लेखकः भारत भूषण श्रीवास्तव और शैलेन्द्र सिंह

‘एक देश एक चुनाव’ का ढिंढोरा जम कर पीटा जा रहा है जिसे लागू कराने के लिए संविधान में कई संशोधन करने पड़ेंगे, इसलिए हो रहे आम चुनाव में भाजपा को 400 पार की जरूरत है. इस तरह की डैमोक्रेसी से व्यक्तिवाद और तानाशाही के खतरे बढ़ेंगे क्योंकि यह संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है.

भारत जब अपना संविधान बना रहा था उस समय चर्चा का सब से बड़ा विषय यह था कि देश का संविधान कैसा हो? लंबी बहस के बाद यह तय हुआ कि भारत का संविधान उदार हो. समय, काल और परिस्थितियों की जरूरत के हिसाब से उस में संशोधन हो सकें. यह हुआ भी. संविधान लागू होने के बाद 104 संशोधन उस में हो चुके हैं. संविधान के उदार होने का मतलब यह होता है कि देशहित के लिए विचारविमर्श होता रहना चाहिए.

संविधान के इस सिद्धांत के तराजू में ‘एक देश एक चुनाव’ को रख कर देखें तो यह संविधान की मूल भावना के एकदम खिलाफ दिखता है. ‘एक देश एक चुनाव’ असल में ‘एक नेता’ को सामने रख कर गढ़ा गया सिद्धांत है.

हमारे देश के विधानसभा या लोकसभा चुनाव में जनता सब से पहले विधायक और सांसद चुनती है. इस के बाद सब से बड़े दल के सांसद या विधायक अपना नेता चुनते हैं. मुख्यमंत्री पद के लिए राज्यपाल और प्रधानमंत्री पद के लिए राष्ट्रपति महोदय पद और गोपनीयता की शपथ दिलाते हैं. इस के बाद मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की सलाह पर मंत्रिमंडल के नाम तय होते हैं.

हाल के कुछ सालों में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चेहरा पहले से चुने जाने का चलन होने लगा है. असल में यह नेता थोपने की बात है. इस में पार्टी एक चेहरा चुन लेती है. इस के बाद सांसद या विधायक केवल औपचारिकता के लिए सदन में पार्टी मीटिंग के दौरान नाम का प्रस्ताव और समर्थन जैसा दिखावा करते हैं.

‘एक देश एक चुनाव’ भी इसी तरह की औपचारिकता भर रह जाएगी. इस में एक नेता ही अपना चेहरा सामने रखेगा. पूरे देश में उसी के नाम पर चुनाव होगा. भारत विविधता वाला देश है. एक देश एक चुनाव के जरिए इस की खासीयत को खत्म करने का प्रयास हो रहा है.

संविधान संशोधन का अधिकार

भारत के संविधान में संशोधन की प्रक्रिया है. इस तरह के परिवर्तन भारत की संसद के द्वारा किए जाते हैं. इन्हें संसद के प्रत्येक सदन से पर्याप्त बहुमत के द्वारा अनुमोदन प्राप्त होना चाहिए. विशिष्ट संशोधनों को राज्यों द्वारा भी अनुमोदित किया जाना चाहिए.

1950 में संविधान के लागू होने के बाद से इस में 104 संशोधन किए जा चुके हैं. विवादास्पद रूप से भारतीय सुप्रीम कोर्ट के एक महत्त्वपूर्ण फैसले के अनुसार संविधान में किए जाने वाले प्रत्येक संशोधन को अनुमति देना संभव नहीं है.

संशोधन इस तरह से हो कि जो संविधान की मूल सरंचना का सम्मान करे. संविधान की मूल संरचना में किसी तरह का बदलाव संभव नहीं है. संशोधन की शुरुआत संसद में संबंधित प्रस्ताव को पेश करने के साथ होती है जिसे बिल कहा जाता है. इस के बाद उसे संसद के प्रत्येक सदन द्वारा अनुमोदित किया जाता है.

संशोधन के लिए प्रत्येक सदन में इसे उपस्थित सांसदों का दोतिहाई बहुमत प्राप्त होना चाहिए. इस के अलावा सभी सदस्यों का साधारण बहुमत प्राप्त होना चाहिए. विशिष्ट संशोधनों को कम से कम आधे राज्यों की विधायिकाओं द्वारा भी अनुमोदित किया जाना चाहिए. एक बार जब सभी जरूरतें पूरी कर ली जाती हैं तब इस संशोधन पर देश के राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त की जाती है.

मौजूदा केंद्रीय सरकार देश के संविधान की मूल भावना के खिलाफ ‘एक देश एक चुनाव’ को लागू करने के लिए जोर लगा रही है. इस के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया.

एक देश एक चुनाव

‘वन नेशन वन इलैक्शन’ यानी ‘एक देश एक चुनाव’ की संभावना पर विचार करने के लिए बनी समिति का कहना है कि सभी पक्षों, जानकारों और शोधकर्ताओं से बातचीत के बाद उस ने रिपोर्ट तैयार की है. रिपोर्ट में आने वाले वक्त में लोकसभा और विधानसभा चुनावों के साथसाथ नगरपालिकाओं और पंचायत चुनाव करवाने के मुद्दे से जुड़ी सिफारिशें दी गई हैं.

191 दिनों में तैयार 18,626 पन्नों की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 47 राजनीतिक दलों ने अपने विचार समिति के साथ सा?ा किए थे जिन में से 32 राजनीतिक दल ‘एक देश एक चुनाव’ के समर्थन में थे. केवल 15 राजनीतिक दलों को छोड़ कर बाकी 32 दलों ने न केवल साथसाथ चुनाव प्रणाली का समर्थन किया बल्कि सीमित संसाधनों की बचत, सामाजिक तालमेल बनाए रखने और आर्थिक विकास को गति देने के लिए

यह विकल्प अपनाने की जोरदार वकालत की.

रिपोर्ट में ही कहा गया है कि ‘एक देश एक चुनाव’ का विरोध करने वालों ने दलील दी थी कि इसे अपनाना संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन होगा. यह अलोकतांत्रिक, संघीय

ढांचे के विपरीत, क्षेत्रीय दलों को अलगथलग करने वाला और राष्ट्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ाने वाला होगा. ‘एक देश एक चुनाव’ व्यवस्था देश को राष्ट्रपति शासन की ओर ले जाएगी.

समिति के सुझाव

रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली इस समिति में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, कांग्रेस छोड़ गए नेता गुलाम नबी आजाद, 15वें वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एन के सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव डा. सुभाष कश्यप, सुप्रीम कोर्ट में भाजपा के मामलों की पैरवी करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे और चीफ विजिलैंस कमिश्नर संजय कोठारी शामिल थे. इस के अलावा विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर कानून राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अर्जुन राम मेघवाल और डा. नितेन चंद्रा भी समिति में थे. सभी लोग भाजपा समर्थक ही थे, यह नामों से स्पष्ट है.

समिति का कहना है कि सभी चुनाव एकसाथ न कराने से नकारात्मक असर अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाज पर पड़ा है. पहले हर 10 साल में 2 चुनाव होते थे, अब हर साल कई चुनाव होने लगे हैं. इसलिए सरकार को साथसाथ चुनाव के चक्र को बहाल करने के लिए कानूनी रूप से तंत्र बनाना चाहिए. चुनाव 2 चरणों में कराए जाएं. पहले चरण में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एकसाथ कराए जाएं, दूसरे चरण में एकसाथ नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनाव हों.

इन्हें पहले चरण के चुनावों के साथ इस तरह कोऔर्डिनेट किया जाए कि लोकसभा और विधानसभा के चुनावों के 100 दिनों के भीतर इन्हें पूरा किया जाए. इस के लिए संविधान में जरूरी संशोधन किए जाएं. इसे निर्वाचन आयोग की सलाह से तैयार किया जाए.

समिति की सिफारिश के अनुसार, त्रिशंकु सदन या अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति में नए सदन के गठन के लिए फिर से चुनाव कराए जा सकते हैं.

इस स्थिति में नए लोकसभा

(या विधानसभा) का कार्यकाल, पहले की लोकसभा (या विधानसभा) की बाकी बची अवधि के लिए ही होगा. इस के बाद सदन को भंग माना जाएगा. इन चुनावों को ‘मध्यावधि चुनाव’ कहा जाएगा. वहीं 5 साल के कार्यकाल के खत्म होने के बाद होने वाले चुनावों को ‘आम चुनाव’ कहा जाएगा.

आम चुनावों के बाद लोकसभा की पहली बैठक के दिन राष्ट्रपति एक अधिसूचना के जरिए इस अनुच्छेद के प्रावधान को लागू कर सकते हैं. इस दिन को ‘निर्धारित तिथि’ कहा जाएगा. इस तिथि के बाद लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने से पहले विधानसभाओं का कार्यकाल बाद की लोकसभा के आम चुनावों तक खत्म होने वाली अवधि के लिए ही होगा. इस के बाद लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के सभी चुनाव एकसाथ कराए जा सकेंगे.

लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए जरूरी लौजिस्टिक्स, जैसे ईवीएम मशीनों और वीवीपीएटी खरीद, मतदानकर्मियों और सुरक्षाबलों की तैनाती व अन्य व्यवस्था करने के लिए निर्वाचन आयोग पहले से योजना और अनुमान तैयार करेगा. वहीं नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनावों के लिए ये काम राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा किए जाने की बात है.

ये सब बातें वे हैं जिन का न देश की राजनीति से कोई मतलब है न समस्याओं से. ये पौवर गेन का हिस्सा हैं.

क्यों हो रहा विरोध

औल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख और हैदराबाद से लोकसभा सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा, ‘जल्दीजल्दी चुनाव होने से सरकारों को भी परेशानी होती है. वन नेशन वन इलैक्शन से कई तरह से संवैधानिक मुद्दे जुड़े हैं. सब से बुरा यह होगा कि सरकार को 5 साल तक लोगों की नाराजगी की कोई चिंता नहीं रहेगी. यह भारत के संघीय ढांचे के लिए मौत की घंटी के समान होगा. यह भारत को एक पार्टी सिस्टम में बदल कर रख देगा.’

कांग्रेस नेता और कर्नाटक सरकार में मंत्री प्रियांक खड़गे ने भाजपा पर निशाना साधते हुए कहा है, ‘एक देश, एक चुनाव कैसे हो सकता है जब मौजूदा भाजपा सरकार जनादेश को स्वीकार ही नहीं कर रही? क्या पूर्व राष्ट्रपति और समिति के अन्य सदस्यों ने इस साठगांठ से पाए गए बहुमत पर भी कोई सिफारिश की है?’

करना पड़ेगा संविधान संशोधन

‘एक देश एक चुनाव’ को लागू करने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ेगा. इस के लिए कानूनी पैनल बनाया गया है. जस्टिस (रिटायर्ड) रितुराज अवस्थी की अध्यक्षता वाला यह पैनल संविधान में एक नया चैप्टर जोड़ सकता है. असल में इसे संविधान को समाप्त कर देने वाला चैप्टर कहा जा सकता है. इस के जरिए चुनाव आयोग 2029 तक देश में लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव एकसाथ कराने की सिफारिश कर पाएगा. जो जानकारियां मिल रही हैं उन के अनुसार अगले

5 सालों में 3 चरणों में विधानसभाओं को एकसाथ लाने की योजना है. जिस से पहला एकसाथ चुनाव मईजून 2029 में हो सके. तब देश में 19वीं लोकसभा के लिए चुनाव होंगे.

2024 के लोकसभा चुनावों के साथ

5 विधानसभाओं के चुनाव हो रहे हैं. महाराष्ट्र, हरियाणा और ?ारखंड के विधानसभा चुनाव इस साल के अंत में होने हैं.

सिफारिशों के अनुसार ‘एक देश एक चुनाव’ लागू करने के लिए कई राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल घटेगा. मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में हाल ही में चुनाव हुए हैं. इसलिए इन विधानसभाओं का कार्यकाल 6 महीने बढ़ा कर जून 2029 तक किया जाएगा. उस के बाद सभी राज्यों में एकसाथ विधानसभा-लोकसभा चुनाव होंगे. हरियाणा, महाराष्ट्र, ?ारखंड और दिल्ली की सरकार के कार्यकाल में

5-8 महीने कटौती करनी होगी और जून 2029 तक इन राज्यों में मौजूदा विधानसभाएं चलेंगी.

बिहार का मौजूदा कार्यकाल पूरा होगा. इस के बाद का साढ़े 3 साल ही रहेगा. असम, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और पुडुचेरी के मौजूदा कार्यकाल 3 साल 7 महीने घटेंगे. उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर, पंजाब व उत्तराखंड का मौजूदा कार्यकाल पूरा होगा, उस के बाद का कार्यकाल

सवा 2 साल रहेगा. गुजरात, कर्नाटक, हिमाचल, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा का मौजूदा कार्यकाल 13 से 17 माह घटेगा. यह सब जनता के अधिकारों का हनन है पर 400 सीटों के दंभ में इसे लागू कराने के लिए मोदी सरकार कुछ भी कर सकती है.

देश की सभी विधानसभाओं का कार्यकाल जून 2029 में समाप्त होगा. कोविंद कमेटी विधि पैनल से एक और प्रस्ताव मांगेगी, जिस में स्थानीय निकायों के चुनावों को भी शामिल करने की बात कही जाएगी. भारत में फिलहाल राज्यों के विधानसभा और देश के लोकसभा चुनाव अलगअलग समय पर होते हैं. ‘एक देश एक चुनाव’ का मतलब है कि पूरे देश में एकसाथ ही लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हों. मतदाता लोकसभा और राज्य के विधानसभाओं के सदस्यों को चुनने के लिए एक ही दिन, एक ही समय

पर या चरणबद्ध तरीके से अपना वोट डालेंगे.

लोगों को डर आजादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एकसाथ ही हुए थे, लेकिन 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग हो गईं. उस के बाद 1970 में लोकसभा भी भंग हो गई. इस वजह से एक देश एक चुनाव की परंपरा टूट गई.

खर्च की बात करें तो देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अगर एकसाथ कराए जाते हैं तो हर 5 साल में सिर्फ ईवीएम पर 10 हजार करोड़ रुपए अतिरिक्त खर्च होंगे. एक ईवीएम

15 साल ही प्रयोग होती है. यदि एकसाथ चुनाव कराए जाते हैं तो मशीनों के दो सैट बनवाने होंगे. एक सैट का इस्तेमाल 3 बार चुनाव कराने के लिए किया जा सकता है.

यह भी पता चला है कि लोकसभा का कार्यकाल 5 साल से बढ़ा कर 6 साल किया जा सकता है.

यह है मंशा

लोगों को गलत भी नहीं लग रहा है क्योंकि अकसर नेताओं की असल मंशा होती कुछ और है और वे उसे दिखाते कुछ और हैं. बात अगर नरेंद्र मोदी की हो तो यह शक और गहरा हो जाता है. इस का एक बेहतर उदाहरण उन का नोटबंदी का फैसला है जिस की घोषणा करते वक्त उन्होंने 8 नवंबर, 2016 को जनता को भरोसा दिलाया था कि इस से आतंकवाद, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद, जाली करैंसी व कालाधन वगैरह सब बंद और खत्म हो जाएंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, पिछले 8 साल इस के गवाह हैं.

ताजी मिसाल बीती 4 मई को ही पुंछ में हुआ आतंकी हमला है जिस में एयरफोर्स का एक जवान मारा गया और 4 घायल हो गए.

उस के ठीक 4 दिनों पहले छत्तीसगढ़-महाराष्ट्र बौर्डर पर अबू?ामाड़ के जंगलों में नक्सलियों और सुरक्षाकर्मियों की मुठभेड़ में 10 नक्सली मारे गए थे. खबर अच्छी थी लेकिन चिंताजनक इस लिहाज से है कि नक्सली गतिविधियां खत्म नहीं हुईं हैं बल्कि आतंकी घटनाओं की तरह एक अनियमित अंतराल से होती रहती हैं. मारे गए नक्सलियों के पास से हथियारों का जखीरा बरामद होने से तो साबित यही होता है कि नक्सलियों के पास नोटों की कमी नहीं.

ठीक इसी दिन बिहार के मोतिहारी से कोई 13 लाख रुपए के जाली नोट बरामद होने का सिलसिला जारी रहने की पुष्टि हुई थी.

ये कुछ ताजी घटनाएं नोटबंदी के फैसले को जबरन देश पर थोपने की हकीकत बयां करती हुई हैं जिस की असल मंशा उत्तर प्रदेश का 2017 में होने वाला विधानसभा चुनाव था जिस में खासतौर से सपा और बसपा कंगाल हो गए थे और पैसों की कमी के चलते चुनाव हार गए थे.

इस के बाद तो नरेंद्र मोदी की कुछ भी करगुजरने की हिम्मत बढ़ती गई. जब इस फैसले से लोगों का गुस्सा सड़कों पर फूटने लगा था तो 5 दिनों बाद ही वे गोवा में यह कहते रो दिए थे कि मु?ो 30 दिसंबर तक का वक्त दो, इस के बाद अगर मेरी गलती निकल आए तो किसी भी चौराहे पर मु?ो जो चाहो सजा दे देना. उन के आंसू देख जनता जज्बाती हो गई थी और बात आईगई हो गई थी. लेकिन नोट बदलने के चक्कर में सैकड़ों लोग बेमौत मारे गए थे.

इस के बाद ‘एक देश एक टैक्स’ के नाम पर 1 जुलाई, 2017 से जीएसटी लागू कर दी गई. इस की एक वजह लोगों का उन्हें नोटबंदी के फैसले की बाबत माफ सा कर देना भी था. जीएसटी पर देश के व्यापारी आज तक ?ांकते नजर आते हैं. इस से भी, ऐलान के मुताबिक, घपलेघोटाले खत्म नहीं हुए जिस के ताजे उदाहरण हैं 27 अप्रैल को गोरखपुर में एक स्क्रैप व्यापारी सुनील सेठ के यहां पड़ा छापा जिस में लाखों की टैक्स चोरी पकड़ी गई.

इस के कुछ दिनों ही पहले जबलपुर रेलवे स्टेशन के पार्सल विभाग में भी तगड़ी टैक्स चोरी पकड़ी गई थी. टैक्स चोरी जीएसटी के बाद भी बदस्तूर जारी है और लाखों छोटे व्यापारी व कारोबारी इस से कंगाल व तबाह हो गए थे. आम लोग महंगाई से कराहने लगे हैं जो खानेपीने के आइटमों पर भी टैक्स भर रहे हैं. जीएसटी का विरोध भी फुस्स हो कर रह गया तो सरकार को सम?ा आ गया कि कुछ भी करते रहो, बहुत बड़ा विरोध नहीं होगा क्योंकि देश में अंधभक्तों की भरमार है जो मंदिर और हिंदूमुसलिम के चक्कर में उल?ो हां में हां मिलाते रहते हैं. इन लोगों को बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से कोई सरोकार नहीं है.

अब ‘वन नेशन वन इलैक्शन’ की चर्चा पर भी हो वही रहा है जैसा कि सरकार चाहती है कि लोग ?ांसे में आ कर 400 पार करा दें. नई व्यवस्था वजूद में आने के बाद 5 साल कुछ भी करते रहो उस से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. इस के पीछे छिपी मंशा कम ही लोग सम?ा पा रहे हैं कि नरेंद्र मोदी बहुत सधे कदमों से मनमानी की तरफ बढ़ रहे हैं और अपनी मंजिल तक पहुंचने के रास्ते में कोई रोड़ा नहीं चाहते.

अहं ब्रह्मास्मि की तरफ

‘एक देश एक चुनाव’ के जो फायदे आज गिनाए जा रहे हैं वे नोटबंदी और जीएसटी सरीखे ही काल्पनिक व सपने दिखाने वाले हैं. चुनावी खर्च इस से कम होगा, इस की कोई गारंटी नहीं है. सरकार को अगर जनता के पैसे की इतनी ही चिंता है तो पहले उसे अपनी फुजूलखर्ची कम करनी चाहिए. खुद चुनाव आयोग भी बहुत दरियादिली, जिसे बेरहमी कहना ज्यादा सटीक होगा, से पैसा खर्च करता है जिस पर कोई सवाल नहीं उठाता मानो यह कोई धार्मिक अनुष्ठान हो जिस के खर्च के बारे में सवाल करने से ही पाप लग जाएगा.

चुनाव के खर्च पर हालफिलहाल अंदाजा ही लगाया जा सकता है. पिछले 35 सालों से चुनावी खर्च पर नजर रख रहे सैंटर फौर मीडिया स्टडीज के मुताबिक इस बार के चुनाव पर 2019 के चुनाव से दोगुना खर्च हो रहा है. देश में इस वक्त 96.6 करोड़ वोटर हैं. 2019 के चुनाव में प्रतिवोटर 31.52 रुपए खर्च आया था जो कि 60,000 करोड़ रुपए था. अब महज 5 साल में इस से दोगुना खर्च हो रहा है तो इस की एक वजह बढ़ते वोटर और पोलिंग बूथ भी हैं. इन्हें एक देश एक चुनाव में कम नहीं किया जा सकता. दूसरे, कुछ खर्च कम हो सकते हैं लेकिन वे इतने नहीं होंगे कि भारीभरकम बचत हो जाए और देश से गरीबी हट जाए.

अंदाजा यह भी है कि पार्टियों और प्रत्याशियों के खर्च भी इस में जोड़ दिए जाएं तो प्रतिवोटर खर्च हजारों में हो जाएगा. क्या चुनाव आयोग या दूसरा कोई इन पर अंकुश लगा सकता है? जवाब बेहद साफ है कि नहीं. इस बार तीसरे चरण का मतदान आतेआते ही तगड़ा कैश देशभर से बरामद हुआ था जिस से लगा था कि असल ?ां?ाट लगभग 2 महीने तक चलने और 7 चरणों में होने वाले चुनाव हैं जिस की तुक ही सम?ा से परे हैं.

चुनाव पहले भी होते थे और एकदो चरण में संपन्न हो जाते थे. लिहाजा, पैसा कम खर्च होता था. अब तो मतदाता जागरूकता के नाम पर ही मोटा पैसा खर्च किया जा रहा है जो दूसरे कई खर्चों की तरह गैरजरूरी है. तमाम कोशिशों और बेतहाशा खर्च के बाद भी मतदान 60-70 फीसदी पार नहीं कर पा रहा तो इस का उत्तर ‘एक देश एक चुनाव’ नहीं है.

सनातन के नाम पर वोट

एक कड़वा सच यह है कि अब लोगों को चुनाव का औचित्य ही सम?ा नहीं आ रहा कि सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल आखिर किस और किन मुद्दों पर वोट चाह रहे हैं. प्रचार इतना उबाऊ और एक हद तक फूहड़ है कि लोग वोट न डालना ही बेहतर सम?ा रहे हैं. कहने को तो एक विकल्प नोटा है लेकिन वह कोई प्रत्याशी नहीं है जिस का बटन दबाने से खास फर्क पड़ता हो. हाल तो यह है कि खुलेआम धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगे गए, सनातन की रक्षा के नाम पर वोट डालने की अपीलें की गईं, जिस से वोटर का मन उचटा.

इस कथित धर्मनिरपेक्ष देश में 5 मई को भाजपा ने एक विज्ञापन जारी किया था जिस में कहा गया था कि हम महाकाल की तर्ज पर धर्मस्थलों का विकास करेंगे, इसलिए भाजपा को वोट दो. आचार संहिता और संविधान के इस खुले उल्लंघन पर चुनाव आयोग का ध्यान भी नहीं गया, न ही विपक्ष ने कोई एतराज जताया तो चुनाव आयोग की मतदान बढ़ाने की कवायद एक शिगूफा और औपचारिकता ही लगती है.

हालांकि खर्च कम हो सकता है लेकिन वह ‘एक देश एक चुनाव’ के नाम पर ही कम हो सकता है, यह दलील सिरे से न सम?ा आने वाली है.

बारबार चुनावों से होता यह है कि सरकार पर जनता का दबाब बना रहता है कि एक भी गलत या मनमाना फैसला केंद्र और राज्यों से बेदखल कर सकता है ठीक वैसे ही जैसे नोटबंदी के बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा से कई राज्य छिन गए थे. इन में दिल्ली, पंजाब, बिहार, ?ारखंड, सहित मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे गढ़ भी शामिल थे. 2017 के उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में भाजपा अगर काबिज हो पाई थी तो इस की सियासी वजहें थीं. नोटबंदी को भी तब इतना वक्त नहीं हुआ था कि लोगों को इस का खुद की जिंदगी पर पड़ता असर साफतौर पर महसूस होने लगता.

इस के बाद धर्म, मंदिर और जाति की राजनीति की हवा चली तो वह अब तक थमने का नाम नहीं ले रही है. चुनाव प्रचार के दौरान मुद्दे जमीनी कम हवाहवाई ज्यादा हैं, मसलन राम मंदिर, हिंदूमुसलिम और पाकिस्तान वगैरह. ‘एक देश एक चुनाव’ के पीछे मंशा यही है कि इन मुद्दों को एक बार में ही भुना लिया जाए और फिर एक नेता 5-6 साल बैठ कर इत्मीनान से राज करे क्योंकि तब तक जनताजनार्दन के हाथ कटे रहेंगे. किसी मुद्दे या फैसले पर ज्यादा विरोध होगा तो उस नेता के पास उस की अनदेखी करने और सख्ती से निबटने के कई रास्ते होंगे.

तो यह एक एक बड़ी साजिश है जिसे कानून का जामा पहना कर नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि 5 साल उन के अलावा कोई और न दिखे और उन्हें बारबार मेहनत न करनी पड़े. एक ही चेहरा और एक ही नेता नजर आए. अभी तो विपक्ष दिख भी जाता है और उस का दबाव भी सरकार के उलटेसुलटे फैसलों पर रहता है. आशंका इस बात की भी है कि सरकार मनमाने फैसले चुनाव के 2-3 साल बाद तक ले लेगी और चौथेपांचवें साल में मुफ्त के राशन जैसी कोई लोकलुभावनी योजना ले आएगी या जाति की कारपेट फिर बिछा लेगी व हिंदूमुसलिम को बड़े पैमाने पर भुनाएगी जिस से लोग नोटबंदी और जीएसटी की तरह भूल जाएं कि उन का और देश का अहित व नुकसान करते फैसलों का कितना, क्या और कैसा खमियाजा भुगतना पड़ा था.

खतरा एक का

गणित में भले ही एक की अपनी अलग अहमियत हो लेकिन लोकतांत्रिक राजनीति में एक बड़ा खतरा है जो मूलतया तानाशाही का संकेत देता है. इतिहास में जितने भी तानाशाह हुए हैं वे कोई रातोंरात तानाशाह नहीं बन गए थे. जरमनी का एडोल्फ हिटलर, इटली का बेनिटो मुसोलनी, सोवियत संघ का व्लादिमीर इलीइच लेनिन, जोसेफ स्टालिन या चीन का माओ त्से तुंग इन, युगांडा के ईदी अमीन से ले कर इराक के सद्दाम हुसैन तक के कोई दर्जनभर नाम दुनिया के तानाशाहों में शुमार किए जाते हैं.

ये सभी या कोई एक खास किस्म की सनक के लिए तानाशाह बने थे जिस पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह सनक क्या थी, वामपंथी या दक्षिणपंथी. अहम यह बात है कि उन की सनक, जिस से किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ, ने जम कर खूनखराबा कराया, लाशों के ढेर लगा दिए, अनगिनत औरतों को विधवा बना दिया और बच्चों को अनाथ बना दिया. इन्होंने लोगों की आजादी छीनी और दहशत फैलाई.

होता इतना भर है कि इन्होंने और इन की सरकारों ने संवैधानिक सीमाओं को तोड़ते सारे अधिकार अपनी मुट्ठी में कैद कर लिए थे और लोकतंत्र को ध्वस्त कर दिया था. इतिहास बताता है कि आधुनिक यानी तथाकथित लोकतांत्रिक तानाशाहों में और प्राचीन तानाशाहों में बड़ा फर्क होता है. अब तानाशाही का मतलब सामूहिक नरसंहार नहीं बल्कि पूंजी को मुट्ठीभर हाथों को सौंप देना हो गया है और इस के लिए किसी विचार या दर्शन का नहीं बल्कि धर्म का सहारा लिया जाने लगा है, जिस से आम लोग गुलामों की तरह शासक के इशारे पर नाचने लगते हैं. यह भी राजशाही वाली तानाशाही की तरह ही घातक और नुकसानदेह है.

‘एक देश एक चुनाव’ की धारणा तानाशाही की तरफ तीसरा कदम है जिस के लिए 1950 के संविधान की दुहाई चुनावप्रचार के दौरान बारबार दी तो गई जबकि उसी संविधान को तारतार किए जाने की मंशा छिपी हुई है. और इसी से हरकोई चिंतित है.

लोकतांत्रिक तानाशाही में तमाम दक्षिणपंथी शासक भगवान हो जाने की आदिम इच्छा से ग्रस्त होते हैं. लंबे समय तक सत्ता एक ही के हाथ में रहे तो उसे धीरेधीरे अपने भगवान होने का भ्रम होने लगता है. इस भ्रम को विश्वास में बदलने के लिए वह जनता की सहमति लेने को संविधान को अपनी मरजी के मुताबिक ढालने में कोई कसर नहीं छोड़ता.

हिटलर विकट का धार्मिक था और तानाशाही के उत्तरार्ध में शुद्ध नस्ल के आदमी पर जोर देने लगा था. यह एक मूर्खतापूर्ण बात थी जिस का दोहराव मौजूदा शासकों में दूसरे तरीकों से देखने में आता है लेकिन वह धार्मिक सिद्धांतों, जो पूर्वाग्रह ज्यादा हैं, से इतर नहीं है.

सभी धर्म और उन के ग्रंथों का निचोड़ यही है कि ईश्वर एक है, वह सर्वशक्तिमान है, पूजनीय है और अपनी बात अपने प्रतिनिधियों के जरिए कहता है जिन की हैसियत भगवान से कम नहीं होती. हालांकि समयसमय पर नीत्शे जैसे दार्शनिक भी हुए हैं जिन्होंने ईश्वर की परिकल्पना को ही तर्कों से तारतार कर दिया लेकिन नीत्शे जैसे दार्शनिक चूंकि ‘मैं’ पर जोर नहीं देते इसलिए वक्त रहते अप्रांसगिक होते गए.

रूस में व्लादिमीर पुतिन भी लगभग भगवान होते जा रहे हैं और चीन में शी जिनपिंग भी साम्यवादी विचारधारा को ले कर अनियंत्रित होते जा रहे हैं. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप का भगवान होने का भ्रम अब एक खतरनाक जिद में तबदील हो चुका

है जिस के चलते वे अनापशनाप बातें करने लगे हैं. वे जैसे भी हों, जो बाइडेन को अपदस्थ कर सत्ता हथिया लेना चाहते हैं.

यह सारा ?ामेला एक और उस से उपजी सनक ‘मैं’ का है.

भारत में यह अद्वैत दर्शन की वजह से है. नरेंद्र मोदी की मंशा अब विकास या देश चलाना नहीं रह गई है, बल्कि वे अद्वैत को थोपने में जुट गए हैं. अहं ब्रह्मास्मि बृहदारण्यक उपनिषद का एक महावाक्य है जिस की लोकतंत्र में भूमिका की चर्चा सब से पहले एकात्म मानववाद के रूप में जनसंघ के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने की थी. यह दर्शन अंत में अनंत ब्रह्मांड की बात करने लगता है.

लोकतंत्र में धार्मिक दर्शनों या सिद्धांतों की जरूरत ही नहीं है क्योंकि इस में सब की भागीदारी होती है जिसे खत्म कर देने के लिए संविधान को बदलने की बात से ही जिम्मेदार लोग चिंतित हैं.

पहली चिंता जानेमाने अर्थशास्त्री परकला प्रभाकर ने इन शब्दों में जताई-

‘‘अगर नरेंद्र मोदी सरकार दोबारा सत्ता में वापस लौटती है तो आप और चुनाव की उम्मीद मत कीजिए. इस के बाद चुनाव होगा ही नहीं. देश का संविधान और नक्शा पूरी तरह बदल जाएगा. आप लालकिले से नफरत की बातें सुनेंगे जो काफी खतरनाक हैं. जो आज मणिपुर में हुआ वह कहीं और भी हो सकता है. किसानों और लद्दाख जैसा हाल पूरे देश का होने वाला है.’’ प्रभाकर वित्त मंत्री निर्मला सीतारामण के पति हैं और भाजपा में रह चुके हैं. इस नाते भी उन की इस चेतावनी को नजरंदाज करना बुद्धिमानी की बात नहीं कही जा सकती.

निरंकुशता की तरफ

अब औक्सफोर्ड डिक्शनरी के एक शब्द औटोक्रेसी की बात करें तो इस का मतलब होता है कि किसी देश की वह शासन व्यवस्था जिस में एक ही व्यक्ति के हाथों में सारी शासन व्यवस्था होती है. सहूलियत के लिए इसे अधिनायकवाद का पर्याय भी माना जा सकता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अकसर एक पर जोर देते रहे हैं, वन रैंक वन पैंशन, एक विधान एक टैक्स और अब एक देश एक चुनाव इसी सीरीज की अहम कड़ी है. इस में वे घोषिततौर पर लोकतांत्रिक तानाशाह लगते हैं. विपक्ष ने इसे कई बार मुद्दा बनाने की कोशिश की है लेकिन हर बार उस की आवाज को धार्मिक शोर तले बड़ी चालाकी से दबा दिया गया. दबे शब्दों में एक ही धर्म की बात की जाती है क्योंकि दूसरे बड़े धर्म को विदेशी कह दिया जाता है.

इसी से ताल्लुक रखती स्वीडन के गोथेनबर्ग में स्थित वी डेम इंस्टिट्यूट यानी वेरायटीज औफ डैमोक्रेसी की बीती 7 मार्च को जारी एक रिपोर्ट, जिस का शीर्षक है ‘डैमोक्रेसी विनिंग एंड लूजिंग एट द बैलेट’, में कहा गया है कि भारत 2023 में ऐसे टौप 10 देशों में शामिल रहा जहां अपनेआप में तानाशाही या निरकुंश शासन व्यवस्था है.

इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत 2018 में चुनावी तानाशाही में नीचे चला गया और आखिर तक इसी श्रेणी में बना रहा. इस में एक दिलचस्प बात यह भी कही गई है कि इस समूह के 10 में से 8 देश निरंकुशता की शुरुआत से पहले लोकतांत्रिक थे. उन 8 में से 6 देशों- भारत, हंगरी, मौरिशस, कोमोरोस, निकारागुआ और सर्बिया में लोकतंत्र खत्म हो गया. इस लंबी रिपोर्ट में देश की मौजूदा हालत को कुछ यों भी बयां किया गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ बहुलता विरोधी, हिंदू राष्ट्रवादी भाजपा ने उदाहरण के लिए आलोचकों को चुप कराने के लिए राजद्रोह, मानहानि और आतंकवाद विरोधी कानूनों का इस्तेमाल किया. भाजपा सरकार ने 2019 में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम यानी यूपीए में संशोधन कर के धर्मनिरपेक्षता की प्रतिबद्धता को कमजोर किया.

एक मंदिर एक देवता क्यों नहीं

भाजपा के 5 मई को प्रकाशित धार्मिक विज्ञापन ऐसे तमाम आरोपों की पुष्टि ही करता है कि यहां राजनीति धर्म की ही चलती है. बाकी छिटपुट बातें तो खाने में सलाद की तरह होती हैं. धर्मस्थलों के विकास के वादे वाला विज्ञापन सरासर जन प्रतिनिधित्व अधिनयम की धारा 123 (3) को धता बताता हुआ तो था ही, इस में सुप्रीम कोर्ट के 2 जनवरी, 2017 के उस फैसले का भी उल्लंघन भी था जिस में 7 जजों की बैंच ने कहा था कि प्रत्याशी या उन के समर्थकों द्वारा धर्म, जाति, समुदाय, भाषा के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी है. चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष पद्धति है, सो, धर्म, जाति, समुदाय, भाषा के नाम पर वोट मांगना संविधान की भावना के खिलाफ है.

इसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अयोध्या के रामलला मंदिर में साष्टांग थे. हालांकि पूरे चुनाव प्रचार में वे राधेराधे और रामश्याम ही करते रहे थे जिस से उन का कोर वोटर भी ?ाल्ला गया था कि कभीकभार ही सही कुछ तो कायदे की बात करो.

भाजपा का पूरा चुनाव अभियान नरेंद्र मोदी के इर्दगिर्द ही सिमटा रहा था जिसे गोदी मीडिया ने जितना हो सकता था उस से भी ज्यादा स्पेस दिया. हर सीट पर भाजपा उम्मीदवारों ने यही कहा कि चुनाव मोदीजी लड़ रहे हैं आप का वोट उन्हीं को जाएगा. खुद नरेंद्र मोदी ने भी कई बार कहा कि आप का वोट मोदी को मिलेगा.

जब वोट भी एक ही को देना है तो पूरी 542 सीटों पर मोदी खुद ही लड़ लेते तो कोई पहाड़ न टूट पड़ता. एक की रट लगाए वे लगेहाथ यह भी बता देते कि आखिर एक मंदिर एक देवता की बात या व्यवस्था कब की जाएगी जिस से बहुतों को पूजने की ?ां?ाट ही खत्म हो जाए.

लेकिन ऐसा होने नहीं दिया जाएगा क्योंकि ये बहुत से देवीदेवता ही हिंदू धर्म की दुकान के बड़े प्रोडक्ट हैं जिन से श्रेष्ठि वर्ग को रोजगार मिला हुआ है, इसीलिए इन दुकानों को सरकारी खर्चे पर और चमकाया जा रहा है जिस से आमदनी ज्यादा से ज्यादा हो और लोग जातियों में बंटे रहें. इस बाबत पटेल और अंबेडकर तक के मंदिर बना दिए गए हैं.

4 जून के नतीजे क्या होंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन एक देश एक चुनाव की व्यवस्था अगर लागू हो पाई तो देश का क्या हाल होगा, इस का जरूर सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.

 

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