धर्म को ले कर समाज की सोच बदल रही है. धर्म की अंधभक्ति अब खत्म होने के कगार पर है. अब लोग धर्म को ले कर पहले से कहीं ज्यादा लचीली सोच रखने लगे हैं. धर्म को ले कर किया जाने वाला पहले जैसा पाखंड अब कम हो रहा है. धर्म का विरोध भले ही लोग न कर रहे हों पर उस की कट्टरता के समर्थकों में तेजी से कमी आ रही है. यही वजह है कि धार्मिक तीजत्योहार ही नहीं धर्म पर आधारित बनने वाले टीवी सीरियलों में भी कट्टरवादी धर्म की जगह धर्म के सामाजिक पहलू को दिखाने की कोशिश शुरू हो रही है. जिस तरह से समाज में महिलाओं के मुद्दों पर सोच बदली है उस हिसाब से धार्मिक सीरियल भी अब धर्म की चाश्नी में डूबी सामाजिकता परोस रहे हैं. सामाजिकता के साथ ही साथ इन पर फैशन और ग्लैमर का रंग भी चढ़ाया जा रहा है. पहले वाले सीरियलों की तरह पहनावा और रंगढंग इन में नहीं दिख रहा है. इस के बावजूद ये सीरियल अभी भी धार्मिक प्रचार का ही सहारा ले रहे हैं.
सामाजिक मुद्दों को प्राथमिकता
धार्मिक सीरियलों में ‘रामायण’ पर अब तक सब से ज्यादा सीरियल बने हैं. हर सीरियल को देख कर यह लगता है कि अब इस में नया कुछ दिखाने को नहीं रह गया है. स्टार प्लस पर दिखाए जा रहे ‘रामायण’ पर आधारित सीरियल ‘सिया के राम’ में सीता और रामायण में उपेक्षित पड़ी महिला किरदारोें की आड़ में महिलाओं से जुड़े सामाजिक मुद्दों को उठाया जा रहा है ताकि धार्मिक सीरियल को नई पहचान के साथ पेश किया जा सके.
दरअसल, जिस तरह से लगातार धार्मिक सीरियल बन रहे थे उन से ये सीरियल दर्शकों को खो चुके थे. धार्मिक सीरियलों से दर्शकों को फिर से जोड़ने के लिए उन्हें सामाजिकता और फैशन के रंग में रंगा जा रहा है. सीरियल ‘सिया के राम’ में सीता तमाम तरह के ऐसे सवाल करती है, जो पहले के ‘रामायण’ पर आधारित किसी सीरियल में नहीं दिखाए गए थे.
आमतौर पर ऐसे धार्मिक सीरियलों की शूटिंग स्टूडियो में ही अब तक होती रही है. ‘सिया के राम’ की शूटिंग हैदराबाद के रामोजी फिल्म सिटी में की गई, जिस से दर्शकों को सचाई का यकीन हो सके. अयोध्या और मिथिला नाम से 2 अलगअलग शूटिंग लोकेशन बनाई गईं. इस सीरियल में एक तरफ यह कहा जा रहा है कि उस समय की सामाजिकता को दिखाया जा रहा है, तो दूसरी तरफ इस का प्रचार करने के लिए अभी भी ‘धनुष यात्रा’ जैसे आयोजन किए जा रहे हैं. इस ‘धनुष यात्रा’ का मकसद केवल सीरियल का प्रचार करना मात्र है. देश के कई बड़े शहरों में इस का आयोजन किया गया. सीरियल के कलाकारों को इस यात्रा के प्रचार का काम सौंपा गया. शूटिंग करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि सीरियल में धर्म और धार्मिकचिह्नों को प्रमुखता से दिखाया जा सके ताकि लोग धर्म के नए स्वरूप में उलझे रहें. सीरियल को फिल्मों की भव्यता दे कर दर्शकों को चकाचौंध में फंसाने का पूरा प्रबंध किया गया है.
फैशन का रंग
‘सिया के राम’ में सीता के लुक को खास अंदाज में पेश किया गया तो उन के साथ दूसरे महिला किरदार जैसे सुनैना का किरदार निभाने वाली भार्गवा चिरमुले, कौशल्या का किरदार निभाने वानी स्निग्धा अकोल्कर, सुमित्रा बनी संपदा वाजे और कैकेयी का रोल निभाने वाली ग्रूशा कपूर ही नहीं गार्गी का किरदार निभाने वाली रिचा सोनी की ड्रैस को भी आधुनिक ग्लैमरस लुक दिया गया है. मुकुट लगाए, तीर से फुलझड़ी सी छोड़ते चमत्कार दिखाने वाले दृश्यों की जगह हकीकत वाले दृश्य दिखाए हैं. ऐसा बदलाव धार्मिक सीरियलों को दर्शकों से जोड़ने के लिए किया जा रहा है. इस कारण ऐसे सवालों के दृश्यों को प्रमुखता के साथ दिखाया जा रहा है. अब ऐसे धार्मिक सीरियलों पर सामाजिकता ही नहीं फैशन का भी रंग चढ़ाया जा रहा है.
धार्मिक कहानियों के उतरते रंग
धार्मिक सीरियलों में जिस तरह की कहानियां अब तक पेश की जाती रही हैं, उन्हें ले कर अब समाज में जागरूकता आ गई है. ऐसी कहानियों को दर्शक सहज भाव से स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. सब से अधिक परेशानी महिला मुद्दों को ले कर आ रही है. धर्म में महिलाओं से जुड़े मुद्दों को अब तक उपेक्षित रूप में दिखाया जाता रहा है. आज के दर्शकों को तर्क सहज नहीं लगते और वे कहानी से अपने को जोड़ नहीं पाते हैं. ऐसे में धार्मिक सीरियलों की टीआरपी फीकी रहती है. धार्मिक सीरियलों के उतरते रंग के चलते इन में सामाजिकता और फैशन के रंग को जोड़ा गया है. अब सीरियलों में धार्मिक कहानियों को दिखाया तो जाता है पर उन के कट्टर रूप को ढकने का काम शुरू हो गया है.
अब यह कहा जा सकता है कि धार्मिक सीरियल नाममात्र के धार्मिक हैं. इन का स्वरूप बदल चुका है. हमारे समाज में धर्म की आलोचना खुल कर करना मुसीबत का सबब बन जाता है. इस वजह से सीरियलों में धर्म पर सवाल न उठाते हुए उन मुद्दों को हवा दी जा रही है, जिन्हें पहले दरकिनार किया जाता था. ऐंड टीवी कर दिखाए जा रहे ‘संतोषी मां’ नामक सीरियल में संतोषी मां से अधिक संतोषी नामक साधारण लड़की की कहानी को दिखाया जा रहा है. संतोषी का किरदार निभा रही रतन राजपूत कहती हैं कि इस सीरियल में समाज की बातों को ज्यादा प्रमुखता दी गई है.
टीवी मनोरंजन पर लगातार लिखने वाले रजनीश राज कहते हैं कि नई पीढ़ी धर्म की कट्टरता को स्वीकार नहीं कर पा रही है. ऐसे में इन कहानियों को सामाजिकता की चाश्नी में डाल कर पेश किया जा रहा है. इन्हें इस तरह दिखाया जा रहा है जिस से ये युवाओं की समझ में आसानी से आ सकें. यह भी माना जा सकता है कि धार्मिक सीरियलों को छोटे परदे पर पेश करने की यह नई शैली है. इन कहानियों को आज की परेशानियों और रहनसहन को सामने रख कर पेश किया जा रहा है. धार्मिक सीरियलों की कथावस्तु के जरीए अभी भी पाखंड, पूजापाठ और भाग्यवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है. आज के लोगों को यह दिखाया जा रहा है कि ऋषियों के श्राप देने से बहुत कुछ हो जाता था. देवीदेवताओं को खुश रखने के लिए व्रत करने चाहिए. ‘संतोषी मां’ सीरियल में एक तरफ संतोषी का किरदार है, तो दूसरी तरफ ईर्ष्या की देवी पलौमी का किरदार भी दिखाया जा रहा है. ऐसे में धर्म के कट्टरपन को बढ़ावा देने के लिए धार्मिक डर को लोगों के दिलों में बैठाया जा रहा है. दिखावे के लिए धार्मिक सीरियल सामाजिकता और नएपन की बात कर रहे हैं. सीरियल तभी सामाजिकता की बात कर सकता है जब यह धर्म के पाखंड को पूरी तरह से त्याग दे.
नई शैली का आडंबर
धार्मिक सीरियलों में पहले बहुत ही कठिन हिंदी का प्रयोग किया जाता था. अब धार्मिक सीरियलों में हिंदी के सरल रूप को पेश करने की शुरुआत की गई है. संवाद लेखकों ने इस काम को कुछ इस तरह से किया है कि हिंदी के शब्द सामान्य शब्दों से अलग हों पर पहले जैसे कठिन हिंदी के न हों. गैरहिंदी भाषी कलाकारों से भी हिंदी के ऐसे शब्दों को सुन कर दर्शकों को एक अलग अनुभूति हो रही है. सुनैना का किरदार निभा रही भार्गवा चिरमुले कहती हैं, ‘‘शुद्ध हिंदी शब्दों के प्रयोग पहले जैसे कठिन नहीं हैं. हम गैरहिंदी भाषी कलाकारों को भी ऐसे डायलौग बोलते समय अच्छा अनुभव हुआ. ऐसे डायलौग इतने सरल ढंग से पेश किए जा रहे हैं, जिन्हें बोलना ही नहीं सुनना भी बहुत अच्छा लगता है.’’
धार्मिक सीरियल अपनी शैली और नए रंग में धार्मिक कट्टरता का त्याग करते तो नजर आ रहे हैं पर अभी भी वे धर्म के आडंबर पर सवाल उठाने से कतरा रहे हैं. जब तक धार्मिक कहानियों में दिखाई गई महिला और उपेक्षित समाज के सच को स्वीकार कर नहीं दिखाया जाएगा, इन कहानियों पर समाज की बात कहने की बात को स्वीकारा नहीं जा सकता है. धार्मिक सीरियलों की नई शैली में केवल कहने भर से समाज का भला नहीं होने वाला. जरूरत इस बात की है कि इन कहानियों के जरीए धर्म के पाखंड और आडंबर पर सवाल खड़े किए जाएं ताकि समाज को सचाई का एहसास हो सके. बिना इस के ऐसे बदलाव को सार्थक नहीं कहा जा सकता.