हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के दलित शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद पूरे देश में विक्षोभ का ज्वार उमड़ पड़ा है. दलित आक्रोशित हैं, कई शहरों में जुलूस, प्रदर्शन हो रहे हैं और राजनीतिक दलों के बीच सियासत गरमाई हुई है. केंद्र की भाजपा सरकार निशाने पर है. रोहित को जिन हालातों में आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा, वह समाज और व्यवस्था कठघरे में है. आत्महत्या की यह घटना आज 21वीं सदी में देश के शिक्षण संस्थानों में पनप रही जातीय भेदभाव, वैमनस्य की बर्बर और शर्मनाक प्रवृति की पराकाष्ठा है.

हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में पिछले साल से भाजपा के छात्र विंग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद [एबीवीपी] और अंबेडकर स्टूडेंड एसोशिएशन [एएसए] के बीच विभिन्न मुद्दों को ले कर अनबन चल रही थी. एबीवीपी नेता नंदनम सुशील कुमार ने एएसए नेता रोहित वेमुला द्वारा याकूब मेनन को फांसी देने का विरोध करने और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘मुजफ्फरपुर बाकी है’ डौकूमेंटरी के प्रदर्शन को ले कर अपने फेसबुक पर पोस्ट के बाद मामला तूल पकड़ गया. इस पर एएसए के छात्र आंदोलित हो गए और सुशील कुमार से माफी की मांग की.

सुशील कुमार ने विश्वविद्यालय में एएसए छात्रों की गतिविधियों की शिकायत सिकंदराबाद के सांसद एवं केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्री बंडारू दत्तात्रेय से की. इस के बाद बंडारू दत्तात्रेय ने अगस्त माह में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को पत्र लिख कर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय को जातिवादी और राष्ट्रविरोधी अड्डा बताते हुए इन छात्रों के खिलाफ एक्शन लेने का आग्रह किया. इसी दौरान केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने विश्वविद्यालय को एएसए पर काररवाई के लिए एक के बाद एक 5 रिमाइंडर भेजे. इस दबाव के चलते 10 सितंबर को जांच बोर्ड ने रोहित समेत 5 छात्रों संकन्ना, डी प्रशांत, विजय कुमार  और सेसु चेमुदुगुंटा को निलंबन की सजा सुनाई.

रोहित और उस के साथियों को होस्टल से निकाल दिया गया और लाइब्रेरी व परिसर में जाने पर रोक लगा दी गई और रोहित को मिल रही 25 हजार की स्कौलरशिप बंद कर दी गई. इस पर ये छात्र यूनिवर्सिटी कैंपस में खुले में अनशन पर बैठ गए. इन लोगों ने वाइस चांसलर आरपी शर्मा से सजा वापस लेने का आग्रह भी किया. इसी बीच शर्मा की जगह अप्पा राव नए वाइस चांसलर आ गए. 2-2 केंद्रीय मंत्रियों की सक्रियता की वजह से विश्वविद्यालय दबाव में आ गया.

अचानक 17 जनवरी की रात को 26 वर्षीय रोहित द्वारा होस्टल में आत्महत्या करने की खबर आई. इस घटना के बाद मामले की परत खुलने लगी. इस बीच राजनीतिक बयानबाजी और हलचल बढने लगी. विपक्ष के निशाने पर दोनों केंद्रीय मंत्री आ गए. देश के कई हिस्सों में प्रदर्शन होने लगे. हैदराबाद, दिल्ली, लखनऊ, मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों के छात्र विरोध जता रहे हैं. गुंटूर जिले के निकट गुरजला गांव के रहने वाले रोहित के पिता मनीकुमार एक प्राइवेट अस्पताल में सिक्यूरिटी गार्ड हैं जबकि मां वेमुला राधिका टेलरिंग का काम करती हैं. रोहित की एक बड़ी बहन और एक छोटा भाई है. स्टाईपैंड बंद होने से उस पर कर्ज चढ गया था. इस सजा की वजह से रोहित का परिवार आर्थिक संकट में आ गया. प्रतिभाशाली रोहित को अपने सपने चूरचूर होते नजर आने लगे.

रोहित ने आत्महत्या से पहले एक मार्मिक पत्र लिखा. उस ने लिखा था,‘‘मैं हमेशा से एक लेखक बनना चाहता था. विज्ञान का लेखक, कार्ल सगन की तरह. मैं विज्ञान से तारों से, प्रकृति से प्रेम करता हूं पर इस के बाद भी मैं लोगों से प्यार करता हूं. यह जाने बिना कि मेरे लोगों को दूसरे से अलगथलग कर दिया गया है. हमारी भावनाओं को महत्व नहीं दिया जाता. हमारा प्रेम बनावटी है. हमारे विश्वास अंधे हैं. हमारी पहचान झूठी प्रथाओं द्वारा बनाई जाती है. वास्तव में यह बहुत कठिन हो गया है कि बिना दुख का सामना किए प्रेम किया जाए. इंसान की योग्यता उस की तात्कालिक पहचान और निकट संभावनाओं तक सीमित कर दी गई है. वोट के तौर पर.आंकडे के रूप में. वस्तु के तौर पर. व्यक्ति को एक इंसान के तौर पर कभी नहीं लिया जाता. हर क्षेत्र में, शिक्षा में सड़कों पर, राजनीति में और मरने व जीने में हमें अलग कर दिया गया है. मैं इस तरह का पत्र पहली बार लिख  रहा हूं. यह पहला और आखिरी पत्र है. अगर आप के अनुकूल बात नहीं लिख पाया तो मुझे क्षमा कर देना. मेरा जन्म एक खतरनाक दुर्घटना थी. मैं जीवन भर अपने बचपन की तन्हाई से निकल नहीं पाया. मैं एक ऐसा बच्चा था जिसे बचपन से ही दुत्कारा गया. हो सकता है मैं गलत हूं.

मैं तमाम जिंदगी दुनिया को समझ नहीं पाया हूं. प्यार, दर्द, जीवन और मृत्यु को नहीं समझ सका हूं. इस की कोई जल्दी भी नहीं थी पर इस पूरे समय में मैं ने पाया कि कुछ लोगों के लिए जीवन अभिशाप है. मुझे इस समय की चोट नहीं पहुंची, न मैं दुखी हूं. बस मेरे पास कुछ नहीं है, अपने बारे में कोई चिंता नहीं है, यह दयनीय है. यही कारण है कि मैं ऐसा कर रहा हूं. लोग मुझे स्वार्थी, मूर्ख कह सकते हैं पर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं. मैं मौत के बाद की कहानियों में या भूतप्रेत में यकीन नहीं करता. अगर इस संसार में कुछ है जिस पर मेरा विश्वास है वह यह कि मैं तारों की यात्रा कर सकता हूं. और दूसरी दुनिया को जान सकता हूं.

कोई अगर मेरे लिए कुछ कर सकता है तो वह जान ले कि पिछले 7 माह से मुझे स्कौलरशिप नहीं मिली जो कि 1 लाख 75 हजार रुपए बनती है. अगर हो सके तो यह मेरे परिवार को दिलवा देना. मेरे ऊपर 40 हजार रुपए रामजी के उधार हैं. उस ने कभी मुझ से रुपए नहीं मांगे. मेरा अंतिम संस्कार शांति से और सादे तरीके से करना, ठीक उसी तरह जिस तरह मैं इस दुनिया में आया और इस दुनिया से जा रहा हूं. मेरे लिए कोई आंसू मत बहाना. जान लें कि जिंदा रहने के मुकाबले मर कर मैं खुश हूं. भाई उमा, मैं यह सब तुम्हारे कमरे में कर रहा हूं इस के लिए मुझे माफ करना. एएसए परिवार से भी उन्हें मायूस करने के लिए माफी चाहता हूं. आप सब मुझे बहुत प्यार करते हैं, यह मैं जानता हूं. मैं कामना करता हूं कि आप सब का भविष्य सुनहरा हो. अंतिम बार जय भीम.

हां, मैं औपचारिकताएं लिखना भूल गया. मेरी आत्महत्या के लिए कोई भी जिम्मेदार नहीं है. किसी ने भी मुझे ऐसा करने के लिए नहीं उकसाया, न अपने कृत्यों से, न शब्दों से. यह फैसला मेरा है. इस के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं. मेरे जाने के बाद मेरे दोस्तों और दुश्मनों को परेशान मत करना.’’

रोहित का यह पत्र इस देश की दकियानूसी सड़ीगली सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर बहुत कुछ कहता है. थोड़े से शब्दों में उस ने बहुत कुछ बयान कर दिया है. पत्र महज सुसाइड नोट नहीं, समाज की बेशर्मी का आईना है. आंख खोल देने वाला है. उस ने दलित होने की वजह से भेदभाव को ले कर अपनी पीड़ा व्यक्त की है. क्या समाज के ठेकेदार, सियासतबाज इस पत्र की गहराई को समझ कर उस पर मनन कर पाएंगे. नहीं, उन की नजर में यह पत्र महज एक डाइंग डिक्लैयरेशन है और उन के बचाव का रास्ता, जिस में रोहित ने अपनी मौत के लिए किसी को कसूरवार नहीं ठहराया है. पत्र में छिपा दलित होने का दंश, दर्द, महसूस कर पाएंगे.

इस घटना पर मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने प्रेस कांफ्रैस कर के सफाई दी कि रोहित का निष्कासन दलित प्रोफेसर की अध्यक्षता वाली कमेटी का फैसला था. इस बयान के तुरंत बाद हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित प्रोफेसरों ने ईरानी के बयान को झूठ और भ्रामक बताते हुए कहा कि जिस समिति ने रोहित और उस के 4 साथियों के निष्कासन का निर्णय लिया था, उस में कोई भी दलित नहीं था, सारे सदस्य गैरदलित थे. स्मृति ईरानी के बयान के विरोध में विश्वविद्यालय के 15 दलित प्रोफेसरों ने अपने प्रशासनिक पदों से इस्तीफे का ऐलान कर दिया. इन प्रोफेसरों ने कहा कि मंत्री महोदया देश को गुमराह कर रही हैं और मुद्दे को भटका कर जिम्मेदारी से भाग रही हैं. दलित प्रोफेसरों का कहना है कि सच्चाई यह है कि पैनल ने कोई सजा नहीं दी, बल्कि मंत्री की वाइस चांसलर को सिफारिश और दबाव के बाद सजा दी गई.

रोहित की आत्महत्या की घटना कोई नई नहीं है. इस घटना के बाद हिंदू कट्टरपंथी इस बयानबाजी करने लगे मानो वे धर्म की बनाई जाति व्यवस्था और उस की मान्यताओं को बचाव में उतर पड़े हो. इस मामले में संघ और भाजपा की ओर से जिस तरह की बयानबाजी हो रही है उस से उन के ब्राह्मणवादी विचारों की ही पुष्टि हो रही है. सियासी क्षेत्र में ही नहीं, सोशल मीडिया में भी रोहित और उस के दलित छात्र संगठन को दोषी ठहराया जाने लगा. मानो वे कह रहे हों कि एक दलित की मौत उचित ही है. वह जाति व्यवस्था के खिलाफ खड़ा हो रहा था.

हरियाणा के झज्जर में जब मरी हुई गाय की खाल उतारने पर दलितों की हत्या कर दी गई थीं तो विश्व हिंदू परिषद के नेता गिरिराज किशोर ने गाय को दलित से ज्यादा महत्वपूर्ण बताया था. जब से केंद्र में भाजपा सरकार आई है दलितों, अल्पसंख्यकों पर हमले बढे हैं. पिछले करीब डेढ साल में सैंकड़ों घटनाएं हुई हैं जिन में एक दर्जन वारदातों की चर्चा दुनिया भर में पहुंचीं. हर बार इन घटनाओं के पीछे कट्टर हिंदू मानसिकता सामने आई.

भारतीय शिक्षण संस्थानों में छात्रों के बीच जातिगत विद्वेष, हिंसा आम बात है. समाज के वंचित वर्ग को आरक्षण समानता लाने के उद्देश्य से दिया गया था, वही अब भेदभाव का सब से बड़ा कारण बन रहा है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में एमकौम के छात्र उमेश मेहरा का कहना है कि यूनिवर्सिटी में दलित छात्रों के साथ भेदभाव होता है. कौलिजों में एससी, एसटी के छात्र जहां कम होते हैं, और वहां जाति का पता चलता है तो लोग कन्नी काटने लगते हैं. टीचर भेदभाव नहीं करते पर साथी स्टूडेंट करते हैं. जनरल को प्रोब्लम रहती है कि इन का कोटा है. इन्हें अच्छी नौकरी मिल जाती है. अगर 4-5 दलित छात्र मिल कर एक साथ रहते हैं तब तो कोई कुछ कहने की हिम्मत नहीं करता पर अकेले को या पीठ पीछे जाति को ले कर अपमानजनक बातें की जाती हैं. नीची जाति वाले हैं, ये लोग तो रिजर्वेशन वाले हैं. इन्हें तो नौकरी मिल जाएगी.

वाल्मीकि समाज के दिल्ली नगर निगम में इंस्पैक्टर राजेश खैरालिया कहते हैं कि जन्म से भेदभाव शुरू हो जाता है. दलित समाज संगठित नहीं है. हमारे नेता टिकाऊ नहीं, बिकाऊ है. हमें लालच दे दिया जाता है. दलित समाज ने संघर्ष किया है. आजादी के आंदोलन में दलित आगे रहे हैं पर जातीय भेदभाव और शोषण आज भी हमारी नियति है. दुर्गा माता की मूर्ति के लिए वेश्या के घर की मिट्टी उठा ली जाती है पर दलित उस से भी गए गुजरे हैं. अभी दिल्ली सरकार में सब से ज्यादा शिकायतें साफसफाई, कूड़े को ले कर आई है. पीडब्ल्यूडी में ऊंची जाति के लोग काम करते हैं इसलिए इस विभाग की कोई शिकायत नहीं है. सफाई के काम में क्यों नहीं ऊंची जाति के लोग आते. सफाई वाल्मीकि करते हैं और उन के ऊपर सुपरविजन ऊंची जातियों के लोग. यमुना एक्शन प्लान में दिल्ली में कई टौयलेट बनाए गए हैं. उन का ठेका ब्राह्मणों को दिया गया पर सफाई करने का काम वाल्मीकि कर रहे हैं.

दिल्ली विश्वविद्यालय में कर्मचारी राजेंद्र कुमार कहते हैं कि विश्वविद्यालय में हम 12 दलित कर्मचारी हैं. हम एक रहते हैं तो कोई मुंह पर कुछ कहने की हिम्मत नहीं करता पर हमारे साथ भी दोहरा व्यवहार किया जाता है. जी न्यूज में कैमरामैन अशोक कुमार कहते हैं हम लोग भेदभाव महसूस करते हैं.

देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ गया है. भाजपा सरकार आने के बाद वैचारिक संघर्ष की घटनाएं बढी हैं. हिंदुत्व की राजनीति दलित उभार के अस्तित्व में आने के साथ असहज हो रही है. संघ और भाजपा राजनीतिक फायदे के लिए अंबेडकर को अपनाने पर तो उतारू है पर अतीत की सामाजिक व्यवस्था को त्यागने से हिचकिचा रहे हैं. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, आल इंडिया इंस्टीट्यूट औफ मेडिकल साइंसेज [एम्स], एफटीआईआई, जामिया मिलिया, अलीगढ यूनिवर्सिटी जैसे विश्व विख्यात उच्च अध्ययन संस्थानों में संघ और भाजपा दखलंदाजी करने लगे हैं. ऐसे संस्थानों में जातीय वैमनस्य के बीज बोए जा रहे हैं. लोकतांत्रिक मूल्यों और विचारों की स्वतंत्रता को दबाया जा रहा है. पिछले दिनों केंद्र सरकार के एक मंत्री ने गजेंद्र चौहान का विरोध कर रहे एफटीआईआई के छात्रों को नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाला बताया था.

विडंबना है कि जिन उच्च शिक्षण संस्थानों में विचारों की लोकतांत्रिक असहमति जताने की जगह होनी चाहिए, वहां संकीर्णता व्याप्त दिखाई देती है. इसी हैदराबाद यूनिवर्सिटी में पिछले दशक में 8 दलित छात्रों की आत्महत्या दर्शाती हैं कि शिक्षा संस्थानों में सामाजिक विभाजन किस कदर बढ रहा है. रोहित की आत्महत्या के पीछे हताशा थी कि उसे इस व्यवस्था से न्याय नहीं मिल पाएगा.

सवाल है कि सत्ताधारी आज 21वीं सदी में देश को किस सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था से संचालित करना चाहते हैं. राजनीतिबाज इस व्यवस्था को पूरी ढिठाई के साथ सही साबित करने पर तुले दिखाई देते हैं. इस के लिए हिंदुत्व के स्वामियों, बाबाओं, गुरुओं की पूरी जमात है जो हर हिंसा, अमानवीयता, अत्याचार, असहिष्णुता को धर्मसम्मत जायज करार देने के लिए ऐड़ीचोटी का जोर लगा रही है. ये लोग विद्वेष, जातीय श्रेष्ठता को पूरी ताकत के साथ बनाए रखने की वकालत करते नजर आते हैं. भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी रोहित की आत्महत्या को जायज ही ठहरा रहे हैं.

हमारा ऐसा समाज बना दिया गया है जो वैचारिक विभिन्नता को जरा भी बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं रखता. भिन्न विचार वालों से लड़नेमारने पर उतारू दिखता है. हम कैसे समाज का निर्माण कर रहे हैं? क्या विश्वगुरु ऐसे ही बनेंगे? क्या हमें सभ्य कहलाने का हक है?

असल में आज देश भर में विश्वविद्यालयों में पढ रहे दलित छात्रों में जागरूकता आई है. यह जागरूकता मौजूदा जातिवादी व्यवस्था के सामने चुनौती पेश कर रही है. रोहित वेमुला जाति व्यवस्था का भीषण विरोधी था. वह हिंदुत्व विचारधारा का तिरस्कार करता रहा. वह वामपंथी नेताओं पर भी दोहरे मापदंडों का आरोप लगाता था और कांग्रेस व भाजपा को उच्च वर्गीय ब्राह्मण अत्याचारी मानता था. रोहित के पत्र में स्पष्ट है कि वह हिंदू धार्मिक व्यवस्था से बेहद खिन्न है.

दलित छात्रों के ऐसे विचारों से हिंदू धर्म, जाति की कट्टरता के पैरोकार दूसरे विचारों को स्वीकार करने के बजाय हिंसा पर उतारू दिखने लगते हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गणतंत्र दिवस के मौके पर आए हुए फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद के साथ आतंकवाद पर गंभीर मंत्रणा कर रहे हैं, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी हिंसा के उपाय खोज रहे हैं और इस के खिलाफ विश्व जनमत बना रहे हैं पर देश में धार्मिक, जातीय बर्बर सोच का आतंक क्या है? इस पर नियंत्रक के लिए हमारे प्रधानमंत्री कुछ करते नजर नहीं आते. उन संगठनों को सत्ता पक्ष से खुल कर प्रश्रय, प्रोत्साहन मिल रहा है. ऐसे में हम किस मुंह से आतंकवाद से मुकाबले और उस के खात्मे की बात कर सकते हैं?

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