक दंगों से दागदार होते देश के दामन में मुजफ्फरनगर के दंगों ने एक और दाग लगा दिया है. इस दौरान राज्य सरकार के ढीले रवैए के कारण स्थानीय प्रशासन भी निरंकुश सा दिखा. लिहाजा, दो गुटों के बीच शुरू हुए मामूली विवाद की चिंगारी सांप्रदायिक दंगों के शोले में तबदील हो गई. उस पर भी अब सियासी दल वोट की मारामारी में जुटे हैं. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में वक्त के मरहम से दंगों के ये घाव भले ही भर जाएं लेकिन हिंदू और मुसलिम समुदायों के बीच संदेह, अविश्वास की जो गहरी खाई पैदा हुई है उसे भरने में काफी वक्त लगेगा. पढि़ए शैलेंद्र सिंह की रिपोर्ट.

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के कवाल गांव में 27 अगस्त को प्रिया (बदला नाम) नामक लड़की से छेड़छाड़ के बाद दंगा भड़क गया. छेड़छाड़ की छोटी सी घटना को ले कर शाहनवाज की हत्या कर भाग रहे सचिन और गौरव को भी मार डाला गया. सदियों से एकदूसरे के साथ रहते आए 2 मजहबों के लोगों में एकदूसरे की जान लेने की होड़ लग गई. लोग गांव छोड़ कर भागने लगे. घटना के 12 दिन बाद भी गांव में सन्नाटा पसरा था. गांव के बाहर पुलिस के जवान रखवाली कर रहे थे. 

अलमासपुर, कुटबा, लिसाढ़, लांक, बहावड़ी, जौली, खालापार और नंगला मंदौड़ आदि गांवों का भी यही हाल था. 7 सितंबर की शाम मुजफ्फरनगर शहर में दंगा भड़कने के बाद रात गुजरतेगुजरते दंगों की आग गांव तक पहुंच गई. बस्तियां जलने लगीं. दंगों में मारे गए ज्यादातर लोग गांव के ही थे. दूसरे दिन सेना के आने के बाद शहर में रहने वाले लोगों को कुछ राहत महसूस होने लगी थी पर गांव के लोग शाम होते ही घरों में छिपते जा रहे थे. अलमासपुर के रहने वाले शफीक भाई कहते हैं, ‘‘7 सितंबर की सुबह तो बहुत अच्छी थी पर शाम ढलतेढलते गोलियों की आवाजों से पूरा इलाका दहल गया. डर के मारे सब अपनेअपने घरों में दुबक गए थे. ऐसा लग रहा था कि हम अपने गांव में नहीं, किसी दुश्मन के बीच फंस गए हों.’’

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