राजस्थान के आदिवासी इलाकों में आज भी एक प्रथा है ‘मौताणा’, जिस ने अब तक हजारों परिवारों को तबाह कर दिया है. राजस्थान की अरावली पहाडि़यों से सटे उदयपुर, बांसवाड़ा, सिरोही व पाली के आदिवासी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों में इस प्रथा का सब से ज्यादा चलन है. इस प्रथा की शुरुआत तो सामाजिक इंसाफ के मकसद से हुई थी, जिस में अगर किसी ने किसी शख्स की हत्या कर दी, तो कुसूरवार को सजा के तौर पर हर्जाना देना पड़ता था, लेकिन अब दूसरी वजहों से हुई मौतों पर भी आदिवासी ‘मौताणा’ मांग लेते हैं. पिछले कुछ सालों में देखा गया है कि किसी भी वजह से हुई अपनों की मौत का कुसूर दूसरों पर मढ़ कर जबरन ‘मौताणा’ वसूल किया जाने लगा है. दरअसल, जब मरने वाले का परिवार किसी को कुसूरवार मान कर उसे ‘मौताणा’ चुकाने के लिए मजबूर करता है, तो आदिवासियों की अपनी अदालत लगती है. वहां पंच कुसूरवार को सफाई का मौका दिए बिना ही ‘मौताणा’ चुकाने का फरमान जारी कर देते हैं. भुखमरी की मार झेल रहे आदिवासी परिवारों को लाखों रुपए का ‘मौताणा’ चुकाना पड़ता है, जिस से वे बरबाद हो जाते हैं.

‘मौताणा’ नहीं चुकाने पर मृतक का परिवार कुसूरवार परिवार के सदस्य की जान तक ले सकता है. रकम नहीं चुकाने पर यह रिवाज हिंसक रूप ले लेता है. चूंकि ‘मौताणा’ की रकम काफी ज्यादा होती है, इसलिए कभीकभार सारी जमीनजायदाद दांव पर लगानी पड़ जाती है. ऐसे में कई परिवार या तो डर कर घर छोड़ देते हैं या फिर बरबाद हो जाते हैं. उदयपुर के गल्दर इलाके में मोटरसाइकिल से हादसा हुआ, तो उसे बिठाने वाले को 80 हजार रुपए देने पड़े. कुएं में लाश मिली, तो मालिक ने ‘मौताणा’ मांगा. नवंबर, 2016 में ढेडमारिया के भैरूलाल डामोर की बीमारी से मौत हुई. चचेरे भाई से ‘मौताणा’ लेने के लिए लाश को 35 दिनों तक घर पर ही रखा गया. परिवार वाले ‘मौताणा’ ले कर ही माने.

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