हिंदुस्तान की हुकूमत सैक्युलर हुकूमत है, मुझे बताओ कि कभी देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने कहा कि हिंदू राष्ट्र की बात कहने वालों पर कार्रवाई करेंगे? इस का मतलब फर्क है. हिंदुओं और सिखों के इंस्पिरेशन का फर्क है. सिख नहीं कर सकते लेकिन हिंदू अपनी बात कर सकते हैं.

“मुझे यह लगता है कि दबाने से कुछ नहीं दबता. इंदिरा गांधी ने यह कर के देख लिया, क्या नतीजा निकला? अब ये भी कर के देख लें. हम तो हथेली पर सिर रख कर चल रहे हैं. हमें मौत का भय होता तो इन रास्तों पर चलते ही न, गृहमंत्री अपनी इच्छा पूरी कर के देख लें.

“500 वर्षों से हमारे पूर्वजों ने इस धरती पर खून बहाया है. इस धरती के दावेदार हम हैं. इस दावे से हमें कोई पीछे नहीं हटा सकता. न इंदिरा हटा सकी थीं और न ही नरेंद्र मोदी या अमित शाह हटा सकते हैं. दुनियाभर की फौजें आ जाएं, हम मरते मर जाएंगे लेकिन अपना दावा नहीं छोड़ेंगे.” यह कहना है नए नए चर्चा में आए अमृतपाल सिंह का.

अरसे बाद पंजाब से फिर अलगाव की बात पूरे दमखम और हुड़दंग के साथ उठी है. अमृतपाल सिंह का नाम रातोंरात दुनियाभर की जबान पर आ गया, नहीं तो लोगों ने यह मान लिया था कि खालिस्तान का मुद्दा इंदिरा गांधी के जमाने में जनून पर था जो ठंडा पड़ चुका है और इस के नाम पर अब कोई फसाद पंजाब में नहीं होगा. यह आख़िरकार सभी को सुकून देने वाली बात थी. पर अब न केवल अमृतपाल की बातों और वक्तव्यों से बल्कि हरकतों से भी साफ लग रहा है कि उस बोतल का ढक्कन `किसी` ने खोल दिया है जिस में अलग खालिस्तान नाम का जिन्न 80 के दशक के उत्तरार्ध से कैद था.

अमृतपाल ने पिछली 20 फरवरी को जो कहा उसे हलके में न लेने की कई वजहें हैं. खालिस्तान की मांग तो आजादी मिलने के पहले से ही उठने लगी थी लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि कोई अलगाववादी अब हिंदू राष्ट्र के नारों का हवाला देते यह कह रहा है कि उस के पास भी कुछ भी कहने और करने की छूट और शह क्यों न हो जब कट्टर हिंदू भारत में ही हिंदू राष्ट्र की मांग कर सकते हैं. ऐसे में वह सिख खालिस्तान की मांग क्यों नहीं कर सकता. इस सवाल का कोई सटीक जवाब न तो गृहमंत्री अमित शाह दे पाएंगे और न ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिन्हें इंदिरा गांधी का हश्र याद है.

आखिर ऐसा क्यों कहा अमृतपाल ने, इस सवाल का जवाब उस की उम्र की तरह बहुत लंबाचौड़ा नहीं है. 30 साल का यह शख्स अमृतसर जिले के जुल्लू खेड़ा गांव का है. यह गांव बाबा बकाला तहसील के तहत आता है. पढ़ाई में असफल और फिसड्डी रहने के बाद अमृतपाल साल 2012 में कामकाज की तलाश में दुबई चला गया और परंपरागत ट्रांसपोर्ट बिजनैस करने लगा. उस के पिता तरसेम सिंह और मां बलविंदर कौर को इस बात का सपने में भी अंदाजा कभी नहीं रहा होगा कि उन का यह बेटा यों दुनियाभर में उन के नाम की भी पहचान कराएगा.

कुछ महीनों पहले तक अमृतपाल को उस के करीबी लोग ही जानते थे. बीती 10 फरवरी को उस के तमाम करीबी जुल्लू खेड़ा में इकट्ठा हुए थे क्योंकि इस दिन अमृतपाल की शादी थी. उस की पत्नी किरणदीप कौर भारतीय मूल की एक एनआरआई है.

अगस्त 2022 में अमृतपाल वापस देश आ गया और आते ही ‘वारिस पंजाब दे’ नाम के संगठन से जुड़ गया. यह संगठन पंजाबी ऐक्टर दीप सिद्धू ने खड़ा किया था. 15 फरवरी, 2022 को 37 वर्षीय दीप सिद्धू की मौत कुंडली मानेसर पलवल एक्सप्रेसवे पर एकसड़क हादसे में हो गई थी. यह हादसा इतना जबरदस्त था कि उन की कार पूरी तरह डैमेज हो गई थी पर उन की अमेरिका से लौटी पत्नी रीना राय को ज्यादा चोटें नहीं आई थीं. इस हादसे और मौत को शुरू में शक की निगाह से देखा गया था क्योंकि दीप सिद्धू लालकिले की हिंसा के आरोपी थे जिन्होंने 26 जनवरी, 2021 को लालकिले पर सिख झंडा फहराया था जिस के चलते उन के कई दिग्गज नेताओं से मतभेद थे.

किसान आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने वाले दीप सिद्धू खासे शिक्षित थे जिन्होंने वकालत करने के बाद मौडलिंग में कैरियर बनाया था और फिर कुछ पंजाबी फिल्मों में भी काम किया था. फिल्मों से ज्यादा नाम और पहचान उन्हें किसान आंदोलन के दौरान मिली जब उन्होंने प्रदर्शनों में जम कर हिस्सा लिया था और फर्राटेदार इंग्लिश में भाषण दिया था. इस के पहले उन्हें साल 2019 के लोकसभा चुनाव में गुरुदासपुर में भाजपा के उम्मीदवार अभिनेता सन्नी देओल के चुनावप्रचार में देखा गया था लेकिन लालकिले की हिंसा के बाद दोनों में दूरियां और तल्खियां बढ़ गई थीं.

पंजाब के मुक्तसर के दीप सिद्धू अपने दौर के चर्चित खालिस्तानी आतंकवादी जरनैल सिंह भिंडरावाला के न केवल जबरदस्त प्रशंसक थे बल्कि उसे अपना रोल मौडल भी मानते थे. जाहिर है ‘वारिस पंजाब दे’ एक खास मकसद से बना संगठन था जिस का मनसूबा अलग देश है. यह मनसूबा खुलेतौर पर अमृतपाल के मुखिया बनने के बाद उजागर होने लगा था. उस की सभाओं में ‘खालिस्तान जिंदाबाद’ के गूंजते नारे आने वाले वक्त की भयावह तसवीर खींच रहे थे.

बीती 23 फरवरी को पंजाब सहित देशभर में उस वक्त सन्नाटा छा गया था जब अमृतसर के नजदीक अजनाला थाने के बाहर अमृतपाल अपने सैकड़ों साथियों सहित पुलिसकर्मियों से भिड़ गया था. ये लोग अपने एक गिरफ्तार साथी लवप्रीत सिंह तूफान की रिहाई की मांग कर रहे थे. दूसरे दिन ही जादू के जोर से वह रिहा भी हो गया था. उसी दिन से अमृतपाल हीरो बन गया और उसे भिंडरावाले 2.0 का भी खिताब दे दिया गया है. अब ढका मुद्दा कुछ नहीं रह गया. ‘वारिस पंजाब दे’ का खालसा राज स्थापित करने का एजेंडा दुनिया के सामने पूरी तरह बेपरदा है.

 

इतिहास भी हुआ बेपरदा

पंजाब की गिनती देश के खुशहाल राज्यों में की जाती है, तो इस की अपनी वजहें भी हैं. लेकिन इस खुशहाली पर अलगाव की काली छाया भी चस्पां है. आमतौर पर माना यह जाता है कि यह यानी खालिस्तान की मांग 1970-80 के दशक की है लेकिन हकीकत में यह लगभग 100 साल पुरानी है जो रहरह कर सिर उठाती रही है. 19वीं शताब्दी की शुरुआत में जब यह तय हो चुका था कि ब्रिटिश हुकूमत आजादी तो देगी लेकिन उस की शर्त देश का बंटवारा होगा तो सभी धर्मों के नेताओं ने अलगअलग देशों की मांग शुरू कर दी थी.

31 दिसंबर, 1929 को कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में जवाहरलाल  नेहरु ने पूर्ण स्वराज्य की बात कही थी जिस पर सिद्धांततया सभी सहमत थे पर असहमति के स्वर भी सुनाई दिए थे जिन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत हिंदू राष्ट्र नहीं होगा.

मुसलमानों की तरफ से मोहम्मद अली जिन्ना ने अलग मुसलिम राष्ट्र की मांग रखी थी तो भीमराव आंबेडकर ने दलितों की अगुआई करते मोतीलाल नेहरू का विरोध किया था. तब के निर्विवाद सिख नेता शिरोमणि अकाली दल के मास्टर तारा सिंह ने सिखों के लिए अलग राज्य की मांग की थी.

1947 में बंटवारा हुआ पर सिखों की मांग मांग ही रह गई, पंजाब बन गया. पाकिस्तान बन गया, पंजाब भी 2 हिस्सों में बंट गया. एक तरह से सिखों की मांग किनारे रह गई पर वे खामोश नहीं बैठे रहे. अकाली दल अलग राज्य की अपनी मांग पर अड़ा रहा. आजादी के बाद उस ने इस बाबत लगातार आंदोलन किए जिन में ‘पंजाबी सूबा आंदोलन’ को सिखों का खासा समर्थन मिला. सिखों की मांग को किनारे करने में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का रोल अहम था जिन्होंने मास्टर तारा सिंह को शीशे में उतारते अकाली दल को अपनी तरफ मिला लिया था. इस के बाद 1956 में अकाली दल ने कांग्रेस के हवाले से सिखों के तमाम तरह के हितों की गारंटी ली थी.

धर्म, भाषा, क्षेत्र और जाति के लिहाज से अलग पंजाब की मांग गलत या नाजायज नहीं थी, इसलिए साल 1966 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यह मांग मान भी ली थी लेकिन उन्होंने हिंदुओं का खयाल ज्यादा रखा था. पंजाब 3 हिस्सों में बंट गया. हिंदीभाषियों के हिस्से में हरियाणा आया, सिखों को पंजाब मिला और तीसरा हिस्सा केंद्रशासित प्रदेश चंडीगढ़ शहर बना. इस से पहले 1956 में जब भाषा के आधार पर राज्यों का बंटवारा हुआ था तब अलग पंजाब की मांग पर ध्यान नहीं दिया गया था क्योंकि तब अधिकतर सिखों ने अपनी मातृभाषा हिंदी बताई थी. यह खास हैरत की बात नहीं थी क्योंकि तब ‘हिंदी बचाओ आंदोलन’ जोरों पर था. उसी साल हिमाचल प्रदेश को अलग राज्य का दर्जा देते जवाहर लाल नेहरू ने अकालियों को एक और झटका दिया था जो यह प्रदेश भी मांग रहे थे.

हैरत की बात यह थी कि कांग्रेस और कट्टरवादी हिंदू पार्टी जनसंघ दोनों ही हिंदी पर जोर दे रहे थे जिस के चलते पंजाबी हिंदू भी हिंदुओं को गुरुमुखी में शिक्षा देने का विरोध करने लगे थे. पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो ने क्षेत्रीय फार्मूले को लागू ही नहीं किया. उस से सिख समुदाय फिर से खुद को अलगथलग महसूस करने लगा.

 

एक दुखद भविष्यवाणी

अनदेखी, गुस्से और भड़ास ने जगजीत सिंह चौहान जैसे अलगाववादी नेता को शह दी जो 70 के दशक में ब्रिटेन में बैठ कर ‘खालिस्तान आंदोलन’ चलाने लगा था. उस से पहले रिपब्लिकन पार्टी के इस नेता को पंजाब विधानसभा का डिप्टी स्पीकर अकाली दल वाली गठबंधन सरकार में बनाया गया था. ब्रिटेन शिफ्ट होने के बाद जगजीत सिंह ने बाकायदा खालिस्तान का पूरा खाका और नक्शा तैयार कर रखा था. वह विदेशी अखबारों में विज्ञापनों के जरिए खालिस्तान आंदोलन के लिए चंदा भी मांगता था. 1979 में तो उस ने हद ही कर दी थी और खालिस्तान नैशनल काउंसिल की स्थापना करते खुद को ‘रिपब्लिक औफ खालिस्तान’ का राष्ट्रपति भी घोषित कर दिया था.

जो लोग खालिस्तान की मांग का जिम्मेदार भिंडरावाला या अमृतपाल को मानते हैं, उन्हें यह जान कर हैरत ही होगी कि इस स्वयंभू राष्ट्रपति ने तो खालिस्तानी पासपोर्ट, डाक टिकट और खालिस्तानी करैंसी भी जारी कर दी थी. और तो और, उस ने कुछ यूरोपीय देशों और ब्रिटेन में खालिस्तानी दूतावास भी खोल दिए थे. जगजीत सिंह के हाथ बहुत लंबे थे. पाकिस्तान सहित कई देशों ने उस के खालिस्तान को अघोषित मान्यता दे रखी थी.

80 के दशक में भिंडरावाले की बढ़ती ताकत ने इंदिरा गांधी को चिंतित कर दिया था हालांकि सियासी पंडित यह मानते हैं कि उस के उत्थान में इंदिरा गांधी का बड़ा योगदान था. अब तक जगजीत सिंह की ताकत और पहुंच कमजोर पड़ने लगे थे. भिंडरावाले के उस से संबंधों पर उंगली उठती रहती थी पर किसी के पास कोई सुबूत नहीं था ठीक वैसे ही जैसे आज अमृतपाल और दीप सिंह सिद्धू के संबंधों के नहीं हैं.

जगजीत सिंह ने 12 जून, 1984 को बीबीसी को दिए गए एक इंटरव्यू में पूरे आत्मविश्वास से कहा था कि कुछ दिनों बाद आप को खबर मिल जाएगी कि श्रीमती गांधी और उन के परिवार का सिर काट दिया गया है. सिख यही करेंगे और सचमुच 31 अक्तूबर, 1984 को यह हो गया. इंदिरा गांधी की हत्या उन के ही 2 सुरक्षाकर्मियों ने कर दी.

जाहिर है जगजीत सिंह को इस बात का आभास था कि सिख इंदिरा गांधी से खासे और मरनेमारने की हद तक नाराज हैं जिस की बड़ी वजह ‘औपरेशन ब्लूस्टार’ था.

 

औपरेशन नहीं अधूरी सर्जरी

इमरजैंसी के बाद 1980 में इंदिरा गांधी की शानदार वापसी हुई. उस समय उन के सामने सब से बड़ी चुनौती पंजाब में पनपता अलगाववाद, आतंक और हिंसा थीं जिन की जड़, फूल, पत्ते, टहनियां और पेड़ तक जरनैल सिंह भिंडरावाला था. खालिस्तान की मांग शबाब पर थी. सुलगते पंजाब का नायक भिंडरावाला कांग्रेस और इंदिरा गांधी सहित देशभर के लिए भस्मासुर कैसे बन चुका था, इसे समझने के लिए 80 के दशक पर एक नजर डालनी जरूरी है.

अब बहुत आसानी और सहजता से कहा जा सकता है कि औपरेशन ब्लूस्टार 1 से 8 जून, 1984 तक की गई एक सैन्य कार्रवाई थी जो अमृतसर के हरमिंदर साहिब परिसर में की गई थी. इस का मकसद कुख्यात खालिस्तानी समर्थक भिंडरावाला को वहां से खदेड़ना था क्योंकि उस की अगुआई में अलगाववादी ताकतें फलफूल रही थीं जिन्हें खासतौर से पाकिस्तान का सहयोग और समर्थन मिला हुआ था.

मोगा जिले का जरनैल सिंह भिंडरावाला आज के अमृतपाल की तरह ही मामूली खातेपीते घर का नौजवान था और सिखों के एक धार्मिक समूह दमदमी टकसाल का मुखिया था. वह भी कम पढ़ालिखा था और अपने मकसद को पूरा करने के लिए हिंसा को जरूरी मानता था. उस ने अलगाववाद को जम कर हवा दी और युवाओं को अपनी मुहिम से जोड़ने लगा. लेकिन धीरेधीरे वह देशविरोधी बातें करने लगा. उस की पूछपरख बढ़ने लगी तो सभी दलों के नेताओं ने भी उसे घेरना शुरू कर दिया. उन में एक अहम नाम तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल का है जो दमदमी टकसाल का मुखिया बनने पर उसे बधाई देने पहुंचे थे. दूसरा बड़ा नाम शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष गुरुचरण सिंह तोहड़ा का आता है.

1978 की वैशाखी को आज भी पंजाब में खूनी कहा जाता है क्योंकि उस दिन अकाली कार्यकर्ताओं और निरंकारियों की हिंसक झड़प में 13 अकाली मारे गए थे. उस के बाद मनाए गए रोष दिवस में भिंडरावाला ने हिस्सा लिया था और फिर वह जगहजगह भड़काऊ भाषण देने लगा था. फिर तो पंजाब में हिंसा का ऐसा तांडव हुआ कि शेष भारत के लोग वहां के नाम से डरने लगे थे.

1981 में हिंद समाचार समूह के संस्थापक लाला जगत नारायण की हत्या का जिम्मेदार भी भिंडरावाला को माना गया था और 1983 में पंजाब के डीआईजी ए एस अटवाल की हत्या में भी उस का हाथ बताया गया.

देखते ही देखते खुलेआम हत्याएं पंजाब का रूटीन बन गईं. आएदिन अलगाववादी रेलें रोकने लगे, बसें जलाने लगे और हवाई जहाज किडनैप करने लगे. अब किसी को कहने और पूछने की जरूरत नहीं रह गई थी कि यह सब क्यों और किस के इशारे पर हो रहा है. पुलिस इस खूंखार आतंकी के सामने असहाय थी और आम लोगों में दहशत थी. लोग केंद्र सरकार से दखल की मांग करने लगे थे.

इंदिरा गांधी के लिए एकदम से कोई भी फैसला लेना आसान नहीं था क्योंकि उन की शह भी भिंडरावाला के साथ कुछ सालों पहले तक हुआ करती थी, जब वे विपक्ष में थीं. पंजाब वह राज्य था जिस में उन के 1977 में लगाए गए आपातकाल का कोई खास विरोध नहीं हुआ था. लेकिन 1977 में ही अकाली दल ने सभी को चौंकाते जनता पार्टी और मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के साथ सरकार बनाई तो इंदिरा गांधी को यह इस हद तक नागवार गुजरा था कि उन्होंने अकाली दल को पंजाब से नेस्तनाबूद करने की कसम खा ली थी. इस की जिम्मेदारी उन्होंने अपने बेटे संजय गांधी और अपने वफादार व भरोसेमंद नेता ज्ञानी जैल सिंह को सौंप दी थी. उस चुनाव में कांग्रेस को 117 में से महज 17 सीटें मिली थीं और अकाली दल 58 सीटों पर जीता था.

भिंडरावाला की पहुंच तब तक शहरी इलाकों के साथसाथ देहाती इलाकों में भी हो चुकी थी. इंदिरा गांधी ने बिना भविष्य के बारे में सोचेसमझे भिंडरावाला को हर संभव सहयोग दिया, एवज में उस ने कांग्रेस का चुनावप्रचार किया था जिस के चलते 1980 के लोकसभा चुनाव में उम्मीद से ज्यादा कामयाबी मिली थी. उस के खाते में 13 में से 12 सीटें आई थीं जबकि अकाली दल एक सीट पर सिमट कर रह गया था. इसी तरह विधानसभा चुनाव में उस बार कांग्रेस 61 सीटें ले गई थी और अकाली 37 पर सिमट गए थे.

लेकिन तब तक पानी सिर से गुजर चुका था. खुद को पंजाब का शासक समझने और मानने लगा भिंडरावाला चुनावी डील के बाद इस हद तक बेलगाम हो चुका था कि उस ने दरबार साहिब में अपना दरबार लगाना शुरू कर दिया था. उस की अपनी एक अदालत थी जिस में वह इंसाफ भी करने लगा था. इस जिद्दी और सनकी शख्स का आतंक ही इसे कहा जाएगा कि पुलिस वाले तक उस के इशारों पर नाचने लगे थे, फिर क्या अकाली, निरंकारी, रामदसिया और रविदासिया सभी उसे मौजूदा पंजाब व भविष्य के खालिस्तान का मसीहा स्वीकार चुके थे.

 

1980 में जब पंजाब में कांग्रेस की सरकार बनी थी तब दरबारा सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया था जो भिंडरावाला को खतरा समझ आलाकमान को आगाह करते रहे थे लेकिन उन की बात अनसुनी कर दी गई. इधर हालात दिनोंदिन बिगड़ते जा रहे थे. इसलिए राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. तब तक भिंडरावाला को इंदिरा गांधी की मंशा की भनक लग चुकी थी, इसलिए वह भी आरपार की लड़ाई के मूड में आ गया और ‘स्वर्ण मंदिर’ में अपने हथियारबंद समर्थकों सहित कैद हो गया. इंदिरा गांधी ने एक कूटनीति के तहत उसे बातचीत का प्रस्ताव भेजा जिसे उम्मीद के मुताबिक उस ने ठुकरा दिया.

1 जून, 1984 को पूरे पंजाब में कर्फ्यू लगा दिया गया, चारों तरफ से आवाजाही बंद कर दी गई. मीडिया को अमृतसर छोड़ने को कह दिया गया और मेजर कुलदीप सिंह को औपरेशन ब्लूस्टार की जिम्मेदारी सौंपी गई. इस मुठभेड में टैंकों तक का इस्तेमाल किया गया था. घोषिततौर पर सेना के 83 जवान शहीद हुए और 500 से ज्यादा आतंकी मारे गए जिन में भिंडरावाला भी शामिल था. उस की मौत के बाद लोगों ने चैन की सांस ली और जम कर धर्म आधारित राजनीति को कोसा, पर किसी ने कोई सबक लिया हो, ऐसा लगता नहीं.

सेना को पहली बार किसी धर्मस्थल में दाखिल हो कर अपने ही देश में युद्ध लड़ना पड़ा. सबकुछ निबट गया पर सिखों ने इसे सहजता से नहीं लिया. जगजीत सिंह का अंदाजा सही निकला. 2023 में अब हिंदू-सिख मंथन से निकल रहे अमृतपाल का उदय बता रहा है कि औपरेशन ब्लूस्टार एक आधीअधूरी सर्जरी था क्योंकि धर्मांधता फिर सिर चढ़ कर बोल रही है.

 

कौन से हिंदुओं का राष्ट्र

यह धर्मांधता अकेले सिखों की नहीं, बल्कि हिंदुओं की भी है जिस की ढाल या आड़ कभी भिंडरावाला ने भी ली थी और अब अमृतपाल ले रहा है. हिंसा के पैमाने पर ये दोनों ही गलत हैं लेकिन उन के हिंदू राष्ट्र क्या और कैसे, के सवालों का जवाब तो भगवा गैंग को आज नहीं तो कल देना ही पड़ेगा, नहीं तो हालात उन से भी नहीं संभलेंगे.

भिंडरावाला भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 को कोसते हुए कहता था कि सिख, जैन और बौद्धों को अल्पसंख्यक करार देते किस आधार पर सिखों को हिंदू धर्म का हिस्सा कहा गया? इस अनुच्छेद के स्पष्टीकरण 2 खंड (2) के उपखंड (ख) के मुताबिक, हिंदुओं के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि उस के अंतर्गत सिख, जैन या बौद्ध धर्म के मानने वाले व्यक्तियों के प्रति निर्देश हैं और हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं के प्रति निर्देश का अर्थ तदनुसार लगाया जाएगा.

लाख टके का सवाल जो सदियों और युगों से जवाब का मुहताज है वह यह है कि आखिरकार हिंदू हैं कौन, जिन के नाम पर राष्ट्र बनाने का आसमान सिर पर उठा रखा है. सवाल तो यह भी अनुत्तरित है कि जो सिख, बौद्ध और जैन धर्म पौराणिक हिंदू धर्म के पाखंडों और कुरीतियों के विरोध में बने थे उन्हें किस आधार पर हिंदू माना जा रहा है.

इसी तर्ज पर दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को भी किस तर्क व तथ्य पर हिंदू करार दे कर उन्हें हिंदू राष्ट्र की संख्या में जोड़ा जा रहा है जबकि इन जातियों के लोग खुद को पूर्णहिंदू नहीं मानते. यानी, कुछ मानों में हिंदू वह नहीं है जो खुद को हिंदू कहे और हिंदू वह भी नहीं है जिसे दूसरे हिंदू कहें. जब तक कायदे से जातिगत जनगणना नहीं होगी तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि कौन सी जाति की आबादी कितनी है. कौन सी जाति हिंदू है और कौन सी नहीं क्योंकि हिंदू पुराण बहुत से लोगों को पशु और ढोलों के सामान मानता है, मनुष्य या हिंदू नहीं.

हिंदू शब्द की उत्पत्ति को ले कर कई थ्योरियां प्रचिलित हैं लेकिन उन में से अधिकतर भौगोलिक हैं, जातिगत नहीं. अब अगर जैन, बौद्ध और सिख धर्मों सहित दलित, पिछड़ों और आदिवासियों को अलग कर दिया जाए तो कुल सनातनी हिंदू 12 करोड़ भी नहीं बचते जो सभी ऊंची जाति के हैं, इन में भी ब्राह्मण बाकियों के आका हैं.

यही लोग हिंदू राष्ट्र का हल्ला दिनरात मचा रहे हैं और अब यह जताने की साजिश रच रहे हैं कि जो किसी दूसरे धर्म का नहीं है वह हिंदू है या उसे भी हिंदू मान लिया जाए फिर भले ही इस में उस की सहमति हो या न हो. यानी, ‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, मोहन भागवत ने कुनबा जोड़ा’ वाली बात है जो कहते हैं कि जो भी इस देश में रहता है वह हिंदू है. अगर ऐसा है तो फिर तो पाकिस्तान में रहने वाले भी सभी हिंदू हुए क्योंकि वह पूरा देश भारत का ही हिस्सा तो है.

अगर अमृतपाल कह रहा है, ‘मैं सिख हूं, मुझे हिंदू मत कहो’ तो वह गलत नहीं है. जब सब हिंदू हैं और हिंदू राष्ट्र बनना चाहिए जैसी बात कही जाती है तो उस का सब से ज्यादा सड़कों पर विरोध पंजाब में होता है क्योंकि वहां सिख बहुलता में हैं. इस के बाद ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़ सहित आदिवासी बाहुल्य वाले राज्यों से आवाज आती है कि हम आदिवासी हैं, हिंदू नहीं हैं.

इस लिहाज से हिंदू वही बचते हैं जो वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृतियां, संहिताएं, रामायण और गीता मानते व बांचते हैं और उन में लिखे निर्देशों का पालन करते हैं. वे यज्ञहवनपूजापाठ करते हैं, मंदिरों में उमड़ते हैं, दानदक्षिणा देते हैं. ये लोग संख्या में 8 करोड़ के लगभग हैं. मुमकिन है कि कुछ ज्यादा हों लेकिन हिंदू राष्ट्र की मांग कुछ यों कर रहे हैं जैसे ऊपर से कोई आकाशवाणी हुई हो. हां, नीचे से जरूर नएनवेले आधा दर्जन ब्रैंडेड बाबा, जो हिंदी बेल्ट में जगहजगह विराजे प्रवचन कर रहे हैं, हिंदू राष्ट्र की मांग कर रहे हैं.

ये सभी भगवा गैंग के मैंबर हैं और दरबार लगाते अरबों रुपए कमा रहे हैं. ये बाबा मुसलमानों के खिलाफ लोगों को भड़का कर अपने उल्लू सीधे कर रहे हैं. मुमकिन है अमृतपाल जैसे लोग मुसलिमोफोबिया से इंस्पायर हो कर भड़क रहे हों और बाहरी देशविरोधी तत्त्व उन की मदद कर रहे हों जिस से देश को कमजोर किया जा सके. लेकिन हिंदू राष्ट्र की बात कैसे देश को कमजोर कर रही है, यह किसी से छिपा नहीं है. मुसलमानों के अलावा दूसरे गैरहिंदू भी डरे हुए हैं जिन्हें देश पराया सा लगने लगा है.

 

एजेंडा हिंदू राष्ट्र का

अलगाववादी किसी भी धर्म के हों, उन के पास अपने प्रस्तावित देश का पूरा ब्योरा होता है. जगजीत सिंह की तरह उन की प्लानिंग भी फूलप्रूफ होती है. अमृतपाल ने क्या योजना बनाई है, इस का खुलासा जब होगा तब होगा लेकिन हिंदू राष्ट्र की मांग पर अड़े हिंदू साधुसंतों ने अपने देश का खाका खींचते एक अलग संविधान भी बना लिया है. यह खालिस्तान से ज्यादा खतरनाक और चिंताजनक है.

बीती 13 फरवरी को यह खबर आई थी कि साधु, संतों और शंकराचार्यों ने यह तय किया है कि हिंदू राष्ट्र का संविधान 750 पृष्ठों का होगा जिस में कुछ पृष्ठ तैयार किए जा चुके हैं. जो “विद्वान ”लोग यह मसौदा तैयार कर रहे हैं उन में हिंदू राष्ट्र निर्माण समिति के प्रमुख कमलेश्वर उपाध्याय, वरिष्ठ अधिवक्ता बी एन रेड्डी, रक्षा विशेषज्ञ आनंद वर्धन, सनातन धर्म के जानकार चंद्रमणि मिश्रा और विश्व हिंदू महासंघ के अध्यक्ष अजय सिंह शामिल हैं.

इस प्रकार हिंदू राष्ट्र का संविधान बनाने का काम असल में अमृतपाल सिंह जैसों को प्रोत्साहन करना है कि देशों में मरजी के संविधान, उस की सीमाएं बनाना गलत नहीं. हिंदू राष्ट्र बनाना सेवा विस्तार के लिए होगा, यह जरूरी नहीं है. जरूरी यह है कि कुछ लोग भारत में ही एक अन्य राष्ट के बारे में कैसे सोच रहे हैं?

इस निर्माणाधीन संविधान के मुताबिक, देश की राजधानी दिल्ली के बजाय वाराणसी होगी और काशी में संसद बनेगी जिसे धर्मसंसद कहा जाएगा. वाराणसी स्थित शंकराचार्य परिषद के अध्यक्ष स्वामी आनंद स्वरूप के मुताबिक, हिंदू राष्ट्र में मुसलमानों और ईसाईयों को वोट देने का अधिकार नहीं रहेगा. न्याय द्वापर युग की तर्ज पर होगा. यह वही युग है जिस में गुरु द्रोणाचार्य ने आदिवासी युवक एकलव्य का अंगूठा गुरुदक्षिणा में कटवा कर ले लिया था. वही द्वापर युग जिस में सूतपुत्र कर्ण को धोखे से मार दिया गया था और वही द्वापर युग जिस में लाचार द्रौपदी के कपड़े भरी सभा में दुशासन ने उतार दिए थे और सारे शूरवीर व विद्वान क्षत्रिय सिर झुकाए यह चीरहरण देखते रहे थे. इस में और भी कई बातें हैं जिन्हें जगजीत सिंह और भिंडरावाला भी कहते रहे थे और अब अमृतपाल भी कह रहा है. ऐसे में फिर इन में और उन में फर्क क्या?

आज भी दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की मारकुटाई आम बात है. उन का शोषण सवर्णों का हक है जिस का लाइसैंस रामचरितमानस सहित सभी हिंदू धर्मग्रंथों ने उन्हें दिया हुआ है. पिछले दिनों कई दलित नेताओं ने इस लिखे पर एतराज जताया है जिस पर खूब बवंडर भी मचा, तो ऊंची जाति वाले खामोश हैं इस मुद्दे पर. सरिता का पिछला अंक (मार्च प्रथम, 2023) देखें जिस में तर्क और तथ्यपरक ढंग से इस सच और ब्राह्मण मंशा को उधेड़ा गया है. उस में प्रमुखता से यह कहा गया है कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत धर्मग्रंथों में बदलाव की बात पर गौर कर सकते हैं. इस बात की पुष्टि बीती 5 मार्च को हुई भी जब उन्होंने नागपुर में यह कहा कि धर्मग्रंथों की दोबारा समीक्षा होनी चाहिए.

उक्त लेख में धर्मग्रंथों के हवाले से साबित किया गया है कि कोई और नहीं, अकेले ब्राह्मण ही हिंदू होते हैं क्योंकि धर्मग्रंथ उन की प्रशस्ति से भरे पड़े हैं और उन के अधिकार बेहिसाब हैं. वे संविधान से ऊपर हैं. ये लोग भगवान के दूत या दलाल कुछ भी कह लें, हैं. इन का संविधान मनुस्मृति है, आंबेडकर वाले संविधान से ये खार और खौफ दोनों खाते हैं क्योंकि वह बराबरी का दर्जा सभी को देता है और वंचितों, कमजोरों व शोषितों को आरक्षण तथा संरक्षण देता है.

 

गुरुद्वारों से भगाया था ब्राह्मणों को

अमृतपाल हिंदू राष्ट्र की मांग से चिढ़ा हुआ है और वह उसी की ढाल भी लिए हुए है. कोई मुसलमान कुछ कहता तो उसे झट से यह कहते दुत्कार दिया जाता कि ‘तो फिर पाकिस्तान चले जाओ’, अब अमृतपाल से तो यह नहीं कहा जा सकता कि खालिस्तान चले जाओ क्योंकि ब्राह्मण नहीं चाहते कि खालिस्तान बने. वे अभी तक सिखों से चिढ़ते हैं, इस की भी एक दिलचस्प दास्तां है जिस का शीर्षक ‘गुरुद्वारा सुधार आंदोलन’ है.

गुरुनानक ने मुगलों से हिंदुओं की रक्षा के लिए सिख धर्म बनाया था जिस में अधिकतर वे छोटी जाति के लोग शामिल किए गए थे जिन्हें हिंदू धर्मग्रंथ शूद्र कह कर दुत्कारते रहे हैं. लेकिन सिख बनने के बाद शूद्रों को सम्मान और बराबरी का दर्जा मिला तो उन में एक अलग फीलिंग आई और वे सिख रीतिरिवाजों को मानने लगे. यहां तक तो सिखों और हिंदुओं में कोई खास  मतभेद नहीं थे.

मतभेद 1920 के लगभग उजागर होने शुरू हुए थे जब ‘गुरुद्वारा सुधार आंदोलन’ ने जोर पकड़ा. 18वीं शताब्दी तक गुरुद्वारे असल में एक तरह की धर्मशाला हुआ करते थे जिन में मुसाफिरों, मेहमानों और सैनिकों के ठहरने व खानेपीने की व्यवस्था होती थी. एक तरह से ये सामाजिक गतिविधियों के केंद्र थे. फिर धीरेधीरे इन में पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजन होने लगे. इन गुरुद्वारों का संचालन एक तरह के ब्राह्मण पुजारियों के हाथों में हुआ करता था जिन्हें महाद कहा जाता था. शूद्र तो मन से सिख हो गए थे पर ब्राह्मण नहीं हुए थे. धीरेधीरे ब्राह्मण पुजारियों ने गुरुद्वारों को भी लूटखसोट का अड्डा बना डाला.

इन पुजारियों को सिख धर्म के मूलभूत सिद्धांतों से कोई सरोकार नहीं था. ये लोग चढ़ावा वसूलने लगे और मूर्तिपूजा व ज्योतिष जैसे अंधविश्वास फैला कर भी लोगों को मूर्ख बना कर पैसे ऐंठने लगे. इतना ही नहीं, इन्होंने छोटी जाति वालों को गुरुद्वारों में आने से रोकना शुरू किया तो सिखों को यह नागवार गुजरा क्योंकि सिख धर्म में जातिगत भेदभाव, ढोंग, पाखंड और कर्मकांडों की सख्ती से मनाही थी. यह लूटखसोट सिखों को खतरा लगी तो उन्होंने इस का विरोध शुरू कर दिया. इस के बाद ही अकाली दल और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी वजूद में आए. हालांकि छोटेमोटे विवाद और फसाद होते रहे लेकिन गुरुद्वारों का प्रबंधन पुजारियों के चंगुल से छूट कर सिखों के हाथ में आ गया.

यह बात ब्राह्मणों को अखरी क्योंकि उन की मुफ्त की मलाई मारी गई थी. लिहाजा, उन्होंने अपनी आदत के मुताबिक सिखों का मजाक बनाना शुरू कर दिया जो अभी तक जारी है. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद तो सिखों को आतंकवादी और खालिस्तानी कह कर प्रताड़ित किया जाने लगा. इस से यह तो पता चलता है कि हिंदू-सिख नफरत की जड़ें कितनी गहरी हैं और यह जहरीला पेड़ लगाया किस ने है. चूंकि सिख खुद को हिंदू नहीं मानते, इसलिए उन से नफरत की जाती है ठीक वैसे ही जैसे मुसलमानों, ईसाईयों, दलित, पिछड़ों और आदिवासियों से की जाती है, फर्क सिर्फ नफरत की मात्रा का है.

किसान आंदोलन में चूंकि ज्यादातर किसान पंजाब के थे, इसलिए उन्हें खालिस्तानी और आतंकी कह कर उकसाने की कोशिश की गई पर किसानों ने अभूतपूर्व धैर्य और अनुशासन दिखाते अड़ंगा डालने वालों की मंशा पर पानी फेर दिया और इसलिए वे जीते भी, जिस के चलते पहली दफा जिद्दी और अड़ियल सरकार उन के सामने झुकी.

बात अकेले किसानों की नहीं है और न पहले कभी रही है. सार्वजनिक स्थानों पर तो सिखों का तरहतरह से मजाक बनाया ही जाता है. भगवंत मान जब पंजाब के मुख्यमंत्री बने थे तो उन की शराब की आदत पर खूब ताने कसे गए थे. मीम बनाबना कर उन का मखौल उड़ाया गया था मानो हिंदू शराब को हाथ भी न लगाते हों.

सिखों को खेल के मैदान में भी नहीं बख्शा जाता. सितंबर 2022 में एशिया कप क्रिकेट के भारतपाकिस्तान मैच के दौरान उभरते खिलाड़ी अर्शदीप सिंह से पाकिस्तानी खिलाड़ी आसिफ अली का कैच छूटने से भारत हार गया था. इस पर अर्शदीप को जम कर ट्रोल खालिस्तानी कह कर किया गया था.

हालांकि यह शुरुआत पाकिस्तान से हुई थी लेकिन भारत के गलीमहल्लों में भी यह छूटा कैच अर्शदीप को खालिस्तानी करार दे रहा था. हैरत की बात यह भी थी कि ऐसा कहने वाले वे युवा ज्यादा थे जिन्हें खालिस्तान का क ख ग घ भी नहीं मालूम. उन से इस सवाल की उम्मीद करना फुजूल की बात थी कि आखिर सिखों की इमेज ऐसी क्यों है, क्या वे हिंदुस्तानी नहीं हैं. बात का बतंगड़ बनाने वाले न्यूज चैनल भी चुप्पी साध गए थे, मानो वे इस ट्रोलिंग से सहमत हों. यह सिखों के प्रति पूर्वाग्रह नहीं तो और क्या है?

इस नफरत और पूर्वाग्रह का शिकार औरतें भी खूब रही हैं. इसलिए सिख धर्म अपना कर अकेले शूद्रों ने ही राहत की सांस नहीं ली थी बल्कि महिलाओं ने भी आजादी और जिदंगी के सही माने समझे थे जिन्हें हिंदू धर्म की जकड़न और घुटन से आजादी मिली थी.

 

सिख औरतें बनाम सवर्ण औरतें

15वीं सदी में जब गुरुनानक ने पंजाब में सिख धर्म की नींव रखी थी तब उस में ज्यादातर शामिल होने वाले हिंदू छोटी जातियों के थे. आज उन की अलग पहचान और पूछपरख है तो इस में महिलाओं का योगदान बराबरी का है. सिख धर्म में औरतों को बराबरी का दर्जा हर स्तर पर मिला हुआ है लेकिन हिंदू सवर्ण महिलाएं आज भी भेदभाव और ज्यादती की शिकार हैं. उन के शिक्षित और आत्मनिर्भर होने से इतना भर फर्क पड़ा है कि वे कुछ पैसा अपनी मरजी से खर्च कर सकती हैं.

धर्म कोई भी हो, उस का समाज पर गहरा असर हमेशा रहता है. सवर्ण महिला की स्थिति अभी भी दोयम दर्जे की है. उसे पुरुषों के बराबर आजादी नहीं है और उस की गुलामी का वीभत्स चित्रंण धर्मग्रंथों में मिलता है. हिंदुओं के संविधान मनुस्मृति के अध्याय 2 के श्लोक 66 और अध्याय 9 के श्लोक 181 के मुताबिक, असत्य जिस तरह अपवित्र है उसी भांति स्त्रियां भी अपवित्र हैं. पढ़नेपढ़ाने, वेद मंत्र बोलने या उपनयन का स्त्रियों को अधिकार नहीं. यह शूद्र स्त्रियों के लिए नहीं, सवर्ण स्त्रियों के लिए दिया गया पौराणिक आदेश है.

इसी स्मृति के अध्याय 5 के 154वें श्लोक में निर्देश है कि पति सदाचारहीन हो, अन्य स्त्रियों में आसक्त हो, दुर्गुणों से भरा हो, नपुंसक हो फिर भी स्त्री को उसे देव की तरह पूजना चाहिए. यह आदेश भी सवर्ण स्त्रियों के लिए है. शूद्र और दलितों की स्त्रियां तो हमेशा ही सेवा करती रहेंगी.

जब धर्मग्रंथ शूद्रों की बात करते हैं तो पूरे स्त्री और पुरुषवर्गों की बात करते हैं लेकिन जब बात औरतों की होती है तो उन का अभिप्राय सिर्फ सवर्ण महिलाओं से होता है. तमाम नियमकायदे, कानून, बंदिशें, व्रतउपवास, त्योहार उन्हीं के लिए गढ़े गए हैं जिन्हें वे किसी न किसी रूप में अभी तक ढो रही हैं.

बहुत बारीकी से इस भेदभाव को देखें तो `विद्वानों` के हिंदू राष्ट्र के निर्माणाधीन संविधान में इस बाबत कोई जिक्र ही नहीं है कि सवर्ण हिंदू महिलाओं को क्या दिया जाएगा. बात सच भी है क्योंकि यह किसी राजनीतिक दल का वचनपत्र नहीं है जिस में सभी धर्मों व जातियों की महिलाओं के लिए ढेर से वादे, योजनाएं और सहूलियतें होती हैं. यह गुरुओं का संविधान है जो पुराने संविधानों की नकल होगा और उन में सवर्ण औरतों के लिए क्याक्या है, सरिता के नियमित पाठक यह बेहतर जानते हैं.

सवर्ण महिलाओं के प्रति हिंदू ऋषिमुनियों से ले कर शंकराचार्यों तक के विचार बहुत संकरे रहे हैं ठीक वैसे ही जैसे शूद्रों के प्रति थे कि ये दोनों ही पशुवत हैं. इस कमी को सिख गुरुओं ने डंके की चोट पर दूर किया जिस से पंजाब एक खुशहाल राज्य है. वहां की एक बड़ी कमी धर्मांधता है जो अमृतपाल के जरिए प्रदर्शित हो रही है.

इस नव अलगाववादी का यह सवाल और खयाल चिंताजनक है कि जब हिंदू राष्ट्र की मांग हो सकती है तो निशाने पर सिख ही क्यों? कल को मराठी, बंगाली, गुजराती और उड़िया समेत हर कोई यही मांग हिंसक हो कर करने लगेगा (हालांकि छिटपुट करते भी रहते हैं) तो देश का क्या होगा, यह हर किसी के सोचने की बात है जिस की जड़ में हिंदू राष्ट्र का होहल्ला है. अगर कोई एक कुएं में गिर रहा है तो दूसरे द्वारा उस का अनुसरण करना किसी के भले की बात नहीं.

रही बात पंजाब की, तो इतिहास गवाह है कि धार्मिक हिंसा से सब से ज्यादा नुकसान आम सिखों का ही हुआ है. मुगलों से ले कर अब तक वे ही इस का खमियाजा भुगतते रहे हैं. 1984 के दंगों के जख्म अभी पूरी तरह सूखे नहीं हैं. नुकसान किसानों और युवाओं का भी होना तय है, इसलिए अलगाववादियों को किसी भी स्तर पर प्रोत्साहन, खासतौर से धार्मिक और आर्थिक, नहीं मिलना चाहिए जोकि हिंदू राष्ट्र के नाम पर नवोदित हिंदू गुरुओं को इफरात से मिल रहा है. अब देखना दिलचस्प होगा कि पंजाब में यह जिम्मेदारी कौन लेगा केंद्र सरकार या राज्य सरकार या फिर खुद सिख जो पीढ़ियों से भुक्तभोगी हैं और वर्तमान में सुकून से जीना चाहते हैं.

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