उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने हैं. हर दल अपने हिसाब से खुद को मजबूत और दूसरे को कमजोर साबित करने में लग गया है. इस को आज की राजनीति में चुनाव प्रबंधन का नाम दिया जाता है. अपने फायदे के लिए ये दल कार्यकर्ताओं की बलि दे कर दूसरे दल के नेताओं को टिकट देने में जुट गए हैं. कई पुराने नेताओं की ‘घर वापसी’ का दौर भी शुरू हो चुका है. ये नेता कुछ साल पहले पार्टी में ‘दम घुटने’ का आरोप लगा कर बाहर हो गए थे. पार्टी छोड़ कर ‘खुले में सांस लेने वाले’ ये नेता अब पुरानी पार्टी में वापस आ कर सुकून की सांस लेने लगे हैं.
मजेदार बात यह है कि पुरानी पीढ़ी के कई नेता अब अपने साथसाथ अपने परिवार, बेटाबेटी को भी राजनीति में जमाना चाहते हैं.
बागी हुए बसपा के साथी
चुनावी राजनीति के इस खेल में 20 साल से बसपा में रहे स्वामी प्रसाद मौर्य ने पार्टी छोड़ दी है. पार्टी छोड़ते वक्त उन्होंने बसपा प्रमुख मायावती पर टिकट के बदले पैसे लेने का आरोप लगाते हुए उन को ‘दौलत की बेटी’ कहा था. मायावती के लिए यह कोई नई बात नहीं है. इस के एक नहीं कई उदाहरण सामने हैं. बहुत पुराने समय में न जाएं, तो भी हाल के दिनों में ऐसे तमाम नेताओं के नाम लिए जा सकते हैं. आरके चौधरी, मसूद अहमद, दीनानाथ भास्कर, बाबू सिंह कुशवाहा, अखिलेश दास और जुगुल किशोर प्रमुख नाम हैं. बसपा के नेता पार्टी में रहते हुए जब चुनाव जीत जाते हैं, तो वे इसे अपनी ताकत समझ लेते हैं. असल में इन नेताओं को जो वोट मिलते हैं, वे बसपा के नाम पर मिलते हैं. पार्टी छोड़ कर यही नेता जब बाहर होते हैं, तो इन को जनाधार का पता चलता है. ये दूसरे नेताओं की सीट जितवाने का दावा जरूर करते हैं, पर खुद अपनी सीट पर भी चुनाव नहीं जीत पाते हैं.
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