पिछले कुछ महीनों से पैट्रोल व डीजल की कीमतें बारबार घट रही हैं. पहली नजर में यह अच्छी बात है. भारत जैसे विकासशील देश का आमजन इस पूरे प्रकरण से खुश है. एक तरफ आम आदमी को उम्मीद है कि इस से मुद्रास्फीति पर लगाम लगेगी तो दूसरी तरफ सरकार पर सब्सिडी का बोझ कम होगा. लंबे समय से मंदी की मार झेल रही अर्थव्यवस्था में एक हद तक सुधार होगा. लेकिन यह आशंका भी है कि तेल की कीमतों में यह उतारचढ़ाव कहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक नए ‘औयल वार’ का आगाज न साबित हो.
हालांकि तेल को ले कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर की राजनीति अब बीते जमाने की बात हो गई है. पिछले कुछ वर्षों से मंदी की मार झेलने के बाद दुनिया का सारा टंटा अर्थव्यवस्था पर केंद्रित हो कर रह गया है.फिलहाल इस तेल युद्ध में ओपेक और अमेरिका आमनेसामने हैं. खाड़ी युद्ध और क्षेत्र की राजनीतिक अस्थिरता के कारण तेल उत्पादक देशों की अर्थव्यवस्था संकट में है. इस से एक हद तक ओपेक का प्रभाव कम हुआ है. अमेरिका द्वारा शैल गैस का उत्पादन शुरू कर देने के बाद उस की आयात पर निर्भरता कम हो गई है. ऐसे में अमेरिका तेल के खेल पर अपना नियंत्रण चाहता है. वहीं, सऊदी अरब और खाड़ी के अन्य देश इस खेल में किसी तरह अपनी हैसियत बनाए रखना चाहते हैं.
मोटेतौर पर देखा जाए तो पैट्रोल व डीजल की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थिति पर बहुत ज्यादा निर्भर करती हैं. वहीं मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थिति पर नजर डालें तो कीमतों के घटने के बजाय बढ़ने के आसार ज्यादा लगते हैं. पिछले कुछ समय से तेल के मुख्य उत्पादक देश ईरान, इराक, सीरिया, लीबिया, नाइजीरिया आदि में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल है.पूरे पश्चिम एशिया में सक्रिय आतंकी संगठन इसलामिक स्टेट्स औफ इराक ऐंड सीरिया को ले कर दुनिया भर में आतंक छाया हुआ है. फिर भी तेल की कीमत में उल्लेखनीय गिरावट आई है. जून 2013 से ले कर अब तक कमोबेश कीमत में 30-35 प्रतिशत की कमी आई है.
गौरतलब है कि पिछले साल जून में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत प्रति बैरल 115 डौलर तक पहुंची थी. आज कीमत प्रति बैरल 72 डौलर पर पहुंच चुकी है. पिछले 5 महीने में लगभग 40 प्रतिशत कीमत कम हुई है. विशेषज्ञों का अनुमान है कि आने वाले दिनों में यह 50-65 डौलर प्रति बैरल तक घट सकती है. ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि तेल की कीमतों में लगातार गिरावट की आखिर वजह क्या है और इस का सुख कितने समय के लिए है?
तेल के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जो कुछ घट रहा है उस पर हाल ही में एक साक्षात्कार में ओपेक के महासचिव अब्दुल्लाह सलेम अलबद्री ने सट्टेबाजी की भूमिका की ओर इशारा किया है. तेल व प्राकृतिक गैस राजनीति के विशेषज्ञ शांतनु संन्याल का मानना है कि मांग कम होने के पीछे एक बड़ा कारण यूरोप और जापान में मंदी है. वहीं, भारत समेत चीन, ब्राजील, दक्षिण कोरिया, जापान और इंडोनेशिया जैसे बड़े तेल का आयात करने वाले बड़े देशों में विकास की गति धीमी पड़ने से उन की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के चलते तेल की मांग घट रही है.
बहरहाल, बाजार विशेषज्ञों की राय है कि तेल की कीमत में गिरावट का यह सिलसिला अभी जारी रहेगा. उधर, विश्व में प्रतिदिन के तेल उत्पादन में 20 लाख बैरल का इजाफा हो गया है. पर मांग घट रही है. ऐसा क्यों? अर्थशास्त्र के जानकार श्रीकुमार बनर्जी कहते हैं कि पिछले 3-4 सालों से तेल के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एक बड़ा परिवर्तन आया है. अमेरिका अपने यहां बडे़ पैमाने पर तेल का उत्पादन कर रहा है और इस के बल पर अमेरिका जल्द से जल्द सऊदी अरब को पछाड़ कर तेल के अर्थशास्त्र का नियंत्रण अपने हाथों में ले लेना चाहता है.
वर्ष 2009 से कच्चे तेल के आयात पर अमेरिका की निर्भरता कम होने लगी और पिछले वर्ष जुलाई से नाइजीरिया से तेल का आयात अमेरिका ने एकदम बंद कर दिया है. अब अमेरिका खुद शैल गैस का उत्पादन कर रहा है. कनाडा भी इसी रास्ते चलने की तैयारी में है. इस के लिए बहुत बड़े पैमाने पर कनाडा ने निवेश भी कर रखा है. कनाडा औयल सैंड से तेल निकालने की कोशिश में काफी समय से लगा हुआ है.
फंडा तेल पर नियंत्रण का
वर्ष 1940 से 1960 की बात करें तो पहले विश्व बाजार में तेल की आपूर्ति और कीमत पर 84 प्रतिशत नियंत्रण का काम 7 संस्थाएं किया करती थीं, इन में से 6 अमेरिकी संस्थाएं ही थीं. इन बहुराष्ट्रीय संस्थाओं का प्रभाव कम करने के लिए 1960 में खाड़ी के 4 देशों ने मिल कर और्गेनाइजेशन औफ दी पैट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज यानी ओपेक नामक संस्था बनाई, जिस का लक्ष्य तेल के उत्पादन को नियंत्रित करना था.ओपेक के सदस्य देश आपसी सहमति से उत्पादन कम या अधिक कर के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत पर नियंत्रण किया करते थे. आगे चल कर 9 और देश ओपेक के सदस्य बने. इस से तेल के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ओपेक मजबूत हुआ. तेल उत्पादक देशों ने इस के जरिए 1970 के दशकों तक अंतर्राष्ट्रीय बाजार का 54 प्रतिशत नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया. अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जबजब कीमत कम होने का अंदेशा हुआ, ओपेक के सदस्य देशों ने उत्पादन और आपूर्ति कम कर के कीमत को ऊपर बनाए रखा.
लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. एक तरफ तेल का उत्पादन बढ़ा है तो दूसरी तरफ मंदी के प्रभाव के कारण मांग घटी है. जाहिर है तेल की कीमत लगातार गिर रही है. उधर, खाड़ी के देशों में राजनीतिक अस्थिरता के कारण ओपेक अपने तमाम सदस्य देशों को उत्पादन कम करने के लिए राजी नहीं कर पाया. खासतौर पर सऊदी अरब समेत इराक, संयुक्त अरब अमीरात, कतर, कुवैत जैसे खाड़ी के देशों ने इस का विरोध किया.वर्ष 1990 के दशक से ही अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ओपेक का प्रभाव धीरेधीरे घटने लगा. इसी दौरान इराक और ईरान ने अपने यहां उत्पादित तेल का एक बड़ा हिस्सा डौलर के बदले यूरो में बेचने का फैसला किया. इस के बाद विश्व का सब से बड़ा तेल आयात करने वाला देश अमेरिका तेल की आपूर्ति का अन्य स्रोत ढूंढ़ने में लग गया.
चीन, अमेरिका और रूस के बाद भारत चौथा तेल का सब से बड़ा उपभोक्ता है. हमारे देश में पैट्रोल व डीजल की जितनी मांग है, उस का 20 प्रतिशत भी उत्पादन यहां नहीं होता है. यूपीए सरकार के पैट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली द्वारा संसद में पेश किए गए आंकड़े बताते हैं कि मांग का 80 प्रतिशत आयात करना पड़ता है. लेकिन इधर तेल की कीमत में बड़ी कमी हुई है. अकेले 2014 में पैट्रोल की कीमत में लगभग10 रुपए और डीजल की कीमत में लगभग 7 रुपए प्रति लिटर तक की कमी आई है. यहां तक कि बिना सब्सिडी वाले एलपीजी गैस सिलेंडर और विमान में भरे जाने वाले ईंधन की कीमत में भी बड़ी कमी आई है.
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल व प्राकृतिक गैस की कीमत में उतारचढ़ाव से आम आदमी अलग था. इस पर सरकार का नियंत्रण था. आम आदमी को पैट्रोल ईंधन कम कीमत पर उपलब्ध कराने के लिए सरकार इस पर सब्सिडी दिया करती थी. लेकिन 2010 में सरकार ने पैट्रोल की सब्सिडी से हाथ खींच लिया. इस के बाद 19 अक्तूबर, 2014 से डीजल को भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिया गया. अब सरकार केवल केरोसिन और एलपीजी पर सब्सिडी देती है, लेकिन एलपीजी पर आंशिक तौर पर.
अर्थशास्त्र के जानकार श्रीकुमार बनर्जी का मानना है कि मौजूदा स्थिति का लाभ उठाने के लिए जल्द से जल्द रिलायंस और एस्सार जैसी कंपनियां पैट्रोल व डीजल के खुदरा कारोबार में उतरने के लिए कमर कस रही हैं. मौजूदा समय में हर 15 दिन में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पैट्रोल व डीजल की कीमतों की समीक्षा के बाद राज्य सरकार के हिस्से का राजस्व और पैट्रोलपंप मालिकों का कमीशन जोड़ कर कीमत तय होती है.इस समय सऊदी अरब समेत खाड़ी के देश चाहते हैं कि अमेरिका शैल गैस का उत्पादन बंद कर दे. इस समय सऊदी अरब को प्रति बैरल लगभग 30 डौलर का नुकसान हो रहा है. इस आधार पर आंकड़े बताते हैं कि इस समय सऊदी अरब के सालाना राजस्व में लगभग 9 हजार करोड़ डौलर का नुकसान हो रहा है. हालांकि माना यह भी जा रहा है कि यह नुकसान सऊदी शेखों के लिए कोई ज्यादा माने नहीं रखता क्योंकि तेल से हुई आमदनी का अकूत धन इन शेखों के पास है.
बढ़ सकती हैं तेल की कीमतें
अमेरिका जिस फ्रैकिंग तकनीक का इस्तेमाल कर रहा है, वह खर्चीला है और इस से उत्पादन लागत अधिक हो जाती है. ऐसे में प्रति बैरल 72 से 75 डौलर पर बेचने पर ही शैल गैस का उत्पादन करने वाली अमेरिकी कंपनियों का खर्च निकल पाएगा. विशेषज्ञों का एक धड़ा यह भी मानता है कि ज्यादा दिनों तक तेल की कीमत प्रति बैरल 100 डौलर के नीचे घूमतीफिरती रहेगी तो तेल उत्पादन करने वाली बहुत सारी अमेरिकी कंपनियों पर ताला लगना ही है. इस से अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की आपूर्ति कम हो जाएगी और तब कीमत बेतहाशा बढ़ेगी पर अमेरिका अपना तेल उत्पादन बंद करने के लिए राजी नहीं होगा, क्योंकि वह इस में बहुत बड़ी पूंजी झोंक चुका है.
अगर शैल गैस का उत्पादन अमेरिका बंद कर देता है तो एक नए संकट से उस का सामना होगा, बहुतकुछ 2008 में लेहमैन ब्रदर के दिवालिया होने के बाद जैसी स्थिति होगी. और इस का प्रभाव पूरे विश्व पर होगा. जाहिर है अमेरिका इस रास्ते का रुख नहीं करेगा. तमाम रस्साकशी के बाद अब सऊदी अरब चाहता है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत प्रति बैरल 75 डौलर पर टिकी रहे