श्रीलंका के पूर्व प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने राष्ट्रवाद की आंधी पैदा की, बहुसंख्यक समुदाय में उन्माद जगाया, अच्छे दिनों के सब्जबाग दिखाए और अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत को हवा दी. नतीजा बरबादी. आखिरकार वहां की जनता ने अपने देश के किंग को कुरसी से खींच कर जमीन पर दे पटका. मगर तब तक महिंदा राजपक्षे के परिवार ने देश का जो नुकसान कर दिया उस की भरपाई करने में देश को 10-15 साल लगेंगे.
श्रीलंका बहुत बड़ा नहीं है. बेहद छोटा सा देश है, जिस में 9 राज्य और 25 जिले ही हैं. श्रीलंका की आबादी मात्र 2 करोड़ है और यह आबादी बिलकुल वैसी ही बंटी हुई है जैसे भारत में आज हिंदू और मुसलमान बंटे हैं. 75 प्रतिशत सिंहली संप्रदाय, जो बौद्ध धर्म का अनुयायी है, यहां का बहुसंख्यक वर्ग है और 20 प्रतिशत अल्पसंख्यक तमिल हैं जो हिंदू धर्म को मानते हैं.
दोनों संप्रदायों की आपस में बनती नहीं है. दरअसल राजनीति इन्हें अलग रख कर अपना गेम खेलती है. अब तक सत्ता पर काबिज राजपक्षे परिवार ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनाई, बिलकुल वैसी ही जैसी भारत के राजनीतिबाज करते हैं. कट्टरता और ध्रुवीकरण की राजनीति श्रीलंका में खूब हुई मगर बहुसंख्यकों के मन में अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत पैदा कर के श्रीलंका में अपनी राजनीति चमकाने वालों का हश्र आज सारी दुनिया देख रही है.
श्रीलंका में पिछले दिनों जो हुआ वह संपूर्ण एशिया के लिए एक चेतावनी है. प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने देश को गंभीर आर्थिक संकट के मुहाने पर ला कर खड़ा कर दिया और फिर हालात न संभाल पाने व देश को अराजकता के गर्त में डुबोने के बाद आखिरकार जनता ने उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया. वहां हालात इतने बिगड़ गए कि उन्हें परिवार सहित जान बचा कर छिपना पड़ा.
राजपक्षे के इस्तीफे से पहले और बाद में उन के समर्थकों व विरोधियों के बीच जम कर हिंसा हुई, जिस में महिंदा राजपक्षे सहित 13 मंत्रियों के घर फूंक दिए गए और एक सांसद सहित कई लोग मार डाले गए. राजपक्षे की पुश्तैनी संपत्तियां भी प्रदर्शनकारियों ने फूंक डालीं. महिंदा राजपक्षे अपने परिवार को ले कर नेवी के किसी बेस में जा छिपे और अब यह खबर है कि परिवार के सदस्यों को चुपचाप सिंगापुर भेज दिया गया है.
राष्ट्रवाद का उन्माद
ये वही महिंदा राजपक्षे हैं जो श्रीलंका में बहुसंख्यकों को राष्ट्रवाद की चटनी चटा कर 2019 में सत्ता पर काबिज हुए थे. उन की सत्ता हासिल करने की कहानी दिलचस्प है और कुछ हद तक भारत से मिलतीजुलती है. महिंदा राजपक्षे ने बहुसंख्यक सिंहलियों को एकजुट कर उन में अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत का जहर भरा. जगहजगह अल्पसंख्यकों पर हमले करवाए. तमिलों को आतंकवादी घोषित करवाने में महिंदा राजपक्षे ने कोई कसर नहीं छोड़ी.
महिंदा को प्रधानमंत्री की कुरसी भी इसलिए मिली क्योंकि उन की अगुआई में लिट्टे के चीफ वेलुपिल्लई प्रभाकरन को 2009 में खत्म किया गया था. प्रभाकरन तमिलियन्स का जांबाज नेता था जिस ने श्रीलंका में सताए जा रहे अल्पसंख्यक तमिल हिंदुओं के लिए अलग तमिल राष्ट्र की मांग की थी. अपने लिए अलग देश की मांग करने वाले लिट्टे के इस आंदोलन या खूनी संघर्ष में तब तक एक लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके थे.
खैर, प्रभाकरन की मौत के बाद वह आंदोलन खत्म हो गया और अधिकांश तमिल अपनी जान बचा कर भारत आ गए और यहां शरणार्थियों के तौर पर बस गए. अल्पसंख्यकों पर जुल्म ढाने वाले महिंदा राजपक्षे ने खुद को बहुत बड़ा राष्ट्रवादी घोषित कर लिया और 2010 में राष्ट्रपति चुनाव भारी बहुमत से जीत कर कानून की तमाम शक्तियों को संविधान संशोधन कर के अपने हाथ में ले लिया. लेकिन कट्टरता और ध्रुवीकरण का खेल ज्यादा समय तक चल नहीं पाया और अपनी गलत नीतियों के कारण महिंदा राजपक्षे 2015 में चुनाव हार गए.
राजपक्षे की नीतियों के खिलाफ 2014 में बड़ी संख्या में लोगों ने यूनाइटेड नैशन कार्यालय के सामने प्रदर्शन किया था. तब पश्चिमी देशों और मानवाधिकार संगठनों ने भी राजपक्षे को तमिल कम्युनिटी के खिलाफ बताते हुए उन की नीतियों की कड़ी निंदा की थी. मगर 2019 में महिंदा राजपक्षे का सितारा एक बार फिर चमका जब उन के भाई गोयबाटा राजपक्षे श्रीलंका के राष्ट्रपति नियुक्त हुए. उन्होंने तुरंत ही महिंदा राजपक्षे को एक बार फिर प्रधानमंत्री बना दिया. राजपक्षे परिवार का एक भाई राष्ट्रपति, दूसरा भाई प्रधानमंत्री और परिवार के अन्य सदस्यों ने सारे मलाईदार महकमे आपस में बांट लिए. इस तरह राजकोष के 70 फीसदी पर राजपक्षे परिवार ने अपना कब्जा जमा लिया.
बीते 3 सालों के दौरान महिंदा राजपक्षे ने अपने फरेबी बयानों और बड़ेबड़े वादों से राष्ट्रवाद की ऐसी आंधी पैदा की जिस में देश का बहुसंख्यक समुदाय एक बार फिर उन्मादी हो उठा. राजपक्षे ने उन्हें ‘अच्छे दिनों’ के सब्जबाग दिखाए और अल्पसंख्यक तमिलों तथा मुसलमानों के प्रति नफरत को हवा दी. लेकिन खुद को बड़ा राष्ट्रवादी बताना और राष्ट्र को सफलतापूर्वक चलाना दो अलग बातें हैं.
अगर राष्ट्र को चलाने की सही नीति योजना आप नहीं बना पाए तो आप के राष्ट्रवादी होने का कोई फायदा नहीं है और यही हुआ है श्रीलंका में. लोग कहते हैं कोरोना ने श्रीलंका को डुबो दिया है, मगर सचाई यह है कि कट्टरता और ध्रुवीकरण की राजनीति ने श्रीलंका को बरबाद कर दिया. राजपक्षे कर्ज ले कर घी पीते रहे और खुद को राष्ट्रवादी दिखाने के चक्कर में देश की जनता को आपस में लड़ाते रहे.
राष्ट्रवाद की चटनी बहुत समय से चाटचाट कर श्रीलंका की बहुसंख्यक आबादी जब भीतर से खोखली हो गई और जब श्रीलंका दानेदाने को मुहताज हो गया तो ‘राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री’ को गद्दी से उखाड़ फेंकने के लिए वही बहुसंख्यक समाज अपने घरों से बाहर निकल पड़ा. सड़कों पर राजपक्षे सरकार के खिलाफ प्रदर्शन और हिंसा की घटनाएं होने लगीं. राष्ट्रवाद की सारी बातें हवा हो गईं और जनता ने गुस्से में आ कर जगहजगह आगजनी व तोड़फोड़ करना शुरू कर दिया.
पेट की आग के आगे राष्ट्रवाद, धर्म, संप्रदाय सब बौने पड़ गए. सड़कों पर बहुसंख्यक सिंहली ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक तमिल, मुसलिम, ईसाई सब एकसाथ आ जुटे इस ‘राष्ट्रवादी’ को सिंहासन से खींच कर जमीन पर पटकने के लिए. सब ने मिल कर अपने उसी प्रधानमंत्री का घर घेर लिया, जिसे वे ‘किंग’ कहते थे. जिस के राष्ट्रवादी गीत वहां के टैलीविजन पर बजते थे. जिस ने देश की संसद में नहीं, बल्कि बौद्ध मंदिर में प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी. दरअसल कट्टरता वह कोढ़ है जो किसी भी देश को भीतर ही भीतर बरबाद कर देता है. इस में कोई शक नहीं कि श्रीलंका बरबाद हो चुका है.
महिंदा राजपक्षे के गलत फैसले
श्रीलंका 1948 में ब्रिटेन से आजाद हुआ. वहां आर्थिक संकट समयसमय पर मुंह उठाते रहे मगर पर्यटन उद्योग और चायमसालों की बेहतरीन खेती ने उस को संभाले रखा. मगर 2019 में महिंदा राजपक्षे के सत्ता में आने के बाद कृषि और पर्यटन दोनों ही उद्योग तेजी से गर्त में जाने लगे. राजपक्षे सरकार ने तमिल हिंदुओं की मेहनत पर तो कभी भरोसा किया ही नहीं, जबकि मछली और चाय के उद्योग में वे ही सब से ज्यादा मेहनत कर रहे थे.
मछली उद्योग तो तमिलियन ही करते थे और तमिलियन हिंदुओं को राजपक्षे सरकार आतंकी घोषित करने पर तुली हुई थी. अल्पसंख्यकों के प्रति इस नफरती व्यवहार को देख कर मानवाधिकार आयोग तक को यह कहना पड़ गया था कि पीटीए यानी प्रिवैंशन औफ टेररिज्म एक्ट का गलत इस्तेमाल तमिल हिंदुओं और मुसलमानों के खिलाफ हो रहा है. मगर महिंदा राजपक्षे पर इन बातों का कोई असर नहीं था. चाय, मछली और टूरिस्ट जिन 3 पहियों पर श्रीलंका चल रहा था, इन तीनों के लिए ही राजपक्षे ने कई गलत फैसले ले लिए.
महिंदा राजपक्षे के अदूरदर्शी फैसलों के चलते किसानों को जैविक खेती के लिए मजबूर किया जाने लगा और उन को यूरिया, रासायनिक खाद व कीटाणुनाशक पदार्थों की सप्लाई पूरी तरह रोक दी गई. जैविक खेती की जिद से उत्पादन औंधे मुंह गिरा, किसानों को उन की फसल की लागत भी नहीं मिली और अर्थव्यवस्था पूरी तरह बैठ गई.
दरअसल महिंदा राजपक्षे सरकार ने देश के किसानों से बात किए बगैर अत्यंत गैरजिम्मेदाराना तरीके से अचानक पूरी तरह से जैविक खेती की ओर आगे बढ़ने का फैसला ले लिया और रासायनिक खाद पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया. देश को आत्मनिर्भर बनाने के चक्कर में यूरिया का आयात बंद कर दिया गया. कीटाणुनाशकों के आयात पर भी रोक लगा दी गई, जिस के चलते कृषि उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ. किसानों की कमर टूट गई और खाद्यान्न की कीमतें बेतहाशा बढ़ने लगीं. इस तरह अनाज, दालें, सब्जी और चाय की पैदावार और निर्यात बुरी तरह प्रभावित हुआ. लोगों के पास खाने तक का अनाज नहीं बचा. हालांकि जैविक खेती में कोई बुराई नहीं है लेकिन इसे अचानक अंजाम देना और किसानों को इस के लिए मजबूर करना किसी भी तरह से बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती.
उधर कोरोना महामारी के कारण देश का पर्यटन उद्योग चौपट हो गया और विदेशी मुद्रा के स्रोत ठप हो गए. गौरतलब है कि श्रीलंका, जो चारों तरफ समुद्र से घिरा एक सुंदर देश है, की पर्यटन से सब से ज्यादा कमाई होती है. मगर गर्त हो चुकी अर्थव्यवस्था और कोरोना के कारण अब हालत इतनी जर्जर हो गई है कि लगता नहीं कि आने वाले कई सालों तक सैलानी अब उधर का रुख भी करेंगे.
साल 2018 में श्रीलंका में 23 लाख पर्यटक आए थे. वर्ष 2019 में 19 लाख मगर 2020 में जब कोविड शुरू हुआ तो यह संख्या घट कर 1.94 लाख रह गई. सैलानी नहीं आए तो लोगों की कमाई भी ठप हो गई. सरकारी नीतियां ठीक होतीं तो इस स्थिति से श्रीलंका 2021 के अंत तक उबर आता, मगर देश की गिरती अर्थव्यवस्था को राजपक्षे सरकार संभाल ही नहीं पाई. महान बनने के चक्कर में महिंदा राजपक्षे ने टैक्स भी आधा कर दिया जिस से देश का खजाना खाली हो गया.
अब श्रीलंका की यह हालत है कि उस के लिए अंतर्राट्रीय ऋण चुकाना भी मुश्किल हो गया है. राजपक्षे सरकार ने मजबूर हो कर कई चीजों के आयात पर बैन लगा दिया. इस वजह से देश में कई आवश्यक चीजों की भारी कमी हो गई, महंगाई दर बहुत ऊपर चली गई और देशभर में भयानक बिजली संकट भी पैदा हो गया. श्रीलंका में तेल की खपत 1.30 लाख बैरल प्रतिदिन है, मगर आ रहा था मात्र 0.30 लाख बैरल. इन्ही वजहों के चलते जरूरी चीजों की कीमतों में आग लग गई. गेहूं 200 रुपए किलो, चावल 220 रुपए किलो, चीनी 7,240 रुपए किलो, नारियल का तेल 850 रुपए लिटर. एलपीजी का सिलैंडर 4,200 रुपए का. एक अंडे की कीमत 30 रुपए और 100 रुपए में चाय की एक प्याली लोगों को बमुश्किल नसीब हो रही थी.
आखिर लोग जाएं तो कहां जाएं, खाएं तो क्या खाएं. दुकानों पर लंबीलंबी कतारें, जरूरी चीजों की बेतरह किल्लत, लोगों के आय के स्रोत बंद. पर्यटन जो श्रीलंका के लिए विदेशी मुद्रा का प्रमुख स्रोत था, गरम मसाले और चाय जो निर्यात की प्रमुख वस्तुएं थीं, महिंदा राजपक्षे सरकार की गलत नीतियों के चलते सब पर भारी गाज गिरी. चारों तरफ हाहाकार मच गया, जो सत्ता परिवर्तन के बाद भी अभी थमा नहीं है.
राजपक्षे सरकार की दूसरी बड़ी गलती यह थी कि उस ने चीन पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया. चीन ने श्रीलंका को बढ़बढ़ कर कर्ज दिया और फिर धीरेधीरे उस के बंदरगाहों को हथिया लिया. यों तो श्रीलंका को भारत समेत कई अन्य देशों ने भी कर्ज दिया है मगर उन की नीतियां साम्राज्यवादी नहीं हैं.
श्रीलंका को दिए कर्ज में करीब 15 फीसदी कर्ज चीन का है. वर्ल्ड बैंक और एडीबी व अन्य देशों का 9-9 फीसदी तथा मार्केट का 47 फीसदी. भारत का अंश मात्र 2 प्रतिशत है. बता दें कि श्रीलंका के ऊपर 56 अरब डौलर का विदेशी कर्ज है. इस भारीभरकम कर्ज के कारण ही श्रीलंका का मुद्रा भंडार 3 सालों में 8,884 मिलियन डौलर से घट कर 2,311 मिलियन डौलर पर आ गया. करीब 2 अरब डौलर तो श्रीलंका को केवल ऋण का ब्याज चुकाने के लिए ही चाहिए.
यदि समय पर ब्याज अदायगी न हुई तो जुलाई में उस को डिफौल्टर घोषित किया जा सकता है और यदि ऐसा हुआ तो श्रीलंका के लिए स्थिति बेहद नाजुक हो जाएगी. वहीं श्रीलंका ने अब आईएमएफ से करीब 4 अरब डौलर के कर्ज को ले कर बातचीत की है, जो कुछ सार्थक भी रही है, लेकिन श्रीलंका की समस्या केवल इस से ठीक होने वाली नहीं है.
नए प्रधानमंत्री के आगे चुनौतियां
इस में शक नहीं कि श्रीलंका इन दिनों बहुत मुश्किल दौर से गुजर रहा है. वर्ष 2018-19 में प्रधानमंत्री रह चुके रनिल विक्रमसिंघे ने देश की कमान अपने हाथों में तो ले ली है मगर सच पूछें तो इस बार उन्होंने कांटों का ताज पहना है. महिंदा राजपक्षे की गलतियों के अंबार के कारण उन के सामने कई बड़ी चुनौतियां खड़ी हैं. उन्होंने ऐसे समय में देश की बागडोर संभाली है जब देश में चारों तरफ अराजकता व्याप्त है.
राजपक्षे सरकार को ले कर लोगों में गुस्सा अभी भी उफान पर है. राष्ट्रपति पद पर अभी भी राजपक्षे परिवार का व्यक्ति ही आसीन है जो जनता को खटक रहा है. वहीं देश की माली हालत इस कदर खराब हो चुकी है कि इस का कुछ समय के अंदर ही समाधान हो जाएगा, ऐसा कह पाना काफी मुश्किल है. यह दौर कब खत्म होगा, आमजन के लिए स्थितियां कब तक सामान्य होंगी, चीजों के दाम कब कम होंगे, इस सब को ले कर असमंजस बना हुआ है और उम्मीद की किरण अभी दूरदूर तक नजर नहीं आ रही है.
परिस्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं. आर्थिक संकट, प्रशासकीय विफलता, व्यापक भ्रष्टाचार, जनअसंतोष और गलत नेतृत्व ने एक सुंदर प्रायद्वीप के सामने अभूतपूर्व विषम संकट पैदा कर दिया है. राजपक्षे बंधुओं द्वारा पैदा की गई आर्थिक बरबादी, अशांति, अदूरदर्शी नीतियां, जरूरी चीजों की किल्लत, परिवारवाद, नफरत और भ्रष्टाचार ने श्रीलंका को ऐसे गर्त में धकेल दिया है जिस से उबरने में कई बरस लग जाएंगे.
नए प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे के सामने सब से बड़ी चुनौती घरेलू समस्या को हल करना है. यदि श्रीलंका को विदेशी संस्थानों से कर्ज मिल भी जाता है तो भविष्य में उस को चुकाने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे. जनता पर कई नए कर लगाए जा सकते हैं या मौजूदा करों को ही बढ़ाया जा सकता है. इस के अलावा कई ऐसे कदम भी उठाने पड़ सकते हैं जो लोगों को नागवार गुजरेंगे. ऐसे में विक्रमसिंघे को देशवासियों की तरफ से आने वाली विपरीत प्रतिक्रिया का सामना भी करना पड़ेगा.
इस में शक नहीं कि चुनौतियां कठिन हैं और समय प्रतिकूल है. हालांकि विक्रमसिंघे श्रीलंका में बड़े कद के नेता होने के साथ पहले भी प्रधानमंत्री पद संभाल चुके हैं. जानकार मानते हैं कि वे एक ऐसा चेहरा हैं जो फौरीतौर पर राहत दिलाने में कामयाब हो सकते हैं. रनिल को प्रधानमंत्री बनाने का राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे का फैसला निहायत ही चतुराईभरा सियासी फैसला है.
73 वर्षीय विक्रमसिंघे अनुभवी और सर्वस्वीकार्य नेता हैं. उन की घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय छवि भी काफी अच्छी है. वे इस डूबते जहाज को तूफान से बाहर निकाल सकते हैं. औब्जरवर रिसर्च फाउंडेशन के प्रोफैसर हर्ष वी पंत का कहना है, ‘‘राष्ट्रपति गोटबाया के सामने विक्रमसिंघे के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था. विक्रमसिंघे पश्चिमी देशों के समर्थक माने जाते हैं. इसलिए वे आईएमएफ से कर्ज को ले कर चल रही बातचीत में भी एक बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं.’’
देश में मौजूदा समय में एक स्थिर सरकार के अलावा एक ऐसा व्यक्ति सत्ता के शीर्ष पर होना जरूरी है कि जिस से वित्तीय संस्थान बात कर कर्ज के नियमों को तय कर सकें. इस के अलावा विक्रमसिंघे भारत को ले कर भी सकारात्मक रवैया रखते हैं. कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्रपति गोटबाया ने बड़ी सोचसम?ा के साथ शतरंजी चाल चली है. विक्रमसिंघे को सत्ता सौंप कर उन्होंने अपने परिवार और अपने प्रति जनता के रोष पर भी ठंडे पानी के छींटे मारने की कोशिश की है. साथ ही, यह चालाकी भी साफ नजर आती है कि स्थितियां नहीं सुधरीं तो सारा ठीकरा विक्रमसिंघे के सिर पर फोड़ा जा सकेगा.
हालांकि श्रीलंका की इस बरबादी से एक खुशखबरी भी जरूर निकल कर आई है जिस से अन्य देशों को भी सबक ले लेना चाहिए, खासतौर से भारत को. खुशखबरी यह है कि श्रीलंका में दशकों से एकदूसरे से लड़ रहे बौद्ध बहुसंख्यक सिंहली और अल्पसंख्यक हिंदू तमिल और मुसलमान सब आज एक हो गए हैं. जो काम सदियां नहीं कर पाईं वह काम भूख के कारण घरघर से उठती सिसकियों ने कर दिया है.
श्रीलंका में जिस महिंदा राजपक्षे का कोई विकल्प नहीं दिखता था, आज उसी को वहां की जनता फूटी आंख नहीं देखना चाहती. राजपक्षे ने राष्ट्रवाद की घुट्टी पिला कर श्रीलंका को बरबाद कर दिया, दानेदाने को मुहताज किया और एक खुशहाल देश को दुनिया के सामने डिफौल्टर बना कर खड़ा कर दिया, हाथ में कटोरा पकड़ा दिया.
एक ऐसा देश जिस के पास उधार का ब्याज चुकाने तक को पैसे नहीं हैं, जिस के पास अपने नागरिकों को खिलाने के लिए अन्न नहीं है. अन्न छोडि़ए, एक कप चाय भी वहां दो वक्त के भोजन से ज्यादा महंगी है. देश बरबाद होने के बाद श्रीलंका के लोगों को अब यह अक्ल आई है कि ‘राष्ट्र्रवादी’ या ‘धर्मवादी’ देश व देशवासियों के लिए हितकारी नहीं होता, बल्कि जो देश को चलाने में सक्षम हो, जो प्यारमोहब्बत का माहौल बनाए, जो हकीकत में सब को साथ ले कर चले, वही देश का नेतृत्व करने के लायक होता है, वही लीडर होता है.