बंगाल में एक छात्र की हुई मौत पर भड़की हिंसा से एक बार फिर यह मुद्दा जोर पकड़ने लगा है कि भारत में छात्र राजनीति गुंडागर्दी का पर्याय और वर्चस्व की लड़ाई का मैदान बन चुकी है. बंगाल समेत देश के कई कालेजों में हिंसक घटनाएं और मौतें इस बात की कैसे तसदीक करती हैं, बता रही हैं साधना शाह.

कुछ दशकों से देश की छात्र राजनीति ने नया मोड़ लिया है. शिक्षण संस्थानों में गुंडागर्दी, पुलिस के साथ हिंसक ?ाड़प और मौत आम हो गई है. बंगाल के विभिन्न जिलों के कालेज व विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ के हालिया हुए चुनावों में से कोई भी शांतिपूर्ण नहीं रहा. कोलकाता के गार्डेनरीच इलाके में हरिमोहन कालेज के चुनाव में खुलेआम गुंडागर्दी व एक इंस्पैक्टर की मौत से साफ हो गया कि बंगाल में शिक्षण संस्थानों का माहौल विषैला होता जा रहा है. इस घटना के बाद राज्य सरकार ने छात्रसंघ के चुनाव पर रोक लगा दी. हालांकि ऐसा कानून व्यवस्था की बहाली के मद्देनजर किया गया था पर हुआ उलटा ही.

चुनाव पर रोक के विरोध में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम के छात्र संगठन स्टूडैंट्स फैडरेशन औफ इंडिया यानी एसएफआई के कार्यकर्ता व समर्थक सड़क पर उतरे. प्रदर्शन और नारेबाजी के दौरान पुलिस के साथ ?ाड़प और फिर छात्रों की गिरफ्तारी हुई. पुलिस कस्टडी में पिटाई के बाद एसएफआई समर्थक सुदीप्तो गुप्तो की मौत के बाद एक बार फिर से कानून व्यवस्था गड़बड़ा गई. और इस पर जम कर राजनीति हुई.

छात्र की मौत के बाद बंगाल ही नहीं, दिल्ली में भी घातप्रतिघात का सिलसिला चला. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दिल्ली गईं तो उन के सहयोगियों के साथ बदसलूकी की गई. एसएफआई समर्थक छात्र की मौत के बाद ममता बनर्जी और राज्य प्रशासन भारी दबाव में थे. लेकिन दिल्ली में एसएफआई के द्वारा हमला व बदसलूकी की घटना ने उन के ऊपर के दबाव को काफी हद तक हलका कर दिया. सुदीप्तो की घटना के बाद मुंह छिपा रही तृणमूल को पलटवार करने का मौका मिल गया. इस से पहले सुदीप्तो की मौत को कैश कराने में सीपीएम ने पूरा जोर लगा दिया था. लेकिन इस से चूक हो गई.

पासा पलट गया

दिल्ली में तृणमूल नेताओं के साथ बदसलूकी के बाद ममता बनर्जी गरजीं और खूब गरजीं. योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और योजना राज्यमंत्री राजीव शुक्ला को जम कर खरीखोटी सुनाई. प्रधानमंत्री के साथ बैठक भी उन्होंने रद्द कर दी. इस का खासा असर बंगाल में देखने को मिला. जगहजगह सीपीएम के दफ्तरों में तृणमूल कार्यकर्ताओं ने जम कर तोड़फोड़ की. पूर्व मंत्री रज्जाक मोल्ला और सुदर्शन रायचौधुरी पर हमला कर तृणमूल ने हिसाब बराबर कर लिया. छात्र मौत से होने वाली तृणमूल की समालोचना की जगह ली सहानुभूति ने.

अन्य राज्य भी अछूते नहीं

बंगाल में ही नहीं, बल्कि पिछले दिनों राजधानी दिल्ली समेत मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के कालेजों विश्वविद्यालयों में छात्र संगठन के चुनाव के दौरान में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति देखने में आई. छात्र संगठन के चुनाव के नाम पर गुंडागर्दी, पुलिस के साथ ?ाड़प, दो गुटों के बीच मारपीट और हत्या का दौर पूरे देश में चला. कुछ दशकों से छात्र राजनीति शिक्षण संस्थानों में गुंडागर्दी का पर्याय बन गई है.

वर्ष 2006 में मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले के माधव कालेज में छात्र राजनीति का सब से अधिक ?ाक?ोर देने वाली घटना घटी. 26 अगस्त, 2006 को माधव कालेज में छात्रसंघ चुनाव के दौरान हंगामा कर रहे छात्रों को जब प्रोफैसर सभरवाल ने टोका तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी एबीवीपी के समर्थक छात्रों व उस के दबंगों ने प्रोफैसर सभरवाल समेत एक और अध्यापक प्रोफैसर नाथ के मुंह पर कालिख पोती और उन की जम कर पिटाई की. इस दौरान सभरवाल को दिल का दौरा पड़ा और उन की मौत हो गई. वारदात के बाद एबीवीपी के नेता विमल तोमर और शशि रंजन समेत 6 लोगों की गिरफ्तारी हुई, पर उन्हें जमानत मिल गई. राज्य की भाजपा सरकार पर आरोपियों को बचाने का आरोप लगा. बहरहाल, 6 में से 1 आरोपी विमल तोमर की संदिग्ध हालत में मौत हो गई.

पिछले साल अगस्त में उत्तर प्रदेश में लखनऊ के कान्यकुब्ज कालेज, कानपुर के डीएवी कालेज समेत गोरखपुर, ?ांसी, आगरा के कालेजों व विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ के चुनाव में बाहुबलियों की बाकायदा धूम रही. हिंसक वारदातों में कालेजोें में बाहरी लोगों के बेरोकटोक प्रवेश का बड़ा हाथ रहा है. बहरहाल, इस के बाद उत्तर प्रदेश के कई शिक्षण संस्थानों में बगैर पहचानपत्र के परिसर मेें प्रवेश पर रोक लगा दी गई. लेकिन इस से गुस्साए सभी छात्र नेता तोड़फोड़ पर आमादा हो गए. 13 अगस्त, 2012 को कानपुर के डीएवी कालेज परिसर में पूर्व छात्र नेता विपिन शुक्ल ने अपने बंदूकधारियों के साथ कालेज में जबरन घुसने का प्रयास किया तो जम कर मारपीट हुई, कई छात्र घायल हुए. वहीं, छात्र राजनीति में वर्चस्व की लड़ाई में गोरखपुर में छात्र नेता सतपाल सिंह और प्रदीप सिंह की हत्या कर दी गई.

छात्र चुनाव ही नहीं, शिक्षण संस्थानों में छात्र अपनी मांग मंगवाने के लिए तरहतरह से दबाव बनाते हैं. वर्ष 2009 में भोपाल के बरकतउल्ला विश्वविद्यालय में अखिल भारतीय छात्र परिषद ने कुलपति का घेराव और हंगामा किया. बाद में कुलपति ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई और विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्रों को नोटिस भी थमाया. मध्य प्रदेश के इंदौर में अहल्याबाई विश्व विद्यालय में कुलपति डा. भागीरथ प्रसाद को पदभार लेने के लिए पुलिस की मदद लेनी पड़ी थी.

सुप्रीम कोर्ट की कवायद

देशभर में छात्र संगठन के चुनाव के दौरान हिंसक ?ाड़प को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट हरकत में आई. शिक्षा संस्थानों में राजनीतिक हिंसा पर लगाम लगाने के लिए 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने लिंगदोह समिति का गठन किया था. समिति की सिफारिशों को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया और इस पर अमल करने के लिए राज्यों को दिशानिर्देश भी जारी किया. हाल ही में राज्य में होने वाली राजनीतिक हिंसा को देखते हुए चुनाव आयोग के पूर्व अध्यक्ष और समिति के अध्यक्ष जे एम लिंगदोह ने अपने एक बयान में कहा कि पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के विभिन्न कालेजों व विश्वविद्यालयों में भी छात्र संगठन के चुनाव में राजनीतिक हिंसा हमेशा से होती रही है लेकिन समिति की सिफारिश के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश से इन राज्यों में हिंसा की वारदातें बहुत कम हो गई हैं.

अभी कुछ समय पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी शांतिपूर्ण माहौल में छात्र संगठन का चुनाव हुआ. लेकिन बंगाल ही अकेला राज्य है जहां समिति की सिफारिशों और सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश को तूल नहीं दिया जा रहा है.

सुदीप्तो की मौत के बाद छात्र राजनीति और छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकार को ले कर नई बहस छिड़ गई है. छात्रों को क्या किसी पार्टी विशेष के एजेंट के रूप में राजनीति करनी चाहिए? छात्रों को राजनीति से तौबा कर लेनी चाहिए या पार्टी विशेष की राजनीति से अलग हो जाना चाहिए? छात्र आंदोलन के मुद्दे क्या हों, राजनीतिक हों या गैर राजनीतिक?

विशिष्ट जनों के विचार

राज्य के जानेमाने राजनीतिक चिंतक अमल मुखर्जी का कहना है कि बंगाल ही नहीं, पूरे देश में छात्र संगठन की कोई निजी सत्ता नहीं है. छात्र संगठन राजनीतिक पार्टियों की छत्रछाया में फलतेफूलते हैं. छात्र संगठन किस राह चलेगा, किस मुद्दे पर क्या रुख अख्तियार करेगा आदि सब राजनीतिक पार्टियां तय करती हैं. मसलन, शिक्षा का व्यवसायीकरण, राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त पाठ्यक्रम, साक्षरता के प्रचारप्रसार, महिला यौन उत्पीड़न और नशीले पदार्थों के सेवन के विरोध में जागरूकता अभियान जैसे बहुत सारे विषय हैं. कालेज-विश्वविद्यालय को राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त करने के लिए छात्र आंदोलन के मुद्दों में बदलाव निहायत जरूरी है.

बोस इंस्टिट्यूट के निदेशक शिवाजी राहा का कहना है कि छात्रों को राजनीति जरूर करनी चाहिए वरना राजनीति में अपराधियों का बोलबाला बढ़ने लगेगा. पर कोलकाता हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश भगवती प्रसाद बनर्जी का कहना है कि छात्रों का एकमात्र लक्ष्य पठनपाठन होना चाहिए. राजनीति करने के लिए नेता हैं. राजनीति में पड़ कर छात्रों का भविष्य और उन की प्रतिभा दोनों नष्ट हो रही है.

ममतापंथी बुद्धिजीवी सुनंद सान्याल, जो इन दिनों राज्य में चल रही हिंसक राजनीति के समालोचक हैं, का कहना है कि राज्य की स्थिति देख कर यही लगता है कि अगले कुछ सालों तक छात्रों को राजनीति से दूर ही रहना चाहिए. राजनीतिक पार्टियां कालेजविश्वविद्यालय के छात्रों को एक बड़े हद तक गुंडा बना रही हैं. शिक्षण संस्थान नेता तैयार करने के अखाड़े में तबदील हो गए हैं. लेकिन राजनीतिक पार्टियों को नेताओं की आपूर्ति करने का काम शिक्षण संस्थान का नहीं हो सकता है. सुनंद सान्याल कहते हैं कि इसी कारण मैं चाहता हूं कि पढ़ाई पूरी करने के बाद अगर किसी को लगे कि उसे राजनीति में जाना चाहिए, तो वह बेशक जाए.

जहां तक राजनीति में छात्रों की शिरकत का सवाल है तो यही कहा जा सकता है कि नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व छात्र ही करते हैं. ऐसे में देश व समाज में घट रही घटनाओं पर उन के विचार जरूर माने रखते हैं. और फिर 18 साल की उम्र में युवाओं को मतदान का अधिकार दिया गया है तो इस से जाहिर है कि देश की युवा पीढ़ी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष चुनाव करती है, ऐसे में छात्रों को राजनीति से दूर रहने की बात करना हास्यास्पद है. हां, इतना जरूर है कि राजनीति का बिजनैस करने वाले नेता जिंदा इंसान के प्राणों की कीमत सम?ों. अगर ऐसा नहीं हुआ तो जाने कितने छात्र राजनीति की बलि चढ़ जाएंगे.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...