प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बढ़ती नज़दीकियों से चिंतित लोहियावादियों और तीसरी ताकतों के मुखियाओं के लिए यह बात सुकून देने वाली है कि कम से कम समान नागरिक संहिता के संवेदनशील मुद्दे पर नीतीश मोदी सरकार के साथ नहीं हैं. दूसरे लफ्जों में कहें तो सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने का दम भरने बाले राजनैतिक दलों के समूह में बने हुये हैं.

कई दिग्गज नेताओं सहित राजद प्रमुख लालू यादव ने निश्चित रूप से राहत की सांस ली होगी जब नीतीश ने राष्ट्रीय आयोग के चेयरमेन जस्टिस बीएस चौहान को लंबा चौड़ा पत्र लिखते यह मंशा जताई कि समान नागरिक संहिता जबरन थोपी ना जाये. यह अलग बात है कि अपने पत्र में नीतीश ज्यादा आक्रामक नहीं हुये. उनकी असहमति का मजमून और भाषा बड़ी शिष्ट है, जिसका कुछ हिस्सा जवाहरलाल नेहरू की किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया से लिए लगते हैं, पर भाषा से ज्यादा अहम विचार हैं, जिनमे यह तो उन्होंने जता ही दिया है कि जिन मुद्दों पर उनका सियासी वजूद खड़ा है, उनसे कोई समझौता कर वे अपनी जमीन नहीं खोना चाहते.

गौरतलब है कि सिक्खों के त्योहार प्रकाशपर्व पर नरेंद्र मोदी जब पटना गए थे, तब उन्होंने बिहार की शराबबंदी की खुलकर तारीफ की थी. इसके पहले नीतीश नोट बंदी से इत्तफाक जताते कईयों को चौंका चुके थे. गौरतलब यह भी है कि ये वही नीतीश थे, जिन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी को सबसे ज्यादा कोसते उनकी प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी को बहुत बड़ा खतरा बताया था. मोदी नीतीश के बीच मे तब कड़वाहट का आलम यह था कि लोग डरने लगे थे कि कभी कहीं ये दोनों आमने सामने पड़ गए तो एक दूसरे की गिरहवान ना पकड़ लें. गंगा जी का बहुत सारा पानी बह जाने के बाद जब दोनों में गुटरगूं शुरू हुई तो एक बारगी दोनों शोले फिल्म के जय और वीरू जैसे दोस्ताने पर उतरते नजर आने लगे थे.

कई लोग इस राजनैतिक दोस्ताने को देख हैरान भी थे कि कल के इन प्रतिद्वन्दियों के बीच यह कौन सी नई खिचड़ी पक रही है. तब कहने वाले यह कहने से भी खुद को नहीं रोक पा रहे थे कि जल्द ही नीतीश लालू को छोड़ भाजपा का दामन थाम लेंगे. बहरहाल समान नागरिकता के मुद्दे पर 5 राज्यों के विधान सभा चुनाव के पहले नीतीश ने अपना रुख साफ करते संकेत तो दे दिया है कि वे तीसरी ताकत से कटना नहीं चाहते, पर सच यह भी है कि राजनीति में कब दुश्मन दोस्त और दोस्त दुश्मन बन जाये कहा नहीं जा सकता.  

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