आज राज्यपाल राज्यपाल न रहकर के हास्यपाल बनकर रह गए हैं या फिर कहें केंद्र सरकार की कठपुतली से ज्यादा की औकात नहीं रह गई है. इसका सबसे बड़ा सत्य है कि राज्यपाल रमेश बैस का दिल्ली दौड़ कर जाना. राज्यपाल के पास पूरा प्रशासनिक अमला होता है वह राज्य की संवैधानिक प्रमुख की हैसियत रखता है ऐसे में संविधानिक चर्चा के लिए वे राज्य में वरिष्ठ अधिवक्ताओं व न्यायाधीश से सलाह ले सकते हैं मगर दिल्ली की दौड़ उनकी हकीकत को बयां करती है.

हाल ही में जो घटना क्रम झारखंड में देखा गया है उसे देख समझकर के यह जन चर्चा है कि राज्यपाल अपने पद की गरिमा को स्वयं खत्म कर रहे हैं.यह कुछ  वैसे ही है, जैसे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना.

दरअसल, आज राजनीति राजशाही की तरह गंदी और बदतर स्थिति में पहुंचती जा रही  है जो भी संविधानिक पद हैं उनको एक शुचिता गरिमा के तहत एक अच्छी सोच के तहत बनाया गया ताकि देश में लोकतंत्र की स्थापना के साथ देश हित में जनता के हित में चलता रहे मगर धीरे-धीरे जिन लोगों के हाथों में सत्ता की चाबी आ गई वह यह सोचने लगे कि अब हमें ही आजीवन पदों में रहना है, यह वही सोच है जिसे हम राजतंत्र की परिभाषा में बांध सकते हैं .

अगर गंभीर विवेचना की दृष्टि से देखा जाए तो यह पाते हैं कि राज्यपाल का पद अब पूरी तरीके से अपनी गरिमा को समाप्त प्राय कर  चुका है. झारखंड में देखें अथवा पश्चिम बंगाल में, दक्षिण राज्यों में देखें या बिहार में अथवा छत्तीसगढ़ में हमें जहां विपक्ष की सरकार है ऐसे राज्यपालों की पदस्थापना की जाती है जो पक्षपाती हों, वर्तमान सरकार और मुख्यमंत्री के लिए रास्ते में सिर्फ रोड़े अटकाएं. यह सोच और दृष्टि लोकतंत्र के लिए नुकसान पर है और देश की जनता खामोशी से यह सब देख रही है यह नहीं समझना चाहिए.

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