पीता हूं गम भुलाने को

बॉलीवुड में कपूर खानदान का शराब से वही नाता रहा है जो अस्सी के दशक में टीवी का एंटीना से हुआ करता था जिसे ऊपर छत पर जाकर बार बार न घुमाओ तो नीचे स्क्रीन पर मच्छर आने लगते थे. मय से कुछ इसी तरह का मकसूद साबित करते हुये अभिनेता ऋषिकपूर ने लाक डाउन के इस नश्वर दौर में सुरा प्रेमियों का दिल यह कहते जीत लिया है कि कोरोना ने पूरी दुनिया में कोहराम मचा रखा है, हजारों लोग अपनी जान गवां चुके हैं और ये सिलसिला थमने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है हिंदुस्तान में भी तेजी से आंकड़े बदल रहे हैं….. बगैरह बगैरह…

नवरात्रि की उपासना के दिनों में ऋषि के इस फलाहारी प्रस्तावना या भूमिका कुछ भी कह लें का उत्तरार्ध बड़ा मदहोश कर देने बाला था कि सभी राज्य सरकारों को चाहिए कि वे शाम के वक्त शराब की दुकानें खोल दें. ज़िंदगी भर बिना नागा रोज शाम को गला तर करते रहने बाले इस प्रतिभाशाली हीरो ने दलीले भी दीं कि लाक डाउन के चलते लोग डिप्रेशन में आ रहे हैं जो एल्कोहल से ही दूर हो सकता है. दिन रात बैल की तरह काम में जुते डाकटरों और पुलिस बालों को भी तनाव मुक्त रखने यह उमर खैयामी पेय बड़ा कारगर साबित होगा और इतना ही नहीं सरकारों को भी राजस्व खूब मिलेगा जिससे वे कोरोना से लड़ सकती हैं .

इस पर उम्मीद के मुताबिक भक्त टाइप के लोग भड़के और सोशल मीडिया पर ऋषि को ट्रोल करने लगे लेकिन तीर कमान से निकल चुका था और पियक्कड़ इसकी मीठी चुभन सीने में महसूस करने लगे थे. यह आइडिया पीने बालों ने पसंद किया तो बात में दम इस लिहाज से भी था कि जब सरकार सालों पुरानी रामानन्द सागर कृत रामायण का अफीमी नशा फोकट में करा रही है तो पैसा उगलने बाली असली शराब को दुकानों से बेचने में कहां का पहाड़ टूट जाएगा और ऋषि कपूर यह भी गलत नहीं कह रहे कि आखिर शराब ब्लेक में तो बिक ही रही है.

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दारू के हिमायती इस अभिनेता के प्रशंसको को बरबस ही कुली फिल्म का उन्हीं पर फिल्माया  यह हिट गाना याद हो आया, मुझे पीने का शौक नहीं पीता हूं गम भुलाने को…. अब सरकार को चाहिए कि वह लोगों का लाक डाउनी गम दूर करने शाम को शराब बिकने दे और कथित नैतिकता के चलते ऐसा नहीं कर सकती तो रामायण का भी प्रसारण बंद करे जिससे सभी को डिप्रेशन बराबरी से महसूस हो , कम से कम यहां तो भेदभाव न हो.

बक़ौल एक भूतपूर्व पियक्कड़ सीएम

कभी गांधी परिवार के खासमखास रहे छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री की उपाधि से विभूषित अजीत जोगी ने शायद ही नहीं तय है ऋषि कपूर के बयान से इत्तफाक नहीं रखा इसलिए ट्वीट कर मध्यप्रदेश के चौथी बार ताजे ताजे मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह से गुजारिश की कि मध्यप्रदेश में लाक डाउन के बाबजूद भी शराब की दुकानें खुली हुई हैं और उनसे धड़ल्ले से शराब बिक भी रही है. इससे संकर्मण फैलने का खतरा है लिहाजा ये दुकानें छतीसगढ़ की तर्ज पर बंद की जाएं. अब आप सोचेंगे इसमें नया क्या है राजनीति में ऐसा तो होता ही रहता है कि नेता जनता की फिक्र का दिखावा करते रहते हैं.

इस मामले दो बातें निहायत ही गौरतलब हैं जिनमे से पहली यह है कि पानी तक नीट पीने बाले सात्विक प्रवृती के शिवराज सिंह ने फौरन जोगी के ट्वीट को नरेंद्र मोदी के हुक्म सा माना और शराब की दुकानों को बंद करने के आदेश दे दिये. इससे केवल शराबियों का ही दिल नहीं टूटा बल्कि कोरोना के कहर और लाक डाउन के डिप्रेशन को झेल रहे कई गैर- शराबियों को भी सदमा लगा. अजीत जोगी और शिवराज सिंह के सियासी ताल्लुक दो समानान्तर रेखाओं जैसे रहे हैं जो कभी मिली ही नहीं और न ही जिनके कभी मिलने की उम्मीद है फिर भी शिवराज ने  उनका मान यह जताने रखा कि मध्यप्रदेश में तो विपक्ष रहा नहीं इसलिए पड़ोसी राज्य के दिग्गज की सच्ची सलाह वे मान रहे हैं.

अब बात अजीत जोगी की, जिनकी प्रशासनिक क्षमता कभी किसी सबूत की मोहताज नहीं रही.  एक निर्धन आदिवासी परिवार के अजीत जोगी ने इंजीयरिंग की पढ़ाई के बाद आईपीएस और आइएएस बनकर एक मिसाल कायम कर दी थी लेकिन सियासी समझ में वे धोखा खा बैठे थे और उसी थाली में छेद करने लगे थे जिसमें उन्हें छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री पद की डिश थाल में सजी मिली थी जो एक ब्राह्मण के हिस्से में जाना थी.

कांग्रेस से ससम्मान उनकी फैयरबेल हुई तो वे जोश जोश में नई पार्टी बना बैठे जिसे आदिवासी बाहुल्य इस राज्य ने नकार दिया . 2018 के विधानसभा चुनाव में बहिन मायावती से हाथ मिलाने के बाद भी भी बाजी कांग्रेस के हाथ चली गई जिससे साबित हो गया कि अब उनके पास कलेक्टरी और मुख्यमंत्रित्व काल के संस्मरण भर रह गए हैं.

इसी सियासी बेगारी के दौर में उन्होने शायद महात्मा गांधी की किताब सत्य के साथ मेरे प्रयोग कुछ ज्यादा ही पढ़ डाली लिहाजा जनवरी 2019 में उनके सर पर सच बोलने का भूत सवार हो गया और एक दिन उन्होने यह रहस्योद्घाटन (जो हर किसी को पहले से ही मालूम था) कर डाला कि वे भी खूब शराब पीते थे अपने गांव में भी और विदेश जाते थे तब भी छककर पीते थे .

अब यह और बात है कि लोगों ने इस पर भी उन्हें महान मानने से इंकार कर दिया बाबजूद उनके यह तक कहने कि शराब बहुत खराब चीज है इससे घर के घर बर्बाद हो जाते हैं, 200 एकड़ रकबे की जमीन बाला किसान भी फुटपाथ पर आ जाता है और उन्होने शराब कुछ बनने के लिए छोड़ी थी. अब लाक डाउन के बहाने मध्यप्रदेश में शराब की दुकाने बंद करवाने का श्रेय उन्हें मिल गया है फिर भले ही ये दुकाने दिखने को ही बंद हुई हों. अब यह पूछना शराब की हिमायत जैसी हिमाकत ही होगी कि जोगी जब तक पीते रहे तब तक तो कुछ न कुछ बने रहे लेकिन जैसे ही पीना छोड़ा तो जो थे वह भी न रहे.

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सरकार की अग्निपरीक्षा  –

हजारों की तादाद में दिल्ली सहित देश के कई बड़े शहरों से मजदूर जत्थे बनाकर किसी भी कीमत पर घर जाने आमादा हो आए हैं तो लाक डाउन की कथित सफलता मिट्टी में मिलती दिखाई दे रही है . दिल्ली का आनंद बिहार नाम का स्थान तो शाहीन बाग जैसा चर्चित हो रहा है जहां भूखे प्यासे लोगों के मुंह से बस यह निकलना ही बाकी रह गया है कि …. . भूखे पेट लाक डाउन के नियमों का पालन नहीं होता. उत्तरप्रदेश और बिहार के लोग अब किसी की सुनेंगे ऐसा लग नहीं रहा. ये न तो किसी आदित्यनाथ की सुन रहे हैं और न ही नीतीश कुमार की और न ही हेमंत सोरेन या अरविंद केजरीवाल की कि भैया रुक जाओ हम खाने पीने और ठहरने के मुकम्मल इंतजाम कर रहे हैं.

हुआ सिर्फ इतना है कि नोट बंदी की तरह लाक डाउन के निशाने पर भी इत्तफाक से ही सही  गरीब दलित और आदिवासी ही आए हैं. यही बात 19 मार्च को यूं ही कही गई थी तो भक्तगण गदा लेकर चढ़ाई करने आमादा हो आए थे कि आप निहायत ही नालायक और वामपंथी टाइप के जीव हैं, मोदी जी तो देश को कोरोना के कहर से बचा रहे हैं और आपको ठिठोली सूझ रही है.

अब जब सच सामने है तब भी भक्त इन दबे कुचलो को ही यह कहते कोस रहे हैं कि ये लोग तो पैदाइशी कमअक्ल और जाहिल हैं जो कोरोना की वीभत्सता और भयावहता नहीं समझ रहे.  उधर इन हजारों सुदामाओं को समझ आ गया है कि मक्खन मलाई तो कृष्ण लोग सोशल डिस्टेन्सिंग के नाम पर सूँतते अपना सूतक काल काट रहे हैं और हमे सूखे चने भी नसीब नहीं हो रहे तो मरने वतन ही चला जाये आगे जो होगा सो देखा जाएगा . और देखना हमे नहीं है बल्कि उन्हें देखना है जो मौत से हमसे ज्यादा भयभीत हैं.

अब जो होगा वह लगभग अप्रिय ही होगा लेकिन इस समूहिक पलायन से एक बात जरूर उजागर हो गई है कि संक्रामक बीमारियाँ आमतौर पर अमीरों को ही लगती हैं. प्लेग और चेचक जैसी बीमारियों का इतिहास इसका गवाह भी है. कोई बड़ी संक्रामक बीमारी या महामारी कभी स्लम्स से नहीं फैलती बल्कि पक्के मकानों में उसकी पैदाइश और परवरिश होती है फिर उसकी दवा और वेक्सीन ईजाद हो जाते हैं लेकिन इतिहास यह भी बताता है कि जाते जाते ये बीमारियाँ कई गरीबों को बदहाली से हमेशा के लिए मुक्ति दिला जाती हैं.

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क्या गरीब मजदूरों की इस भीड़ को यह बात समझ आ गई है , इस सवाल पर भले ही किसी शोध की जरूरत हालफिलहाल न पड़े लेकिन यह तय है कि ये लोग सरकार पर भरोसा नहीं कर रहे , यह जरूर सरकार की विफलता है.

ये लोग पूरी सब्जी के लालच में नहीं रुक रहे हैं तो साफ यह भी कि इनकी छठी इंद्रिय ने इन्हे आगाह कर दिया है कि कोरोना का कहर आखिरकार टूटेगा तो इन्हीं पर क्योंकि लाक डाउन यानि वैज्ञानिक छुआछूत के नाम पर इनका संपर्क समाज के उस वर्ग से तोड़ दिया गया है जिसके पास सालों साल का राशन पानी है . इन्हें तो अन्न देवता और लक्ष्मी देवी बचा लेंगे  लेकिन हमें बचाने कोई काली या हनुमान नहीं आने बाला, हमारी तरह हमारे देवी देवता भी इनके भगवानों के आगे असहाय हैं लिहाजा भागने में ही भलाई है.

हालात बेकाबू हैं और जरा सी भी ज़ोर जबरजस्ती इनके साथ की गई तो कहर कोरोना से कहीं ज्यादा बरपेगा. सरकार की असल अग्निपरीक्षा का वक्त तो अब शुरू हो रहा है देखना दिलचस्प होगा कि महमानव और अवतार करार दिये जा रहे नरेंद्र मोदी कौन सी ट्रिक से इससे निबटेंगे हालांकि उनके पास इकलौता रास्ता यही बचा है कि जैसे भी हो इस भीड़ को उसके घर तक पहुंचा दें.

ड्रामा अलीगढ़ का–

एक तरफ तो दिल्ली के मजदूर किसी भी कीमत पर रुकने तैयार नहीं तो दूसरी तरफ अलीगढ़ में देखते ही देखते कोई एक हजार गरीब लोग सरकारी इमदाद औए पैसा लेने लाक डाउन को धता बताते नगर निगम दफ्तर पहुँच गए इनके हाथों में राशन कार्ड आधार कार्ड और बेंक पासबुक जैसे दस्तावेज़ थे. दरअसल में अफवाह यह उडी थी कि प्रदेश सरकार ने तीन महीने का राशन और 1 हजार रु महीना आर्थिक सहायता देने की जो घोषणा की थी वह मिलने लगी है तो फिर लाक डाउन के नियम और कोरोना का डर भी लोगों को रोक नहीं पाया.

हल्ला मचा तो लोगों ने अपने मोबाईल पर आया नगर निगम का मेसेज मीडिया बालों को दिखाया जो झूठ नहीं था लेकिन अब कोई जबाब देने तैयार नहीं तो मायूस लोगों को समझ आ गया कि घोषणा सिर्फ घोषणा होती है उस पर अमल बड़े इतमीनान से किया जाता है मुमकिन है 3 महीने का राशन 3 महीने बाद देने की बात कही गई हो गलती हमारे सुनने और समझने में ही रही होगी अब इतने जल्दी तो राम राज आने से रहा और यह नगर निगम बालों का होली का मज़ाक ही क्यों न  समझ लिया जाये.

बात आई गई हो गई लेकिन भविष्य की झलक दिखला गई कि जब यह राहत कभी अगर वाकई बंटेगी तो लाक डाउन एक तरफ रखा रह जाएगा इसलिए सरकार को समझ लेना चाहिए कि 80 करोड़ की तादाद बेहद गैरमामूली होती है और राहतों पर अमल करने उसके पास पर्याप्त अमला नहीं है इसलिए मारामारी तो होगी ही और जल्द ही राशन और पैसा नहीं मिला तो लोगों की बैचेनी और ज्यादा बढ़ेगी यानि दो तो मुसीबत और न दो तो भी मुसीबत.

हाल-फिलहाल तो लोग लालच के चलते घरों में कैद रहने तैयार हो गए हैं वह भी इस उम्मीद के साथ कि 14 अप्रेल तक पैसा और अनाज मिल जाएगा.

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