केंद्र हो या राज्य सरकारें आज की तारीख में सभी के लिए बोझ बन गए हैं सरकारी कर्मचारी.ज्यादातर राज्य सरकारों ने इस लॉकडाउन की स्थिति में भी अगर शराब की दुकानों या ठेकों को खोलने का फैसला किया है तो इसलिए क्योंकि इनकी वित्तीय हालत बहुत खस्ता है और इस खस्ता वितीय हालत का सबसे बड़ा कारण है सरकारी कर्मचारियों का भारीभरकम बोझ.देश का कोई भी ऐसा राज्य नहीं है ,जिसके कुल राजस्व का 70-80 फीसदी अपने कर्मचारियों के वेतन,भत्ते और पेंशन देने में न खत्म हो जाता हो.यही वजह है कि विकास के नाम पर सरकारें केवल इधर से उधर टोपियां घुमाते रहते हैं.सच बात यह है कि सरकारों पर अपने कर्चारियों की तनख्वाहों का इतना बोझ होता है कि वे किसी दूसरे काम पर फोकस ही नहीं कर पातीं.क्योंकि जरूरी फंड ही नहीं होता.

देश में केंद्र,विभिन्न राज्यों तथा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में कुल मिलाकर [जिसमें सेना और अर्द्धसैनिक बल भी शामिल हैं] 2 करोड़ से थोड़े ज्यादा कर्मचारी हैं.जबकि इनकी सैलरी,भत्ते और दूसरे पर्क्स में देश के सकल घरेलू उत्पाद का 8 % से ज्यादा खर्च हो जाता है.आठ प्रतिशत जीडीपी का [साल 2019 के सकल घरेलू उत्पाद के हिसाब से] मतलब है,  करीब 24 लाख करोड़ रूपये.यह रकम इसलिए बहुत बड़ी रकम है; क्योंकि भारत का सालाना बजट 2019 में करीब 28 लाख करोड़ रूपये का था.इस तरह देखें तो देश के कुल केन्द्रीय बजट के बराबर की धनराशि सरकारी कर्मचारियों के वेतन भत्तों में खर्च हो जाती है.इसे हम चाहे तो हम यूँ भी कह सकते हैं कि 2 करोड़ बनाम 130 करोड़ और चाहे तो ये कि 2 करोड़ को जितनी सैलरी देनी पड़ती है ,करीब उतने नेह ही देश चलाने की जद्दोजहद करनी पड़ती है.

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सरकारी कर्मचारियों को अगर इस तरह बात करने में बुरा लगे तो माफी लेकिन इन आंकड़ों का इशारा यही है कि जल्द ही अगर इस आंकड़े में कुछ रैशनल सुधार नहीं किया गया तो देश की अर्थव्यवस्था सरकारी कर्मचारियों के बोझ से दब जायेगी.सरकारी कर्मचारी किस तरह विभीन्न राज्य सरकारों  के लिए बोझ बन गए हैं,इसका सबूत यह है कि  दिल्ली के मुख्यमंत्री ने शराब की दुकानों को खोलने के संबंध में मिल रही तमाम तोहमतों को लेकर पिछले दिनों कहा था कि उनके पास सरकारी कर्मचारियों को मई की तनख्वाह देने के बाद सिर्फ एक महीने की तनख्वाह दे सकने लायक पैसे ही खजाने में बचेंगे.इसलिए जल्द से जल्द शराब की दुकानें खोली गयीं.

चाहे केंद्र की सरकार हो या राज्यों की सरकारें  हों,शिक्षा,स्वास्थ्य और दूसरी जनकल्याण की योजनाओं पर जरूरी रकम सिर्फ और सिर्फ इसलिए नहीं खर्च कर पातीं क्योंकि सरकारी कर्मचारियों के वेतनों के बाद ज्यादा कुछ बचता ही नहीं है.इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश में तंत्र नाम की जो चीज है,जो सिस्टम है.वह सरकारी कर्मचारियों की बदौलत ही है.लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इनका कोई विकल्प नहीं है. न…सच यह है कि विकल्प को मौका नहीं मिलता.इसके लिए सिर्फ एक ही उदाहरण दूंगा.1998-99 तक दिल्ली की तमाम टेलीफोन व्यवस्था यानी पूरा कम्युनिकेशन सिस्टम सरकार के हाथ में था.तब यह स्थिति होती थी कि आपका फोन खराब हो जाय तो कब सही होगा, इस पर दावे से कोई कुछ नहीं कह सकता था.महीनों लग जाते थे.आज प्राइवेट कम्पनियां 24 घंटे में सही करने का दावा करके जब 48 घंटे में करती हैं तो हमें लगता है कि इनकी सर्विस खराब है.

एक ज़माना था कि फोन खराब हो जाय तो उसे सही कराने के लिए लोग बड़े बड़े अधिकारियों की सिफारिश लगवाया करते थे.यह सब सरकारी कर्मचारियों के चरित्र का नायाब उदाहरण है.1999 में दिल्ली में 18 लाख से ज्यादा लैंडलाइन फोन एमटीएनएल के थे. आज बमुश्किल 2 लाख हैं और इसमें भी एक लाख से ज्यादा सरकारी फोन हैं.सिर्फ दिल्ली और मुंबई में ही नहीं देश के दूसरे हिस्सों में भी वीएसएनएल की सांसें उखड़ गयी हैं.यह सब नेताओं की घूसखोरी से नहीं हुआ.यकीन मानो यह सब सरकारी कर्मचारियों की इलाली के चलते हुआ है.

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देश में सेना के बाद सबसे ज्यादा सरकारी अध्यापकों के वेतन में खर्च होता है.देश में 83%शिक्षा व्यवस्था सरकारी है.इसलिए 75 देशों में से हमारे देश का स्थान अगर 73 वां आता है तो यह कलंक सरकारी अध्यापकों के सिर पर आना ही चाहिए. क्या आपको मालूम है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था पर शिक्षको को दिए जाने वाले कुल वेतन का महज 33% खर्च होता होता है.यह तो वैसे ही है कि किसी खेत पर फसल बोई जाए .वह फसल 50,000 रूपये की बिके और उस फसल को बोने काटने आदि के मेहनताने पर 200000 रूपये खर्च कर दिए जाये.ऐसी फसल से भला किसको फायदा होगा ?

भारत के सरकारी कर्मचारी इसलिए देश पर बोझ नहीं हैं कि उन्हें ज्यादा पैसा दिया जाता है ? नहीं,वे पाने वाले पैसे की कीमत का 1/115 वां काम भी नहीं करते.डीयू में औसतन एक लेक्चर के लिए प्रोफ़ेसर को 5000 रूपये मिलते हैं,जबकि प्राइवेट कोचिंग में महज 500 रूपये में उससे 10 गुना ज्यादा पढ़ाई होती है और 100% ज्यादा नतीजा मिलता है.सरकारी कर्मचारी इसलिए बोझ हैं क्योंकि उनके मुकाबले प्राइवेट कर्मचारी औसतन 500% ज्यादा काम करता है.फिर भी सरकारी कर्मचारी से ज्यादा कुशलता दिखाता है. सरकारी कर्मचारी का यह सफ़ेद सीमेंट का हाथी होना इसलिए खलता है ; क्योंकि हम सब देशवासी अपने खून पसीने की कमाई पर इसे झेलते हैं.

हिन्दुस्तान के सरकारीकर्मचारियों के बारे में दीपक श्रीवास्तव जी ने बिलकुल सटीक लिखा है , ‘दुनिया के तमाम देशों में देश के लिये सरकारी कर्मचारी होते हैं, भारत में सरकारी कर्मचारियों के लिये देश है.अनावश्यक विभागों को और आवश्यक विभागों में अनावश्यक कर्मचारियों को हटाना जरूरी है,दरअसल वर्तमान सरकारी कर्मचारी जिस सेटअप की देन हैं वो अंग्रेजी राज का निर्माण है और उस समय अंग्रेजों की नौकरी को अच्छा नहीं माना जाता था, इसलिये अंग्रेजों ने सरकारी नौकरी में तमाम तरह के लाभों को देना शुरू किया ताकि लोग लोभवश नौकरी में आयें, आजादी के बाद इस प्रवृति पर रोक लगाने की जरूरत थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ और वही परंपरा आगे बढ़ती रही, आज स्थिति यह है कि एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी का जो वेतन है अगर उसकी तुलना खेती करने वाले की कमाई से की जाये तो पचास बीघा जमीन के मालिक के बराबर होगा, इस पर गंभीरता से विचार कर सरकारी कर्मचारी की वेतन संबंधी निर्णय किया जाना चाहिये.’

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