अब कहां पहले सी सामाजिक असमानता और जमींदारी रही, अब तो आदिवासी मुख्यधारा से जुड़ कर सुविधाजनक जिंदगी जी रहे हैं, उनके बच्चे पढ़ने स्कूल जाने लगे हैं, आदिवासियों के हाथ में अब तीर कमान नहीं बल्कि सेलफोन हैं और तो और अब उनका पहले जैसा शोषण भी नहीं होता, जैसी बातें करने वाले लोग कभी बस्तर गए हों ऐसा लगता नहीं, इसलिए उन्हें अपनी यह गलतफहमी दूर करने एक दफा बस्तर जरूर जाना चाहिए, वहां के जंगलों में बसे इन आदिवासियों की जिंदगी को नजदीक से देखना चाहिए तब शायद उन्हें समझ आए कि सब कुछ ज्यों का त्यों है और जो बदलाव आए बताए जाते हैं उनकी छोटी सी झलक धमतरी नाम के कस्बे तक ही ढूंढने पर ही दिखती है.
बीती 24 अप्रेल को सुकमा के नक्सली हमले में फिर एक बार सीपीआरएफ के 25 जवान मारे गए तो एक बात और प्रमुखता से कही गई कि अब तो नक्सली वसूली करने लगे हैं और नक्सलवाद कोई मुहिम नहीं, बल्कि एक धंधा बन चुका है, इसलिए सरकार को देर न करते हुये तुरंत वैसी सर्जिकल स्ट्राइक करनी चाहिए जैसी 18 सितंबर 2016 को जम्मू कश्मीर के उरी में सैनिक कैंप पर हुये आतंकी हमले में 20 सैनिकों के शहीद होने के बाद की थी. इस मुहिम में आतंकी ठिकानों पर सैन्य हमला करके उन्हें धव्स्त कर दिया गया था.
यह सुझाव या आइडिया नहीं बल्कि माओवादियों के खिलाफ एक स्वभाविक आक्रोश भर है जिसे पेश करने वाले लोग न तो नक्सली इतिहास से वाकिफ लगते हैं और जैसा कि ऊपर बताया गया कि न ही आदिवासियों की शाश्वत बदहाली से परिचित हैं. इसमे उनकी कोई खास गलती भी नहीं क्योंकि यही लोग महसूसते भी हैं कि अगर माओवादियों को खत्म करना अगर इतना आसान काम होता तो वह कभी का हो चुका होता. तो फिर दिक्कत क्या है और क्यों सरकार और उसका भीमकाय दिखने वाला तंत्र नक्सलियों के सामने कमजोर पड़ जाता है.