पिछले 3 जनवरी को राजद सुप्रीमो लालू यादव अपने लाव-लशकर के साथ आईजीआईएमएस (इंदिरा गांधी इंस्टीच्युट और मेडिकल साइंस) का मुआयना करने पहुंच गए. अस्पताल के अपफसरों में हड़कंप मच गया. अस्पताल के ओपीडी में डाक्टरों के गायब रहने और गंदगी को लेकर उन्होंने अपफसरों की जम कर क्लास लगाई. उसके बाद विरोधियों ने नीतीश की खिंचाई शुरू कर दी है.

इसके पहले 24 नवंबर को लालू ने नीतीश कुमार की महादलित की नीति को पलट दिया. उन्होंने ऐलान कर दिया कि बिहार की सभी दलित जातियों को महादलित की सुविधाएं मिलेंगी. इससे राज्य सराकर की विकास योजनाओं को आखिरी आदमी तक पहुंचाने में मदद मिलेगी. राजद कार्यालय में पार्टी के विधायकों की बैठक में उन्होंने इस बात का ऐलान करते हुए नीतीश कुमार को सलाह दे डाली की सभी दलित जातियों को महादलित जातियों के बराबर सुविधएं मिलनी चाहिए. जदयू के कई नेता दबी जुबान से कह रहे हैं कि लालू को इस तरह के ऐलानों और सलाहों से बचना चाहिए, नहीं तो महागठबंधन में दरार पड़ सकती है. ऐसे मसलों को महागठबंधन के नेताओं विधायकों की बैठकों में उठाना चाहिए, न कि खुले मंच से मनमाने तरीके से ऐलान करना चाहिए.

नीतीश और लालू ने मिल कर चुनाव में कामयाबी तो हासिल कर ली है, लेकिन अब यह देखने वाली बात होगी कि सरकार चलाने मे दोनों के बीच कितना ओर कैसा तालमेल बन पाता है? नीतीश और लालू को जानने वाले साफ तौर पर कहते हैं कि लालू और उनके परिवार के महत्वाकांक्षाओं को बोझ उठाना नीतीश के लिए सबसे बड़ी चुनाती है.

नीतीश कुमार बात-बेबात दावा दावा करते रहे हैं कि महागठबंधन की सरकार सरपट चलेगी और कोई रूकावट नहीं आएगी. दूसरी ओर लालू यादव बार-बार सफाई दे रहे हैं कि अब बिहार की केवल तरक्की होगी और किसी को भी कानून को हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जाएगी.

जदयू के एक बड़े नेता को इस बात का डर है कि लालू नीतीश सरकार पर हावी हो सकते हैं. लालू की महत्वाकांक्षा को काबू में रखना नीतीश कुमार के लिए आसान नहीं होगा. अपने बेटों तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री के साथ पीडब्ल्यूडी मंत्री और तेजप्रताप यादव को हेल्थ मिनिस्टर बना लालू ने नीतीश सरकार पर अपना कब्जा बना लिया है.

लालू यादव अगर सच्चे मन से नीतीश का साथ देते हैं तो नरेंद्र मोदी के अच्छे दिन का वादा पूरा होने में भले ही देर लगे लेकिन बिहार और बिहारियों के लिए अच्छे दिन आने में देर नहीं लगेगी. लालू यादव कहते हैं कि पिछले 10 सालों से नीतीश बिहार की तरक्की की कोशिशों में लगे हुए हैं, इसलिए उन्हें वह पूरा सहयोग देंगे. कभी लाठी रैली में यकीन रखने वाले लालू इस बात का पूरा ख्याल रख रहे हैं कि उनसे मिलने आए किसी भी नेता, समर्थक या कार्यकर्ता के हाथों में लाठी, पिस्तौल, रायपफल या बंदूक नहीं हो. इसके अलावा लालू ने पार्टी के झंडा और बैनरों को गाडि़यों पर लगाने के लिए भी सख्त मनाही की है.

यह सच है कि बिहार के 37वें मुख्यमंत्री बनने वाले नीतीश कुमार 5वीं बार राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पिछले 18 सालों से अपने धुर विरोधी लालू यादव की मदद से बैठे हैं. सूबे की सियासत में लालू को हाशिए पर ढकेलने वाले नीतीश ने ही उन्हें फिर से बिहार से लेकर दिल्ली तक सत्ता के केंद्र में ला दिया है. गौरतलब है कि लालू और नीतीश पिछले 24 सालों से लगातार बिहार की सियासत की धुरी बने हुए हैं और पिछले 20 सालों से वे एक दूसरे की विरोध की राजनीति करते रहे हैं. आज दोनों जिस किसी भी सियासी मजबूरियों की वजह से फिर से साथ मिले हैं और बिहार विधन सभा में उन्हें कामयाबी मिलने के बाद तो उत्तर भारत की सियासत में नया विकल्प पैदा करने की उम्मीद जगने लगी है.

ताजा विधन सभा चुनाव में लालू-नीतीश के गठजोड़ ने साबित कर दिया है कि उसके पास वोट है. 243 सदस्यों वाले बिहार विधन सभा में महागठबंधन के पाले में 178 सीट हैं. इसमें जदयू की झोली में 71, राजद के खाते में 80 और कांग्रेस के हाथ में 27 सीटें गई हैं. नीतीश की पार्टी जदयू को 16.8, राजद को 18.4 और कांग्रेस को 6.7 पफीसदी वोट मिले जो कुल 41.9 पफीसदी हो जाता है. ऐसे में महागठबंधन को फिलहाल किसी दल या गठबंधन से चुनौती मिलना दूर की कौड़ी ही होगी.

फिलहाल तो 90 के दशक वाले लालू और आज के लालू में काफी फर्क नजर आ रहा है. पहले लालू की सोच थी कि वोट तरक्की से नहीं, बल्कि जातीय गोलबंदी से मिलती है, पर इस बार लालू भी नीतीश के सुर में सुर मिला कर तरक्की की रट लगाने लगे हैं. लालू के बेटे और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव कहते हैं कि सरकार का इकलौता एजेंडा बिहार की तरक्की है. अभी तो सरकार ने काम करना शुरू ही किया है, जल्द ही अच्छे नतीजे सामने आएंगे तो सारे विरोध्यिों की जुबान पर ताला लग जाएगा.

बिहार के सियासी मामलों के जानकार और चिंतक हेमंत राव कहते हैं कि अपराध और भ्रष्टाचार पर नकेल कस कर ही नीतीश सरकार जनता की उम्मीदों पर खरे उतर सकती हैं. नीतीश के लिए सबसे बड़ी चुनौती और खतरा लालू यादव की महत्वाकांक्षा और उनके परिवार को आगे बढ़ाने की ललक होगी. अब यह देखना होगा कि लालू की महत्वाकांक्षाओं, उनके ठेठ गवंई अंदाज और मुंहपफट अंदाज को नीतीश कितना और कब तक बर्दाश्त कर पाते हैं? जिस नीतीश को भाजपा से 17 साल पुराना नाता तोड़ने में जरा भी देरी और हिचक नहीं हुई वह लालू कितने दिनों तक दोस्ती निभा पाते हैं?

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