हिंदू ग्रंथों के अनुसार ब्राह्मण की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय की भुजाओं से, वैश्य की पेट से और शूद्रों की उत्पत्ति ब्रह्मा के पैरों से हुईर् है. इसलिए शूद्र तिरस्कृत हैं. हजारों साल पुराने कथित ग्रंथ देश में जातिवादी व सामंती हिंदी व्यवस्था की स्थापना के आधार हैं. ब्राह्मणवाद को उच्च जाति का बता कर अपवित्रता व अछूत जैसी अवधारणाओं को ढाल बना कर दलित, शूद्र या आदिवासी समाज को शोषित करती वह मानसिकता हिंदुत्व विचारधारा वाली राजनीतिक पार्टियों में आज भी जिंदा है. कैसे? आइए समझते हैं–

हर साल की तरह इस साल भी केरल में बड़ी धूमधाम से ओणम का त्योहार मनाया गया. कहा जाता है कि यह त्योहार महाबली के आगमन व स्वागत के लिए मनाया जाता है. महाबली के राज्य में आने के अलावा यह मध्य व दक्षिण केरल में वर्षा ऋतु की समाप्ति व नए वर्ष की शुरुआत पर फसल काटने के महोत्सव के तौर पर भी मनाया जाता है. धार्मिक व ऐतिहासिक संदर्भों में ओणम की शुरुआत केरल में बौद्घकाल के अंत व हिंदू ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था व वर्णाश्रम धर्म के संस्थागत स्वरूप को ग्रहण करने के साथ हुई.

इस त्योहार के संदर्भ में आरएसएस की मलयालम पत्रिका ‘केसरी’ ने विशेषांक निकाला. इस में प्रकाशित लेख के मुताबिक, यह त्योहार वामन से जुड़ा है, जिन्हें ब्राह्मण विष्णु का अवतार मानते हैं, इसलिए इसे वामन के जन्मदिन के तौर पर मनाना चाहिए. लेख में राजा महाबली की मान्यताओं को हिंदुत्ववादी चश्मे से तोड़मरोड़ कर पेश किया गया, जिस में महाबली को असुरों (राक्षसों) का राजा बताया गया. कोई आश्चर्य नहीं कि यह लेख लिखने वाले लेखक व केरल के आरएसएस शाखा अध्यक्ष के उन्नीकृष्णन नंबूदरी ब्राह्मण हैं और संस्कृत के प्राध्यापक भी  इस घटना के साथ एक और घटना हुई. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की ओर से सोशल मीडिया में एक ट्वीट किया गया. इस में एक बैनर भी दिखा जहां वामन नाम का ब्राह्मण राजा महाबली के सिर पर पैर रख कर उसे नरक में धकेल रहा है. आरएसएस की पत्रिका का दलित विरोधी लेख व अमित शाह का ट्वीट एकसाथ एकसमय पर आना दरअसल कट्टर हिंदुत्व विचारधारा से ग्रस्त भाजपा व संघ की सोचीसमझी रणनीति का परिणाम ही है.

‘केसरी’ के लेख व नंबूदरी की बात करें तो इस में विष्णु का अवतार वामन केरल को राक्षस महाबली से मुक्त करता है. महाबली के बारे में कम ही बताया गया है. संघ का यह मुखपत्र देश के बहुजन समाज को गुमराह करता है, क्योंकि वास्तव में महाबली पर पुराणों तथा उपनिषदों में विस्तृत चर्चा की गई है. वास्तव में देश की जनता महाबली को बेहतर शासक मानती थी. उस के राज्य में वर्णजाति की कोई व्यवस्था नहीं थी. मराठी में एक जुमला चर्चित है, ‘ईडा पीडा टलो आणि बलीचें राज्य येवो’ यानी देश की जनता का वामन से क्या संबंध? वह उसे जानती तक नहीं. लेकिन संघ व भाजपा उस वामन को भगवान का अवतार बता कर ओणम को बतौर उस के जन्मदिन के रूप में मनाना चाहती है जिस ने उन शूद्रों की हत्या कर दी, जो अपने हक की लड़ाई लड़ रहे थे. उस दौर के दलित, बहुजन व आदिवासी समाज को ब्राह्मणवादी गं्रथ राक्षस के तौर पर चित्रित करते आए हैं.

संघ और भाजपा एक हत्यारे को भगवान के तौर पर पेश कर रहे हैं. महाबली और वामन की कहानी एक उदाहरण है कि ब्राह्मणवाद बुरे जीवन मूल्यों व अनैतिकता को कैसे प्रतिष्ठित करता है. कहानी बताती है कि अनैतिक होना दैवीय गुण है. वे एक कहानी ही ऐसी रचते हैं जिस में ब्राह्मण को सर्वोच्च बताते हुए वह जो मांगे देना पड़ेगा, नहीं दिया तो वह श्राप दे कर भस्म कर सकता है. और ब्राह्मण की इच्छानुसार अगर दलित, शूद्र सब कुछ दे दें तो उन को महाबली की तरह लात मार कर नरक भेज दिया जाए. इस तरह की कहानियों को बारबार दोहराया जाता है कि ताकि लोग इसे भगवान का दिया सत्य समझ लें. हमेशा से सारी मेहनत व निचले स्तर के कार्य शूद्र करते हैं. पर त्याग, दानदक्षिणा धर्म व ब्राह्मणों से डर कर वे अपना सब कुछ गंवा देते हैं और हमेशा शोषित बने रहते हैं, वहीं ब्राह्मण खुद को भगवान का देवदूत यानी उच्च कोटि की रचना बता कर अकर्मण्यता से भोगविलास की जिंदगी बसर करता रहता है. केरल में संघ व भाजपा ओणम की लोककथा को अपने रंग में रंगना चाहते हैं तो इसलिए कि यही तो वर्णव्यवस्था की जड़ है. आज ब्राह्मणों ने क्षत्रियों, वैश्यों और पिछड़ों के संपन्नवर्गी को जोड़ लिया है और विशिष्ट घोषित कर दिया है. पहले की कथाओं में ईश्वर (ब्राह्मण) व राक्षस (बहुजन) में अकसर संघर्ष होते आए हैं. लड़ाई के बाद समझौते होते थे जिन्हें ब्राह्मण अकसर तोड़ देते थे. इसीलिए महात्मा ज्योतिबाफुले ने वैदिक संस्कृति को दगा देने वाली संस्कृति कहा था. नमुचि, वृत्र, हिरण्यकश्यप, प्रह्लाद, विरोचन, महाबली, महिसासुर, खंडोबा के साथ ब्राह्मणों ने वैसे ही छलकपट किए थे, जैसे महाबली के साथ किए.

‘वामनावतार’ की कहानी से पता चलता है कि वामन ने बली से केवल 3 पैर रखने की जमीन मांगी थी. जो बली ने सहर्ष दे दी. तब वामन ने विराट रूप धारण कर दो पैरों से जमीन को व्याप्त किया और तीसरा पैर उस के सिर पर रख कर उसे पाताल भेज दिया यानी बेईमानी की. दिखने में छोटा वामन विशाल बन गया यानी एक उदार शूद्र राजा को ब्राह्मणों के एक भगवान ने क्रूरता के साथ मार डाला. अब अमित शाह उसी वामन के जन्मदिन को बतौर केरल का ओणम हिंदुत्ववादी ठप्पे के साथ मनाना चाहते हैं. जहां ब्राह्मण दगाबाजी कर रहे थे वहीं बहुजन (असुर) ब्राह्मणों पर विश्वास कर समझौते का पालन करते थे. परिणामस्वरूप, ब्राह्मण चुपके से या छल से बहुजनों पर वार करने लगे. किसी से भेष बदल कर राज्य मांगा तो महिसासुर प्रकरण की तरह अप्सरा का सहारा लिया गया. कही महिसासुर-दुर्गा की कहानी से तब सब वाकिफ हो गए थे जब जेएनयू के परचों पर तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने संघ की मानसिकता जगजाहिर कर दी थी. एक अन्य उदाहरण वृत्र व इंद्र का ले सकते हैं. दोनों में तय हुआ था कि आपस में लड़ते हुए किसी की हत्या नहीं करनी है लेकिन अचानक इंद्र वज्र उठा कर वृत्र को मारने दौड़ा तो वृत्र ने कहा, ‘मैं अपनी सारी शक्तियां आप को देता हूं, आप मेरा वध न करें.’ इंद्र ने फिर भी उस की हत्या कर दी.

शत्रु को छलकपट से मारना, उस की निंदा कर के धर्मग्रंथों में उसे राक्षस- असुर बता कर बदनाम करना इंद्र जैसे ब्राह्मणों के देवताओं का स्वभाव रहा है. हिरण्यकश्यप, प्रह्लाद, विरोचन, महाबली, महिसासुर, खंडोबा जैसे गैर आर्य राजाओं के साथ भी ऐसा ही हुआ था. वामनपुराण में महाबली और वामन की कथा है. इस में अदिति व कृष्ण का संभाषण है. कथा में, ब्राह्मण कहते हैं कि जो मनुष्य 5, 3, या 2 ब्राह्मणों को भोजन देते हैं वे परमगति को प्राप्त होते हैं. यहां ब्राह्मणों को महत्त्वपूर्ण बताते हुए दानदक्षिणा का महिमामंडन किया गया है. जब अनार्य राजा बली ने यज्ञ का विरोध किया तो सारे ब्राह्मण उस के खिलाफ खड़े हो गए. श्रीमद्भगवद पुराण की एक कथा में वर्णन है कि गैरब्राह्मण शासक महाबली ब्राह्मणों को अपने तर्कों से परास्त कर देते थे. बली यज्ञ व कर्मकांडों के भी खिलाफ था. फिर भी उस ने ब्राह्मणों को यज्ञ के लिए भूमि दी. लेकिन वह विशेषवर्ग को विशेष लाभ देने के खिलाफ था. ब्राह्मणों के लिए तो यह धर्मद्रोह व गुनाह  था. इसीलिए लोभ व कपटी वैदिक नेता वामन ने बौने का रूपधारण कर के उस की हत्या कर दी. दरअसल, ब्राह्मण किसी ऐसे को राजा के रूप में देखना नहीं चाहते थे जो पूजापाठ, कर्मकांडों के खिलाफ हो. आज भी यही स्थिति है.

शतपत ब्राह्मणों ने स्पष्ट कहा है कि क्षत्रिय केवल सामान्य जनता का राजा हो सकता है, ब्राह्मणों का नहीं. महाराष्ट्र में ब्राह्मणों का शिवाजी के राज्याभिषेक को नकारना, जेम्स लेन के पास उन की बदनामी करना, बली व हैग्रिव की हत्या के बाद उन की निंदा कर राक्षस के तौर पर चर्चित करना ब्राह्मणवादी सोच के ही नमूने हैं जो हजारों सालों से चले आ रहे हैं. शिवाजी प्रकरण उस का आधुनिक संस्करण कहा जा सकता है. वामनावतार में ब्राह्मणों की दृष्टि से कही गई कथा भी तार्किक तौर पर पूरी तरह असत्य व काल्पनिक है. तीन पैरों से धरती नापना महज अतिश्योक्ति व महिमामंडन है. महाबली की हत्या को नाटकीय रूप देने के लिए रची गई कथा मात्र है. जैसे कि महाराष्ट्र के संत तुकाराम के वैकुंठगमन की कथा रची गई ब्राह्मणवादी नजरिए से. यहां भी, तुकाराम की छल से हत्या की गई लेकिन नाटकीय रूप देने व शूद्र व दलित समाज के गुस्से से बचने के लिए किस्सा रचा गया कि वे सदेह विमान से स्वर्ग चले गए. लोगों को धोखे में रखा गया. उन के साहित्य नष्ट करने के उद्देश्य से ब्राह्मणों ने उन्हें नदियों में बहा दिया. बाद में चमत्कार से उन के बाहर आने की कहानी रची गई. जबकि वे साहित्य संत जगनाडे महाराज ने दोबारा लिखे थे.

दरअसल, झूठी कहानियां, धार्मिक ग्रंथों के जरिए जनता को कर्मकांडों में डुबो देना व सच या झूठ पर तर्क करने की शक्ति नष्ट करना ब्राह्मण समाज की रणनीति व आदत रही है. ब्राह्मणों को ईश्वर के नजदीक व पूजनीय बताते तमाम धार्मिक ग्रंथों के किस्से पूरी तरह से अवैज्ञानिक, अतार्किक व प्रौपेगैंडा सरीखे हैं जिन्हें आज धर्मभीरु लोग सच मान कर धार्मिक अंधविश्वास की काली गुफा में रहने को तत्पर हैं. ऐसी ही ब्राह्मणवादी विचारधारा से लैस भजभज मंडली यानी आरएसएस व भाजपा जैसे दल आज अगर वामन के जन्मदिन को मनाने पर जोर दे रहे हैं और हैग्रिव, हिरण्यकश्यपु, महाबली, महिसासुर, खंडोबा का उत्सव नहीं मनाना चाहते तो सिर्फ इसलिए कि वे पीडि़त बहुजन समाज के राजा थे. भजभज मंडली वामन, परशुराम, विष्णुजयंती, होली, दीवाली व गुड़ी पडवा जैसे त्योहारों को बढ़ावा इसलिए देती है, क्योंकि वे उन के महानायक थे. इसलिए असवर्ण अपने पूर्वजों की छलकपट से हुई हार के क्षणों को ब्राह्मणों के विजयोत्सव के रूप में क्यों मनाएं? इस पर असवर्ण नाराज हैं. पौराणिक विवाद आज भी शिक्षित व वैज्ञानिक युग में जिंदा है, यह अपनेआप में मूर्खता व हठधर्मी है और इस पर आश्चर्य भी है.

2016 में भी कुछ भी नहीं बदला है. भूतकाल व धार्मिक कथाओं के ब्राह्मणों की भूमिका आज कट्टर वर्ग अदा कर रहा है. प्राचीनकाल की सदियों पुरानी अंधविश्वास व ब्राह्मणगान से लिपटी कहानियों को अलगअलग तरीकों से शूद्रों व दलितों के समाज पर ऊंचा वर्ग थोपना चाहता है. संघ के मुखपत्र में वामन कथा को उछालना उसी रणनीति का हिस्सा है. अमित शाह का वामन का महाबली के सिर पर पैर रखने वाला बैनर उसी षड्यंत्र का हिस्सा है. केरल की एक चुनाव सभा में नरेंद्र मोदी ने खुद को शूद्र व ओबीसी बताया था. उन्होंने यह भी कहा था, ‘‘यदि वे प्रधानमंत्री बनते हैं तो उन का राज दलित व ओबीसी के लिए होगा.’’ केरल का त्योहार ओणम भी शूद्रों के लिए सामाजिक सशक्तीकरण का प्रतीक है. पर यह उस वादे के उलट है जो मंचों पर किया गया. दरअसल, ये तमाम प्रकरण कहीं न कहीं राजनीतिक मोरचे पर ऊंचे वर्गों के साथसाथ शूद्रों व दलितों को भी वोटबैंक की चाशनी में लपेटने का ही उपक्रम हैं. इसी बीच दलित व ओबीसी को करीब लाने के लिए दलितभोज का स्वांग भी रचा गया. लेकिन इस का असल चरित्र बीजेपी शासन में वामन के रूप में शूद्र के दमन के तौर पर दिख रहा है. एक मलयाली लोकगीत, जिसे दलित कवि शमन पकनार ने 16वीं सदी में रचा था, उस ब्राह्मणवादी षड्यंत्र का खुलासा कर गया था जिस ने 8वीं व 12वीं सदी के बीच केरल में जातिवादी व सामंती हिंदू व्यवस्था की स्थापना की थी. दलितों व शूद्रों के सुर को जिस तरह महाबली व महिसासुर की आड़ में दबाया गया वही काम अब तीजत्योहारों, मान्यताओं व इतिहास में फेरबदल कर के किया जा रहा है.

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