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सोने का घाव : मलीहा और अलीना के बीच क्या थी गलतफहमी?

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Mother’s Day 2023: थोड़ा सा समय

हनीमून से लौटते समय टैक्सी में बैठी जूही के मन में कई तरह के विचार आ जा रहे थे. अजय ने उसे खयालों में डूबा देख उस की आंखों के आगे हाथ लहरा कर पूछा, ‘‘कहां खोई हो? घर जाने का मन नहीं कर रहा है?’’

जूही मुसकरा दी, लेकिन ससुराल में आने वाले समय को ले कर उस के मन में कुछ घबराहट सी थी. दोनों शादी के 1 हफ्ते बाद ही सिक्किम घूमने चले गए थे. उन का प्रेमविवाह था. दोनों सीए थे और नरीमन में एक ही कंपनी में जौब करते थे.

अजय ब्राह्मण परिवार का बड़ा बेटा था. पिता शिवमोहन एक प्राइवेट कंपनी में अच्छे पद पर थे. मम्मी शैलजा हाउसवाइफ थीं और छोटी बहन नेहा अभी कालेज में थी. अजय का घर मुलुंड में था.

पंजाबी परिवार की इकलौती बेटी जूही कांजुरमार्ग में रहती थी. जूही के पिता विकास डाक्टर थे और मां अंजना हाउसवाइफ थीं. दोनों परिवारों को इस विवाह पर कोई एतराज नहीं था. विवाह हंसीखुशी हो गया. जूही को जो बात परेशान कर रही थी वह यह थी कि उस के औफिस जानेआने का कोई टाइम नहीं था. अब तक तो घर की कोई जिम्मेदारी उस पर नहीं थी, नरीमन से आतेआते कभी 10 बजते, तो कभी 11. जिस क्लाइंट बेसिस पर काम करती, पूरी टीम के हिसाब से उठना पड़ता. मायके में तो घर पहुंचते ही कपड़े बदल हाथमुंह धो कर डिनर करती और फिर सीधे बैड पर.

शनिवार और रविवार पूरा आराम करती थी. मन होता तो दोस्तों के साथ मूवी देखती, डिनर करती. वैसे भी मुंबई में औफिस जाने वाली ज्यादातर कुंआरी अविवाहित लड़कियों का यही रूटीन रहता है, हफ्ते के 5 दिन काम में खूब बिजी और छुट्टी के दिन आराम. जूही के 2-3 घंटे तो रोज सफर में कट जाते थे. वह हमेशा वीकैंड के लिए उत्साहित रहती.

जैसे ही अंजना दरवाजा खोलतीं, जूही एक लंबी सांस लेते हुए कहती थी, ‘‘ओह मम्मी, आखिर वीकैंड आ ही गया.’’

अंजना को उस पर बहुत स्नेह आता कि बेचारी बच्ची, कितनी थकान होती है पूरा हफ्ता.

जूही को याद आ रहा था कि जब बिदाई के समय उस की मम्मी रोए जा रही थीं तब उस की सासूमां ने उस की मम्मी के कंधे पर हाथ रख कर कहा था, ‘‘आप परेशान न हों. बेटी की तरह रहेगी हमारे घर. मैं बेटीबहू में कोई फर्क नहीं रखूंगी.’’

तब वहीं खड़ी जूही की चाची ने व्यंग्यपूर्वक धीरे से उस के कान में कहा, ‘‘सब कहने की बातें हैं. आसान नहीं होता बहू को बेटी समझना. शुरूशुरू में हर लड़के वाले ऐसी ही बड़ीबड़ी बातें करते हैं.’’

बहते आंसुओं के बीच में जूही को चाची की यह बात साफसाफ सुनाई दी थी. पहला हफ्ता तो बहुत मसरूफियत भर निकला. अब वे घूम कर लौट रहे थे, देखते हैं क्या होता है. परसों से औफिस भी जाना है. टैक्सी घर के पास रुकी तो जूही अजय के साथ घर की तरफ चल दी.

शिवमोहन, शैलजा और नेहा उन का इंतजार ही कर रहे थे. जूही ने सासससुर के पैर छू कर उन का आशीर्वाद लिया. नेहा को उस ने गले लगा लिया, सब एकदूसरे के हालचाल पूछते रहे.

शैलजा ने कहा, ‘‘तुम लोग फै्रश हो जाओ, मैं चाय लाती हूं.’’

जूही को थकान तो बहुत महसूस हो रही थी, फिर भी उस ने कहा, ‘‘नहीं मम्मीजी मैं बना लूंगी.’’

‘‘अरे थकी होगी बेटा, आराम करो और हां, यह मम्मीजी नहीं, अजय और नेहा मुझे मां ही कहते हैं, तुम भी बस मां ही कहो.’’

जूही ने झिझकते हुए सिर हिला दिया. अजय और जूही ने फ्रैश हो कर सब के साथ चाय पी.

थोड़ी देर बाद शैलजा ने पूछा, ‘‘जूही, डिनर में क्या खाओगी?’’

‘‘मां, जो बनाना है, बता दें, मैं हैल्प करती हूं.’’

‘‘मैं बना लूंगी.’’

‘‘लेकिन मां, मेरे होते हुए…’’

हंस पड़ीं शैलजा, ‘‘तुम्हारे होते हुए क्या? अभी तक मैं ही बना रही हूं और मुझे कोई परेशानी भी नहीं है,’’ कह कर शैलजा किचन में आ गईं तो जूही भी मना करने के बावजूद उन का हाथ बंटाती रही.

अगले दिन की छुट्टी बाकी थी. शिवमोहन औफिस और नेहा कालेज चली गई. जूही अलमारी में अपना सामान लगाती रही. सब अपनेअपने काम में व्यस्त रहे. अगले दिन साथ औफिस जाने के लिए अजय और जूही उत्साहित थे. दोनों लोकल ट्रेन से ही जाते थे. हलकेफुलके माहौल में सब ने डिनर साथ किया.

रात को सोने के समय शिवमोहन ने कहा ‘‘कल से जूही भी लंच ले जाएगी न?’’

‘‘हां, क्यों नहीं?’’

‘‘इस का मतलब कल से उस की किचन की ड्यूटी शुरू?’’

‘‘ड्यूटी कैसी? जहां मैं अब तक 3 टिफिन पैक करती थी, अब 4 कर दूंगी, क्या फर्क पड़ता है?’’

शिवमोहन ने प्यार भरी नजरों से शैलजा को देखते हुए कहा, ‘‘ममतामयी सास बनोगी इस का कुछ अंदाजा तो था मुझे.’’

‘‘आप से कहा था न कि जूही बहू नहीं बेटी बन कर रहेगी इस घर में.’’

शिवमोहन ने उसे छेड़ते हुए कहा, ‘‘लेकिन तुम्हें तो बहुत कड़क सास मिली थीं.’’

शैलजा ने फीकी हंसी हंसते हुए कहा, ‘‘इसीलिए तो जूही को उन तकलीफों से बचाना है जो मैं ने खुद झेली हैं. छोड़ो, वह अम्मां का पुराना जमाना था, उन की सोच अलग थी, अब तो वे नहीं रहीं. अब उन बातों का क्या फायदा? अजय ने बताया था जूही को पनीर बहुत पसंद है. कल उस का पहला टिफिन तैयार करूंगी, पनीर ही बनाऊंगी, खुश हो जाएगी बच्ची.’’

शिवमोहन की आंखों में शैलजा के लिए तारीफ के भाव उभर आए.

सुबह अलार्म बजा. जूही जब तक तैयार हो कर किचन में आई तो वहां 4 टिफिन पैक किए रखे थे. शैलजा डाइनिंग टेबल पर नाश्ता रख रही थीं.

जूही शर्मिंदा सी बोली.

‘‘मां, आप ने तो सब कर लिया.’’

‘‘हां बेटा, नेहा जल्दी निकलती है. सब काम साथ ही हो जाता है. आओ, नाश्ता कर लो.’’

‘‘कल से मैं और जल्दी उठ जाऊंगी.’’

‘‘सब हो जाएगा बेटा, इतना मत सोचो. अभी तो मैं कर ही लेती हूं. तबीयत कभी बिगड़ेगी तो करना ही होगा और आगेआगे तो जिम्मेदारी संभालनी ही है, अभी ये दिन आराम से बिताओ, खुश रहो.’’

अजय भी तैयार हो कर आ गया था. बोला, ‘‘मां, लंच में क्या है?’’

‘‘पनीर.’’

जूही तुरंत बोली, ‘‘मां यह मेरी पसंदीदा डिश है.’’

अजय ने कहा, ‘‘मैं ने ही बताया है मां को. मां, अब क्या अपनी बहू की पसंद का ही खाना बनाओगी?’’

जूही तुनकी, ‘‘मां ने कहा है न उन के लिए बहू नहीं, बेटी हूं.’’

नेहा ने घर से निकलतेनिकलते हंसते हुए कहा, ‘‘मां, भाभी के सामने मुझे भूल

मत जाना.’’

शिवमोहन ने भी बातों में हिस्सा लिया, ‘‘अरे भई, थोड़ा तो सास वाला रूप दिखाओ, थोड़ा टोको, थोड़ा गुस्सा हो, पता तो चले घर में सासबहू हैं.’’

सब जोर से हंस पड़े.

शैलजा ने कहा, ‘‘सौरी, यह तो किसी को पता नहीं चलेगा कि घर में सासबहू हैं.’’

सब हंसतेबोलते घर से निकल गए.

थोड़ी देर बाद ही मेड श्यामाबाई आ गई. शैलजा घर की सफाई करवाने लगी.

अजय के कमरे में जा कर श्यामा ने आवाज दी, ‘‘मैडम, देखो आप की बहू कैसे सामान फैला कर गई हैं.’’

शैलजा ने जा कर देखा, हर तरफ सामान बिखरा था, उन्हें हंसी आ गई.

श्यामा ने पूछा, ‘‘मैडम, आप हंस रही हैं?’’

शैलजा ने कहा, ‘‘आओ, मेरे साथ,’’ शैलजा उसे नेहा के कमरे में ले गई. वहां और भी बुरा हाल था.

शैलजा ने कहा, ‘‘यहां भी वही हाल है न? तो चलो अब हर जगह सफाई कर लो जल्दी.’’

श्यामा 8 सालों से यहां काम कर रही थी. अच्छी तरह समझती थी अपनी शांतिपसंद मैडम को, अत: मुसकराते हुए अपने काम में लग गई.

जूही फोन पर अपने मम्मीपापा से संपर्क में रहती ही थी. शादी के बाद आज

औफिस का पहला दिन था. रास्ते में ही अंजना का फोन आ गया. हालचाल के बाद पूछा, ‘‘आज तो सुबह कुछ काम भी किए होंगे?’’

शैलजा की तारीफ के पुल बांध दिए जूही ने. तभी अचानक जूही को कुछ याद आया. बोली, ‘‘मम्मी, मैं बाद में फोन करती हूं,’’ फिर तुरंत सासूमां को फोन मिलाया.

शैलजा के हैलो कहते ही तुरंत बोली, ‘‘सौरी मां, मैं अपना रूम बहुत बुरी हालत में छोड़ आई हूं… याद ही नहीं रहा.’’

‘‘श्यामा ने ठीक कर दिया है.’’

‘‘सौरी मां, कल से…’’

‘‘सब आ जाता है धीरेधीरे. परेशान मत हो.’’

शैलजा के स्नेह भरे स्वर पर जूही का दिल भर आया. अजय और जूही दिन भर व्यस्त रहे. सहकर्मी बीचबीच में दोनों को छेड़ कर मजा लेते रहे. दोनों रात 8 बजे औफिस से निकले तो थकान हो चुकी थी. जूही का तो मन कर रहा था, सीधा जा कर बैड पर लेटे. लेकिन वह मायका था अब ससुराल है.

10 बजे तक दोनों घर पहुंचे. शिवमोहन, शैलजा और नेहा डिनर कर चुके थे. उन दोनों का टेबल पर रखा था. हाथ धो कर जूही खाने पर टूट पड़ी. खाने के बाद उस ने सारे बरतन समेट दिए.

शैलजा ने कहा, ‘‘तुम लोग अब आराम करो. हम भी सोने जा रहे हैं.’’

शैलजा लेटीं तो शिवमोहन ने कहा, ‘‘तुम भी थक गई होगी न?’’

‘‘हां, बस अब सोना ही है.’’

‘‘काम भी तो बढ़ गया होगा?’’

‘‘कौन सा काम?’’

‘‘अरे, एक और टिफिन…’’

‘‘6 की जगह 8 रोटियां बन गईं तो क्या फर्क पड़ा? सब की तो बनती ही हैं और आज तो मैं ने इन दोनों का टिफिन अलगअलग बना दिया. कल से एकसाथ ही पैक कर दूंगी. खाना बच्चे साथ ही तो खाएंगे, जूही का खाना बनाने से मुझ पर कोई अतिरिक्त काम आने वाली बात है ही नहीं.’’

‘‘तुम हर बात को इतनी आसानी से कैसे ले लेती हो, शैल?’’

‘‘शांति से जीना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है, बस हम औरतें ही अपने अहं, अपनी जिद में आ कर अकसर घर में अशांति का कारण बन जाती हैं. जैसे नेहा को भी अभी कोई काम करने की ज्यादा आदत नहीं है वैसे ही वह बच्ची भी तो अभी आई है. आजकल की लड़कियां पहले पढ़ाई, फिर कैरियर में व्यस्त रहती हैं. इतना तो मैं समझती हूं आसान नहीं है कामकाजी लड़कियों का जीवन. अरे मैं तो घर में रहती हूं, थक भी गई तो दिन में थोड़ा आराम कर लूंगी. कभी नहीं कर पाऊंगी तो श्यामा है ही, किचन में हैल्प कर दिया करेगी, जूही पर घर के भी कामों का क्या दबाव डालना. नेहा को ही देख लो, कालेज और कोचिंग के बाद कहां हिम्मत होती है कुछ करने की, ये लड़कियां घर के काम तो समय के साथसाथ खुद ही सीखती चली जाती हैं. बस, थोड़ा सा समय लगता है.’’

शैलजा अपने दिल की बातें शेयर कर रही थीं, ‘‘अभी नईनई आई है, आते ही किसी बात पर मन दुखी हो गया तो वह बात दिल में एक कांटा बन कर रह जाएगी जो हमेशा चुभती रहेगी. मैं नहीं चाहती उसे किसी बात की चुभन हो,’’ कह कर वे सोने की तैयारी करने लगीं, बोलीं, ‘‘चलो, अब सो जाते हैं.’’

उधर अजय की बांहों का तकिया बना कर लेटी जूही मन ही मन सोच रही थी, आज शादी के बाद औफिस का पहला दिन था. मां के व्यवहार और स्वभाव में कितना स्नेह है. अगर उन्होंने मुझे बेटी माना है तो मैं भी उन्हें मां की तरह ही प्यार और सम्मान दूंगी. पिछले 15 दिनों से चाची की बात दिल पर बोझ की तरह रखी थी, लेकिन इस समय उसे अपना दिल फूल सा हलका लगा, बेफिक्री से आंखें मूंद कर उस ने अपना सिर अजय के सीने पर रख दिया.

इजाबेला-एनी की कौन सी बात मौसी को अच्छी नहीं लगी

‘‘इजाबेला नाम है इस का,’’ एनी पौल ने बड़े प्यार से एक दुबलीपतली लड़की को अपने से सटाते हुए कहा, ‘‘हमारी बेटी.’’

यद्यपि किसी को उन की बात पर विश्वास नहीं हो रहा था लेकिन जब वह कह रही हैं तो मानना ही पड़ेगा. अत: सभी ने गरमागरम पकौड़े खाते हुए उन की और उन के पति की मुक्तकंठ से प्रशंसा की.

दरअसल मद्रास से लौटने के बाद उसी दिन शाम को एनी ने अपनी पड़ोसिनों को चाय पर बुलाया और सूचना दी कि उन्होंने एक लड़की गोद ली है.

उस 13 साल की दुबलीपतली लड़की को देख कर नहीं लगता था कि उस का नाम इजाबेला भी हो सकता है. एनी ने ही रखा होगा यह खूबसूरत नाम. उस की सेहत ही बता रही थी कि उस ने शायद ही कभी भरपेट भोजन किया हो.

इस अप्रत्याशित सूचना से पड़ोस की महिलाएं हैरान थीं. सब मन ही मन एनी पौल की घोषणा पर अटकलें लगा रही थीं कि आखिर समीरा ने झिझकते हुए पूछ ही लिया, ‘‘एनी, तुम्हारे 2 बेटे तो हैं ही, फिर आज की महंगाई में…’’

उस की बात को बीच में काटती हुई एनी बोलीं, ‘‘अरे, बेटे हैं न, बेटी कहां है. और तुम तो जानती हो कि बेटी के बिना भी घर में रौनक होती है क्या? आर्थर को एक बेटी की बहुत चाहत थी. हम ने 2 साल बहुत सोचविचार किया और खुद को बड़ी मुश्किल से मानसिक रूप से तैयार किया. सोचा, यदि गोद ही लेनी है तो क्यों न किसी गरीब परिवार की बच्ची को लिया जाए.’’

अपनी बात को खत्म करतेकरते एनी की आंखों में प्यार के आंसू उमड़ आए. इस दृश्य और बातचीत के अंदाज से सब का संदेह कुछकुछ दूर हो गया. कुछकुछ इसलिए क्योंकि ज्यादातर लोगों की सोच यह थी कि कामकाज के लिए एनी बेटी गोद लेने के बहाने नौकरानी ले आई हैं.

इजाबेला अब कभीकभी नए कपड़ों में दिखाई देने लगी. लेकिन उस के नए कपड़े ऐसे नहीं थे कि वह एनी पौल की बेटी लगे. एनी के बेटे आपस में खेलते नजर आते पर उन की दोस्ती इजाबेला से नहीं हुई थी. वह बरामदे के एक कोने में खड़ी रहती. उदास या खुश, पता नहीं चलता था. हां, सेहत जरूर कुछ सुधर गई थी…शायद ढंग से नहानेधोने के कारण रंग भी कुछ निखरानिखरा सा लगता था.

धीरेधीरे सब अपने कामों में मशगूल हो गए. फिर कभी वह लौन में से पत्तियां उठाती दिखाई देती तो कभी पौधों में पानी देती. एक बार झाड़ू लगाती भी नजर आई थी. घर में काम करने वाली गंगूबाई से कालोनी की औरतों को यह भी पता चला कि इजाबेला अब खाना भी बनाने लगी है.

महिलाओं की सभा जुड़ी और सब के चेहरे पर एक ही भाव था कि मैं ने कहा था न…

महिलाओं की यह सुगबुगाहट एनी तक पहुंच गई थी और उन्होंने सोने के टौप्स दिखा कर सब का शक दूर कर दिया. सभी उस के सामने एनी की तारीफ तो करती थीं पर मन एनी के दिखावे को सच मानने को तैयार न था.

समय धीरेधीरे सरकता रहा. एनी और इजाबेला की खबरें कालोनी की औरतों को मिलती रहती थीं. लगभग 10 माह बाद एक दिन मीरा मौसी ने कहा, ‘‘मुझे तो लगता है कि घर का सारा काम इज्जु ही करती है.’’

‘‘कौन इज्जु?’’ एक महिला ने पूछा.

‘‘अरे, वही इज्जाबेला.’’

‘इज्जाबेला नहीं मौसी, इजाबेला… और समीरा एनी उसे इजू कहती हैं, न कि इज्जु,’’ लक्ष्मी ने बात स्पष्ट की.

‘‘कुछ भी कह लक्ष्मी, अगर बेटी होती तो क्या स्कूल नहीं जाती? यदि गोद लिया है तो अपनी औलाद की तरह भी तो पालना चाहिए न. काम के लिए नौकरानी लानी थी तो इतना नाटक करने की क्या जरूरत थी. ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं एनी पौल को,’’ मौसी ने कहा.

कभी कोई महिला इस लड़की के मांबाप पर गुस्सा निकालती कि कितनी दूर भेज दिया है लड़की को. ये लोग उसे कभी बाहर नहीं आने देते. किसी से बात नहीं करने देते. घर जाओ तो उसे दूसरे कमरे में भेज देते हैं. क्यों? मीरा मौसी को कुछ ही नहीं सबकुछ गड़बड़ लगता था. एक दिन एनी से पूछ ही लिया, ‘‘एनी, साल भर होने को आया, अभी तक अपनी बेटी का किसी स्कूल में एडमीशन नहीं करवाया.’’

एनी बड़ी नजाकत से बोली थीं, ‘‘मौसी, अब किसी ऐसेवैसे स्कूल में तो बेटी को भेजेंगे नहीं. जहां इस के भाई जाते हैं वहीं जाएगी न? और वहां दाखिला इतनी आसानी से कहां मिलता है. आर्थर प्रिंसिपल से मिला था. उम्र के हिसाब से इसे 9वीं में होना चाहिए. 14 की हो गई है. पर इसे कहां कुछ आता है. एकाध साल घर में ही तैयारी करवानी पड़ेगी. आर्थर पढ़ाता तो है.’’

मौसी कुछ और जानने की इच्छा लिए अंदर आतेआते बोलीं, ‘‘तो वहां कुछ नहीं पढ़ासीखा इस ने?’’

‘‘वहां सरकारी स्कूल में जाती थी. 5वीं तक पढ़ी है. फिर मां ने काम पर लगा दिया. अब यही तो कमी है न इन लोगों में. मुफ्त की आदत पड़ी हुई है फिर मैनर्स भी तो चाहिए. वैसे मौसी, इजाबेला चाय बहुत अच्छी बनाने लगी है,’’ फिर आवाज दे कर बोलीं, ‘‘इजू बेटे, मौसी को बढि़या सी चाय बना कर पिलाओ.’’

जब वह चाय बना कर लाई तो मौसी ने देखा कि उस ने बहुत सुंदर फ्राक पहनी हुई थी और करीने से बाल संवारे हुए थे. मौसी खुश हो गईं और संतुष्ट भी. उन्होंने प्यार से उस के सिर पर हाथ रखा तो एनी संतुष्ट हो गई.

‘‘इजू, शाम को बाहर खेला करो न. मेरी पोती भी तुम्हारी उम्र की है.’’

वह कुछ कहती उस से पहले एनी बोल उठीं, ‘‘मौसी, यह हिंदी, अंगरेजी नहीं जानती है. सिर्फ तमिल बोलती है. टूटीफूटी हिंदी की वजह से झिझकती है.’’

इजू अब सारा दिन घर में इधरउधर चक्कर काटती दिखाई देती और एनी घर से निश्ंिचत हो कर बाहर घूमती रहती. महल्ले की औरतों की हैरानी तब और बढ़ गई जब गंगूबाई छुट्टी पर थी और एनी ने एक बार भी किसी से कोई शिकायत नहीं की. मस्त थी वह. तो काम कौन करता है? पर अब कोई नहीं पूछता कुछ उस से क्योंकि जिन की बेटी है उन्हें ही कुछ परवा नहीं तो महल्ले वाले क्यों सोचें.

अब मौसी भी कुछ नहीं कह सकतीं. भई, जब बेटी बनाया है, घर दिया है तो वह कुछ काम तो करेगी ही न? और सब लोगों के बच्चे भी तो करते हैं. अब समीरा की बेटी को ही देख लो. 7वीं में पढ़ती है पर सुबह स्कूल जाने से पहले दूध ले कर आती है, डस्टिंग करती है और कोई घर पर आता है तो चाय वही बनाती है.

मीरा मौसी की पोती भी कुछ कम है क्या? टेबल लगाती है, दादीदादा को कौन सी दवा कब देनी है आदि बातों के साथसाथ मम्मी के आफिस से आने से पहले कितना काम कर के रखती है तो इजू क्यों नहीं अपने घर में काम कर सकती?

गंगूबाई बीमारी से लौट कर काम पर आई तो सब से पहले एनी के ही घर गई थी. लौट कर बाहर आई तो जोरजोर से बोलने लगी. किसी की समझ में कुछ नहीं आया. फिर समीरा के घर पर हाथ  नचानचा कर कहने लगी, ‘‘सब जानती हूं मैं, 1,500 रुपए में खरीद कर लाए हैं, काम करने के वास्ते.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता, गंगूबाई?’’ समीरा ने पूछा.

‘‘अब कामधंधे पर निकलो तो सब की जानकारी रहती ही है. आप लोगों जैसे घर के अंदर बैठ कर बतियाते रहने से कहां कुछ पता चलता है,’’ फिर थोड़ा अकड़ कर गंगूबाई बोली, ‘‘मेरा भाई, आर्थर साहब के चपरासी का दोस्त है,’’ कह कर गंगूबाई मटकती हुई चली गई.

अब एनी पौल को घर और महल्लेवालों की परवा नहीं थी. वह नौकरी करने लगीं और इजू बिटिया घर की देखभाल. दत्तक बेटी से इजू नौकरानी बन गई थी. नौकरानी तो वह शुरू से ही थी पर पहले प्रशिक्षण चल रहा था अत: पता नहीं चलता था, अब फुल टाइम जौब है तो पता चल रहा है. इस तरह यह मुद्दा खत्म हो गया था कि बेटी है या नौकरानी. अब मुद्दा यह था कि उस के पास फुल टाइम मेड क्यों है? धीरेधीरे यह मुद्दा भी ठंडा पड़ने लगा.

इजाबेला ने नया माहौल स्वीकार कर लिया था. उस के पास और कोई चारा भी तो नहीं था. हंसतीमुसकराती इजाबेला सुबह काम में जुटती तो रात को 11-12 बजे ही बिस्तर पर जाने को मिलता. किसी दिन मेहमान आ जाते तो बस…

अपने कमरे में जा कर लेटती तो बोझिल पलकें लिए ‘रानी’ बन सुदूर गांव के अपने मांबाप के पास पहुंच जाती. सागर के किनारे खेलती रानी, रेत में घर बनाती रानी, छोटे भाईबहनों को संभालती रानी. बीमार मां की जगह राजश्री मैडम के घर बरतन मांजती… मां ने एक दिन उस के शराबी बाप से रोतेरोते कहा था, ‘शराब के लिए तू ने अपनी बेटी को बेच दिया है.’ उसे याद है एनी पौल का छुट्टियों में राजश्री के घर आना.

वह आंखें बंद कर मां के गले लग कर रोती. उसे इस तरह रोते 3 साल हो गए हैं. एनी मैडम ने कहा था कि हर साल छुट्टी पर उसे घर भेजेगी. कल वह जरूर बात करेगी.

अगली सुबह एडी को तेज बुखार था और वह सब भूल गई. एडी से तो उसे बहुत लगाव था. वह भी उस से खूब बातें करता था. इजाबेला पूरीपूरी रात एडी के कमरे में बैठ कर काट देती. पलक तक न झपकाती थी.

तीसरी रात जाने कैसे उसे नींद आ गई. और जब नींद खुली तो देखा आर्थर उस के ऊपर झुका हुआ था. वह जोरों से चीख पड़ी. पता नहीं किसी ने सुना या नहीं. अब इजाबेला आर्थर को जब भी देखती तो उस में अपने बाप का चेहरा नजर आता. इसीलिए वह बड़ी सहमी सी रहने लगी और फिर एक भरी दोपहरी में इजू बड़ी जोर से चीखी थी पर महानगरीय शिष्टता में उस की चीख किसी ने नहीं सुनी.

सुघड़, हंसमुख इजू अब सूखती जा रही थी. वह हर किसी को ऐसे देखती जैसे कुछ कहना चाह रही हो पर किसे क्या बताए, एनी को? वह मानेगी? और किसी से बात करे? पर ये लोग जिंदा नहीं छोड़ेंगे. ऐसे कई सवाल उस के मन में उमड़तेघुमड़ते रहे और ताड़ती निगाहों ने जो कुछ अनुमान लगाया उस की सुगबुगाहट घर के बाहर होने लगी. चर्चा में कालोनी की औरतें कहती थीं, ‘‘गंगूबाई पक्की खबर लाई थी.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘क्या आर्थर के चपरासी ने बताया?’’

‘‘नहीं, कल घर में कोई नहीं था. इजाबेला ने खुद ही बताया.’’

‘‘एनी मेम साहब को नहीं पता? आर्थर जबरदस्ती पैसे दे देता है और साथ में धमकी भी.’’

‘‘मैं बताऊंगी एनी मेम साहब को,’’ गंगूबाई बोली.

‘‘नहीं, गंगूबाई. वह बेचारी पिट जाएगी,’’ हमदर्दी जताते हुए समीरा बोली.

और एक दिन एनी ने भी देख लिया. उस का पति इतना गिर सकता है? उस ने अब ध्यान से बड़ी होती इजू को देखा. रंग पक्का होने पर भी आकर्षक लगती थी. एनी ने आर्थर को आड़े हाथों लिया. फिर अपने घर की इज्जत बखूबी बचाई थी. अगली सुबह ‘इजू बिटिया’ को पीटपीट कर बरामदे में लाया गया.

‘‘जिस थाली में खाती है उसी में छेद करती है,’’ गुस्से से एनी बोलीं, ‘‘हम इतने प्यार से रखते रहे और इसे देखो… यह ले अपना सामान, यह रहे तेरे पैसे… अब कभी मत आना यहां…’’

तभी गंगूबाई जाने कहां से आ पहुंची.

‘‘क्यों मार रही हो बेचारी को?’’

‘‘बेचारी? जानती हो क्या गुल खिला रही है?’’

‘‘गुल इस ने खिलाया है या तुम्हारे साहब ने?’’

‘‘गंगूबाई, यह मेरी बच्ची की तरह है. गलती करने पर पेट जाए को भी मारते हैं या नहीं? इस ने चोरी की है,’’ कहतेकहते उस की नजर इजू पर पड़ी.

इजू ने बस यही कहा, ‘‘मैं ने चोरी नहीं की.’’

गंगूबाई चिल्ला पड़ी थी, ‘‘मुझे पता है क्या बात है? ऐसे बाप होते हैं… सगी बेटी होती तो उसे देख कर भी लार टपकाता क्या?’’

जिन लोगों ने यह सुना सकते में आ गए.

‘‘एनी,’’ आर्थर का कहना था, ‘‘ऐसे ही होते हैं यह लोग. घटिया, जितना प्यार करो उतना ही सिर पर चढ़ते हैं. बदनाम करा दिया मुझे न,’’ आर्थर देख रहा था कि गंगूबाई की बात का लोगों ने लगभग यकीन कर लिया था.

और वे लोग जो उस के बेटी या नौकरानी होने के मुद्दे को ले कर कल तक परेशान थे, आज चुप थे. कल को उन के नौकरनौकरानी भी कुछ ऐसा कह सकते हैं न. भई, इन लोगों का क्या भरोसा? ये तो होते ही ऐसे हैं, झट से नई कहानी गढ़ लेते हैं. कल को कुछ भी हो सकता है, सच भी, झूठ भी. अगर इजू का साथ देते हैं तो कल उन का साथ कौन देगा.

एनी को लगा कि सभी उसे देख रहे हैं और उस का मजाक बना रहे हैं. इसलिए दरवाजा बंद करते हुए और जोर से बोली थीं, ‘‘शुक्र है पुलिस में नहीं दिया.’’

अपने ट्रंक पर बैठी इजाबेला गेट के बाहर रो रही थी.

गंगूबाई आगे आई थी.

‘‘चल मेरे साथ. पैसा नहीं दे सकती पर सहारा तो दे सकती हूं. सब से बड़ी बात मर्द नहीं है मेरे घर में. जो खाती हूं वही मिलेगा तुझे भी. एकदूसरे की मदद करेंगे हम दोनों. चल, पर मैं इज्जाबेला न कहूंगी. ये कोई नाम हुआ भला? या तो इज्जा या बेला… बेला ठीक है न?’’

बेला धीरेधीरे गंगूबाई के पीछेपीछे चल पड़ी. अपने जैसे लोगों के साथ रहना ही ठीक है.

कुछ दिन बाद सब ने देखा कि बेला अपनी नई मां गंगूबाई के साथ काम पर जाने लगी थी.

Satyakatha: प्यार की राह का रोड़ा

सौजन्या-सत्यकथा

अधिकांशत: अवैध संबंधों का अंत दुखदायी ही होता है. इस के बावजूद लोग इस दलदल में धंस जाते हैं. स्वामी और उस की प्रेमिका लालपरी काश इस सच्चाई को समझ पाते तो…

घटना उत्तर प्रदेश के जिला फिरोजाबाद के थाना टूंडला के गांव नगला राधेलाल की है. 30 अक्तूबर की सुबह जब हरभेजी सो कर उठी तो बराबर के कमरे में उन्हें कोई हलचल नहीं दिखी. उस कमरे में उन का बेटा गब्बर बहू विवेक कुमारी उर्फ लालपरी तथा पोते अनुज के साथ सोया था. गब्बर के 2 बच्चे हरभेजी के साथ ही सोए थे. हरभेजी जब गब्बर के कमरे में गईं तो अंदर का दृश्य देखते ही उन के मुंह से चीख निकल गई.

उन का 40 वर्षीय बेटा गब्बर पंखे से बंधे फंदे पर लटका हुआ था, उस के पैर कमरे के फर्श को छू रहे थे. गब्बर के चेहरे से खून टपक रहा था. मां हरभेजी ने बहू लालपरी को आवाज लगाई, लेकिन वह कमरे में नहीं मिली. न ही वहां उस का बेटा अनुज था. बहू की तलाश की गई पर उस का कोई पता नहीं चला. इस घटना से परिवार में कोहराम मच गया.

मां के रोने की आवाज सुन कर उन के और बेटे भी वहां आ गए. कुछ ही देर में मोहल्ले के लोग वहां जमा हो गए. उसी दौरान किसी ने आत्महत्या करने की सूचना पुलिस को फोन द्वारा दे दी.

सूचना पर थानाप्रभारी बी.डी. पांडेय फोर्स सहित घटनास्थल पर पहुंच गए. उन्होंने शव के साथ मकान का भी निरीक्षण किया. सूचना मिलने पर सीओ डा. अरुण कुमार सिंह भी वहां आ गए. निरीक्षण के उपरांत पुलिस ने निष्कर्ष निकाला कि गब्बर ने आत्महत्या नहीं की बल्कि उस की पीटपीट कर हत्या करने के बाद शव को फंदे पर लटकाया गया है.

गब्बर के साथ कमरे में उस की पत्नी ही सोई थी, जो वहां से फरार थी, इसलिए पूरा शक पत्नी पर ही था. अब सवाल यह था कि शव को अकेले पत्नी पंखे पर नहीं लटका सकती. इस काम में किसी ने उस की मदद जरूर की होगी.

पुलिस ने कमरे की तलाशी ली तो वहां एक ऐसी मैक्सी मिली, जिस पर खून लगा हुआ था. पता चला कि वह मैक्सी मृतक की पत्नी लालपरी की थी. लालपरी के कुछ कपड़े और अन्य सामान कमरे से गायब थे. इस से अंदाजा लगाया गया कि वह पति की हत्या के बाद अपना सामान व अपने साथ सोए बच्चे को ले कर फरार हो गई है.

पुलिस ने घर वालों से पूछताछ की तो पता चला कि रात को पतिपत्नी में किसी बात को ले कर झगड़ा हुआ था. झगड़े के समय लालपरी का प्रेमी स्वामी उर्फ सुम्मा भी वहां मौजूद था. स्वामी टूंडला थाने के गांव बन्ना का रहने वाला था. उस समय परिवार के लोगों ने दोनों को समझाबुझा कर झगड़ा शांत करा दिया था. इस के बाद वे अपने कमरे में सोने के लिए चले गए थे.

मृतक के भाई योगेश ने पुलिस को बताया कि शादी के पहले से ही लालपरी के स्वामी से अवैध संबंध थे.

मौके की जांच करने के बाद पुलिस ने गब्बर की लाश पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल फिरोजाबाद भेज दी. पुलिस ने मृतक के भाई योगेश की ओर से विवेक कुमारी उर्फ लालपरी व उस के प्रेमी स्वामी उर्फ सुम्मा के खिलाफ भादंवि की धारा 302 के तहत रिपोर्ट दर्ज कर ली.

रिपोर्ट दर्ज होने के बाद पुलिस नामजद आरोपियों की तलाश में जुट गई. पुलिस ने कई संभावित स्थानों पर दबिश भी दी, लेकिन उन का कोई पता नहीं लगा. तब पुलिस ने मुखबिरों का जाल फैला दिया.

लालपरी की शादी गब्बर से हो जरूर गई थी लेकिन वह उसे शुरू से ही पसंद नहीं था. वह अपने घर वालों की मरजी का विरोध भी नहीं कर सकी थी.

यानी घर वालों की वजह से उस ने गब्बर से शादी कर जरूर ली थी लेकिन उस के दिल में तो उस का प्रेमी बसा था. यही वजह थी कि वह प्रेमी को शादी के बाद भी भुला न सकी.

प्रेमी स्वामी उस के पति की गैरमौजूदगी में उस के घर आनेजाने लगा. जब पति काम पर चला जाता तो मौका देख कर लालपरी प्रेमी को फोन कर बुला लेती थी. इस के बाद दोनों ऐश करते थे लेकिन ऐसी बातें ज्यादा दिनों तक छिपी तो नहीं रहतीं.

लालपरी व स्वामी के संबंधों की जानकारी मोहल्ले के साथ ससुराल के लोगों को भी हो गई. इस की भनक जब गब्बर को लगी तो उस ने कई बार पत्नी को समझाया, लेकिन लालपरी की समझ में कुछ नहीं आया. इस बात को ले कर दोनों में कई बार झगड़ा भी हुआ, पर उस ने प्रेमी से मिलनाजुलना जारी रखा.

घटना के 3 सप्ताह बाद भी लालपरी और उस के प्रेमी स्वामी के बारे में पुलिस को कोई जानकारी नहीं मिली थी. 21 नवंबर, 2018 को पुलिस को एक जरूरी सूचना मिली कि लालपरी और उस का प्रेमी इस समय टूंडला से लगभग 6 किलोमीटर दूर स्थित एफएच मैडिकल कालेज में मौजूद हैं. थानाप्रभारी बी.डी. पांडेय ने एसआई नेत्रपाल शर्मा के नेतृत्व में तुरंत एक पुलिस टीम वहां भेज दी.

पुलिस को अस्पताल में स्वामी घायलावस्था में उपचार कराते मिला, जबकि उस की प्रेमिका लालपरी अस्पताल में उस की देखभाल कर रही थी. पता चला कि स्वामी एक सप्ताह पहले सड़क हादसे में घायल हो गया था. उस के सिर में गहरी चोट लगी थी. उस की प्रेमिका उसे गंभीर हालत में उपचार के लिए एफ.एच. मैडिकल कालेज ले कर आई थी.

लेकिन उपचार के दौरान दोनों के बीच अस्पताल में ही किसी बात को ले कर झगड़ा हो गया था. झगड़े में वे दोनों गब्बर की हत्या को ले कर एकदूसरे पर आरोप लगा रहे थे.

करीब 3 सप्ताह पहले हुई गब्बर की हत्या की जानकारी मीडिया द्वारा अस्पताल के स्टाफ को मिल चुकी थी. उन की बातों से वहां के स्टाफ को यह शक हो गया कि गब्बर हत्याकांड में ये लोग शामिल हैं. इसलिए उन्होंने पुलिस को सूचना दे दी थी. पुलिस ने दोनों हत्यारोपियों को हिरासत में ले लिया.

स्वामी और उस की प्रेमिका लालपरी को थाने ले जा कर उन से पूछताछ की गई. हत्यारोपियों की गिरफ्तारी की खबर पा कर सीओ डा. अरुण कुमार सिंह भी वहां पहुंच गए. उन के सामने थानाप्रभारी बी.डी. पांडेय ने लालपरी और स्वामी से पूछताछ की तो उन्होंने गब्बर की हत्या का जुर्म कबूल कर लिया. उन्होंने गब्बर की हत्या की जो कहानी बताई, वह इस प्रकार थी-

रोजाबाद जिले के गांव नगला राधेलाल के रहने वाले गब्बर की शादी करीब 9 साल पहले विवेक कुमारी उर्फ लालपरी से हुई थी. बाद में वह 3 बच्चों का बाप बन गया. गब्बर के पास खेती की थोड़ी जमीन थी, उस से बमुश्किल परिवार का गुजारा होता था. तब खाली समय में गब्बर राजमिस्त्री का काम कर लेता था.

शादी से पहले ही लालपरी के पैर बहक गए थे. बन्ना गांव के रहने वाले स्वामी उर्फ सुम्मा से उस का चक्कर चल रहा था. करीब एक साल पहले की बात है. लालपरी का अपने प्रेमी स्वामी के साथ रंगरेलियां मनाते हुए अश्लील वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था. इस से गब्बर और उस के परिवार की बड़ी बदनामी हुई थी.

इस के बाद गब्बर को मोहल्ले के लोगों के ताने सुनने पड़े थे. गब्बर ने पत्नी से कहा कि वह स्वामी से संबंध खत्म कर ले, लेकिन वह इतनी बेशर्म हो चुकी थी कि उलटे पति से ही झगड़ने लगती थी. एक बार वह पति से झगड़ कर बन्ना स्थित कांशीराम कालोनी में जा कर रहने लगी थी. कुछ समय बाद जब लालपरी का गुस्सा शांत हो गया तो वह पति के घर लौट आई.

वहां वह कुछ दिनों तक तो ठीक से रही लेकिन बाद में उस ने प्रेमी से मिलनाजुलना फिर शुरू कर दिया. पति जब उसे टोकता तो उसे उस की बात बुरी लगती थी. एक तरह से उसे पति रास्ते का कांटा नजर आने लगा. उस कांटे से वह हमेशा के लिए निजात पाना चाहती थी, ताकि प्रेमी के साथ चैन से रह सके.

एक दिन उस ने इस सिलसिले में प्रेमी से बात करने के बाद पति को ठिकाने लगाने की तरकीब खोजी.

लालपरी ने एक बार पति को मारने के लिए उस के खाने में जहर मिला दिया. जहर का असर होते ही गब्बर सिंह की हालत बिगड़ गई. घर वाले उसे इलाज के लिए तुरंत आगरा ले गए और उसे एक अस्पताल में भरती करा दिया.

परिवार वालों को लालपरी पर शक तो था, लेकिन वे यह भी सोच रहे थे कि कहीं खाने में छिपकली तो नहीं गिर गई. बहरहाल, उन्होंने इस की जानकारी पुलिस को नहीं दी.

उन्होंने लालपरी से इस बारे में पूछताछ की तो उस ने कहा कि हो सकता है उस की लापरवाही से खाने में कोई छिपकली वगैरह गिर गई हो. इस के लिए लालपरी ने घर वालों से माफी मांग ली.

अस्पताल से पति के घर वापस आने के बाद लालपरी ने रोरो कर गब्बर से भी माफी मांग ली. यह सब लालपरी का ड्रामा था. सीधेसादे गब्बर ने पत्नी को इस घटना के बाद भी माफ कर दिया और खुद पत्नी की तरफ से बेफिक्र हो गया.

लालपरी भले ही अपने मतलब के लिए पति से माफी मांग लेती थी, लेकिन हकीकत यह थी कि वह दबंग थी. सीधेसादे गब्बर पर वह अकसर हावी रहती थी. स्वामी से उस के संबंधों को ले कर पति जब उस पर नाराज होता तो वह उलटे उस की शिकायत थाने में कर आती थी.

कई बार वह पति व ससुरालियों के खिलाफ मारपीट की थाने में शिकायत दर्ज करा चुकी थी. इस के चलते पति व ससुराल वाले उस का कोई विरोध नहीं कर पाते थे.

समाज को दिखाने के लिए उस ने करवाचौथ का व्रत भी रखा था. लेकिन वह अब पति से हमेशा के लिए छुटकारा पाना चाहती थी. इस बारे में उस ने अपने प्रेमी स्वामी के साथ एक अंतिम योजना तैयार कर ली थी.

29 अक्तूबर, 2018 को स्वामी लालपरी के घर आया. गब्बर ने स्वामी से तो कुछ नहीं कहा, लेकिन पत्नी से झगड़ने लगा. स्वामी और घर वालों ने दोनों को समझा कर शांत कराया. उसी समय लालपरी ने स्वामी से कह दिया था कि इस कांटे को आज रात ही निकाल देना है. प्रेमिका की बात सुन कर स्वामी वहां से चला गया.

उस रात लालपरी अपने 6 साल के बेटे अनुज के साथ पति के कमरे में ही सोई थी. उस ने कमरे के दरवाजे की कुंडी नहीं लगाई. जब गब्बर गहरी नींद में सो गया तो लालपरी ने फोन कर के प्रेमी को बुला लिया. दोनों ने मिल कर सोते हुए गब्बर को दबोच लिया और मारपीट की, फिर गला दबा कर हत्या कर दी. हत्या करने के बाद इसे आत्महत्या का रूप देने के लिए दोनों ने उस की लाश पंखे पर लटका दी. उस ने अपने प्रेम संबंधों की राह में रोड़ा बने पति को हटा दिया.

पुलिस ने स्वामी उर्फ सुम्मा और लालपरी से पूछताछ के बाद उन्हें गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया, जहां से दोनों को जेल भेज दिया.

लालपरी ने प्यार की खातिर अपने घर को ही नहीं, अपनी मांग के सिंदूर को भी उजाड़ लिया. बच्चों के सिर पर भी मांबाप का साया नहीं रहा. बिलखते हुए बच्चों को देख कर लोग लालपरी को कोस रहे थे कि प्रेमी के साथ जाना था तो ऐसे ही चली जाती, पति को क्यों मार डाला.

-कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

:दिनेश बैजल ‘राज’/ब्रजेश राठौर

आलू वड़ा : दीपक मामी की हरकतों से क्यों परेशान था?

‘‘बाबू, तुम इस बार दरभंगा आओगे तो हम तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे,’’ छोटी मामी की यह बात दीपक के दिल को छू गई.

पटना से बीएससी की पढ़ाई पूरी होते ही दीपक की पोस्टिंग भारतीय स्टेट बैंक की सकरी ब्रांच में कर दी गई. मातापिता का लाड़ला और 2 बहनों का एकलौता भाई दीपक पढ़ने में तेज था. जब मां ने मामा के घर दरभंगा में रहने की बात की तो वह मान गया.

इधर मामा के घर त्योहार का सा माहौल था. बड़े मामा की 3 बेटियां थीं, मझले मामा की 2 बेटियां जबकि छोटे मामा के कोई औलाद नहीं थी.

18-19 साल की उम्र में दीपक बैंक में क्लर्क बन गया तो मामा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वहीं दूसरी ओर दीपक की छोटी मामी, जिन की शादी को महज 4-5 साल हुए थे, की गोद सूनी थी.

छोटे मामा प्राइवेट नौकरी करते थे. वे सुबह नहाधो कर 8 बजे निकलते और शाम के 6-7 बजे तक लौटते. वे बड़ी मुश्किल से घर का खर्च चला पाते थे. ऐसी सूरत में जब दीपक की सकरी ब्रांच में नौकरी लगी तो सब खुशी से भर उठे.

‘‘बाबू को तुम्हारे पास भेज रहे हैं. कमरा दिलवा देना,’’ दीपक की मां ने अपने छोटे भाई से गुजारिश की थी.

‘‘कमरे की क्या जरूरत है दीदी, मेरे घर में 2 कमरे हैं. वह यहीं रह लेगा,’’ भाई के इस जवाब में बहन बोलीं, ‘‘ठीक है, इसी बहाने दोनों वक्त घर का बना खाना खा लेगा और तुम्हारी निगरानी में भी रहेगा.’’

दोनों भाईबहनों की बातें सुन कर दीपक खुश हो गया.

मां का दिया सामान और जरूरत की चीजें ले कर दोपहर 3 बजे का चला दीपक शाम 8 बजे तक मामा के यहां पहुंच गया.

‘‘यहां से बस, टैक्सी, ट्रेन सारी सुविधाएं हैं. मुश्किल से एक घंटा लगता है. कल सुबह चल कर तुम्हारी जौइनिंग करवा देंगे,’’ छोटे मामा खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘आप का काम…’’ दीपक ने अटकते हुए पूछा.

‘‘अरे, एक दिन छुट्टी कर लेते हैं. सकरी बाजार देख लेंगे,’’ छोटे मामा दीपक की समस्या का समाधान करते हुए बोल उठे.

2-3 दिन में सबकुछ सामान्य हो गया. सुबह साढ़े 8 बजे घर छोड़ता तो दीपक की मामी हलका नाश्ता करा कर उसे टिफिन दे देतीं. वह शाम के 7 बजे तक लौट आता था.

उस दिन रविवार था. दीपक की छुट्टी थी. पर मामा रोज की तरह काम पर गए हुए थे. सुबह का निकला दीपक दोपहर 11 बजे घर लौटा था. मामी खाना बना चुकी थीं और दीपक के आने का इंतजार कर रही थीं.

‘‘आओ लाला, जल्दी खाना खा लो. फेरे बाद में लेना,’’ मामी के कहने में भी मजाक था.

‘‘बस, अभी आया,’’ कहता हुआ दीपक कपड़े बदल कर और हाथपैर धो कर तौलिया तलाशने लगा.

‘‘तुम्हारे सारे गंदे कपड़े धो कर सूखने के लिए डाल दिए हैं,’’ मामी खाना परोसते हुए बोलीं.

दीपक बैठा ही था कि उस की मामी पर निगाह गई. वह चौंक गया. साड़ी और ब्लाउज में मामी का पूरा जिस्म झांक रहा था, खासकर दोनों उभार.

मामी ने बजाय शरमाने के चोट कर दी, ‘‘क्यों रे, क्या देख रहा है? देखना है तो ठीक से देख न.’’

अब दीपक को अजीब सा महसूस होने लगा. उस ने किसी तरह खाना खाया और बाहर निकल गया. उसे मामी का बरताव समझ में नहीं आ रहा था.

उस दिन दीपक देर रात घर आया और खाना खा कर सो गया.

अगली सुबह उठा तो मामा उसे बीमार बता रहे थे, ‘‘शायद बुखार है, सुस्त दिख रहा है.’’

‘‘रात बाहर गया था न, थक गया होगा,’’ यह मामी की आवाज थी.

‘आखिर माजरा क्या है? मामी क्यों इस तरह का बरताव कर रही हैं,’ दीपक जितना सोचता उतना उलझ रहा था.

रात खाना खाने के बाद दीपक बिस्तर पर लेटा तो मामी ने आवाज दी. वह उठ कर गया तो चौंक गया. मामी पेटीकोट पहने नहा रही थीं.

‘‘उस दिन चोरीछिपे देख रहा था. अब आ, देख ले,’’ कहते हुए दोनों हाथों से पकड़ उसे अपने सामने कर दिया.

‘‘अरे मामी, क्या कर रही हो आप,’’ कहते हुए दीपक ने बाहर भागना चाहा मगर मामी ने उसे नीचे गिरा दिया.

थोड़ी ही देर में मामीभांजे का रिश्ता तारतार हो गया. दीपक उस दिन पहली बार किसी औरत के पास आया था. वह शर्मिंदा था मगर मामी ने एक झटके में इस संकट को दूर कर दिया, ‘‘देख बाबू, मुझे बच्चा चाहिए और तेरे मामा नहीं दे सकते. तू मुझे दे सकता है.’’

‘‘मगर ऐसा करना गलत होगा,’’ दीपक बोला.

‘‘मुझे खानदान चलाने के लिए औलाद चाहिए, तेरे मामा तो बस रोटीकपड़ा, मकान देते हैं. इस के अलावा भी कुछ चाहिए, वह तुम दोगे,’’ इतना कह कर मामी ने दीपक को बाहर भेज दिया.

उस के बाद से तो जब भी मौका मिलता मामी दीपक से काम चला लेतीं. या यों कहें कि उस का इस्तेमाल करतीं. मामा चुप थे या जानबूझ कर अनजान थे, कहा नहीं जा सकता, मगर हालात ने उन्हें एक बेटी का पिता बना दिया.

इस दौरान दीपक ने अपना तबादला पटना के पास करा लिया. पटना में रहने पर घर से आनाजाना होता था. छोटे मामा के यहां जाने में उसे नफरत सी हो रही थी. दूसरी ओर मामी एकदम सामान्य थीं पहले की तरह हंसमुख और बिंदास.

एक दिन दीपक की मां को मामी ने फोन किया. मामी ने जब दीपक के बारे में पूछा तो मां ने झट से उसे फोन पकड़ा दिया.

‘‘हां मामी प्रणाम. कैसी हो?’’ दीपक ने पूछा तो वे बोलीं, ‘‘मुझे भूल गए क्या लाला?’’

‘‘छोटी ठीक है?’’ दीपक ने पूछा तो मामी बोलीं, ‘‘बिलकुल ठीक है वह. अब की बार आओगे तो उसे भी देख लेना. अब की बार तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे. तुम्हें खूब पसंद है न.’’

दीपक ने ‘हां’ कहते हुए फोन काट दिया. इधर दीपक की मां जब छोटी मामी का बखान कर रही थीं तो वह मामी को याद कर रहा था जिन्होंने उस का आलू वड़ा की तरह इस्तेमाल किया, और फिर कचरे की तरह कूड़ेदान में फेंक दिया.

औरत का यह रूप उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था.

‘मामी को बच्चा चाहिए था तो गोद ले सकती थीं या सरोगेट… मगर इस तरह…’ इस से आगे वह सोच न सका.

मां चाय ले कर आईं तो वह चाय पीने लगा. मगर उस का ध्यान मामी के घिनौने काम पर था. उसे चाय का स्वाद कसैला लग रहा था.

करवा चौथ की कालरात्रि

27अक्तूबर, 2018 की बात है. उस दिन करवाचौथ का त्यौहार था. सुहागिन महिलाओं का यह सब से बड़ा त्यौहार होता है. इस व्रत में अन्न तो दूर पानी तक नहीं पीया जाता. दीपिका ने अपने पति विक्रम सिंह चौहान की लंबी उम्र के लिए व्रत रखा था. इसलिए दीपिका ने सुबह से न तो पानी पीया और न ही कुछ खाया. हालांकि दीपिका को इस तरह के व्रत की ज्यादा आदत नहीं थी, लेकिन फिर भी वह सामाजिक रीतिरिवाजों को तोड़ना नहीं चाहती थी.

आजकल फिल्मों और टीवी सीरियलों के साथ बाजारीकरण ने करवाचौथ को पूरी तरह ग्लैमराइज कर फेस्टिवल का रूप दे दिया है. आधुनिक विचारों के पुरुष भी आजकल पत्नी के साथ करवाचौथ का व्रत रखते हैं.

दीपिका ने उस दिन अपने तरीके से सजनेसंवरने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. शृंगार करने के साथ उस ने शिफान की नई कीमती साड़ी पहनी. घर में रखे आभूषणों में से नेकलेस और एकदो अन्य जेवर भी पहने.

हालांकि दीपिका करीब 32 साल की हो गई थी, लेकिन शृंगार करने से उस की उम्र 25 साल से ज्यादा की नहीं लग रही थी. सजसंवर कर दीपिका ने दीवार पर लगे आदमकद आईने में खुद को निहारा. फिर होंठों पर लिपस्टिक लगाते हुए अपने रूपसौंदर्य को देख कर मन ही मन मुसकरा उठी.

सजनेसंवरने के बाद दीपिका ने पति विक्रम को फोन मिलाया, ‘‘डियर, आज जल्दी घर आ जाना. आज मैं ने तुम्हारे लिए व्रत कर रखा है. रात को चांद निकलने के बाद तुम्हारे हाथ से पानी पी कर ही व्रत खोलूंगी.’’

विक्रम ने दीपिका को भरोसा दिलाते हुए कहा, ‘‘डोंट वरी, मैं जल्दी घर आ जाऊंगा. अच्छा, यह बताओ तुम्हारे लिए बाजार से क्या लाऊं?’’

‘‘मुझे कुछ नहीं चाहिए. बस आज तुम जल्दी आ जाओ, यही काफी है.’’ दीपिका ने कहा और फोन डिसकनेक्ट कर दिया.

पत्नी के कहने के बाद भी विक्रम उस दिन शाम 7 बजे के बाद ही घर आया. जब वह घर पहुंचा तो उस के मातापिता भी वहां आए हुए थे, जो गुड़गांव की ही अंसल वैली में रहते थे.

विक्रम घर आ कर फ्रैश हुआ. इस के बाद उस के मातापिता ने उसे समझाया कि वह दीपिका को तलाक देने की सोचे भी नहीं. साथ ही यह भी कहा कि वह शेफाली भसीन से संबंध तोड़ ले.

दरअसल, विक्रम का शेफाली नाम की एक महिला से चक्कर चल रहा था. उसी के लिए वह पत्नी दीपिका को तलाक देने की जिद पर अड़ा हुआ था. इस बीच दीपिका भी वहीं बैठी चुपचाप उन की बातें सुनती रही.

मातापिता के काफी समझाने पर भी विक्रम दीपिका से तलाक लेने की जिद कर रहा था. जब विक्रम नहीं माना तो थकहार कर उस के मातापिता भी अपने फ्लैट पर चले गए.

विक्रम सिंह चौहान और दीपिका गुड़गांव में डीएलएफ फेज-1 इलाके में स्थित अंसल वैली व्यू सोसायटी के टावर-3 में आठवीं मंजिल पर रहते थे. विक्रम एक निजी कंपनी स्काइलार्क में बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर के पद पर नौकरी करता था.

दीपिका साइबर हब गुड़गांव में निजी क्षेत्र के इंडसइंड बैंक में डिप्टी मैनेजर के पद पर कार्यरत थी. विक्रम और दीपिका के 2 बच्चे थे. करीब 4 साल की बड़ी बेटी और 5 महीने का छोटा बेटा.

उस रात उत्तर भारत में चांद उगने का समय लगभग 8 बज कर 6 मिनट था, लेकिन आसमान में बादल छाने और धुंध का असर होने के कारण काफी देर तक चांद नजर नहीं आया. बाद में जब चांद दिखाई दिया तो दीपिका ने छलनी से चांद के दर्शन किए और अर्घ्य दिया. इस के बाद छलनी से उस ने पति विक्रम का अक्स देखा

फिर दीपिका व्रत खोलने की तैयारी करने लगी. लेकिन इस बीच विक्रम कहीं जाने लगा तो दीपिका को शक हुआ कि वह शेफाली के पास जा रहा है. शेफाली से विक्रम के संबंधों को ले कर दोनों में झगड़ा होने लगा.

इस के कुछ देर बाद रात करीब पौने 10 बजे सोसायटी के लोगों को तेज चीख के साथ किसी के ऊंचाई से गिरने की आवाज सुनाई दी. आवाज सुन कर सोसायटी के सिक्योरिटी वाले वहां पहुंच गए. कई फ्लैटों के परिवार भी आवाज सुन कर भूतल पर आ गए. वहां लोगों ने देखा कि एक महिला जमीन पर गिरी हुई थी.

सिक्योरिटी वालों के साथ सोसायटी के अन्य लोगों ने उस महिला को पहचान लिया. वह उसी बिल्डिंग की 8वीं मंजिल पर रहने वाली दीपिका थी. मतलब वह 8वीं मंजिल से गिरी थी. लोगों ने दीपिका की नब्ज देखी, लेकिन उस में जीवन के कोई लक्षण नजर नहीं आए. उस के दिल की धड़कन भी थम चुकी थी.

इस बीच दीपिका का पति विक्रम भी नीचे आ गया. वह दीपिका को देख कर उस से लिपट गया और रोते हुए कहने लगा, ‘‘दीपिका, तुम मुझे छोड़ कर क्यों चली गई?’’

सोसायटी के सिक्योरिटी वालों ने पुलिस को इस की सूचना दे दी. पुलिस कंट्रोल रूम से सूचना मिलने पर ग्वाल पहाड़ी पुलिस चौकी इंचार्ज विनय कुमार मौके पर पहुंच गए.

पुलिस ने मौकामुआयना कर विक्रम से प्रारंभिक पूछताछ की और लाश पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल की मोर्चरी में भिजवा दी. पुलिस ने इस बारे में रात को ही सोसायटी के कुछ लोगों से पूछताछ की.

पूछताछ में पुलिस को पता चला कि विक्रम और दीपिका में कई महीनों से झगड़ा चल रहा था. झगड़े का कारण विक्रम के शेफाली से प्रेम संबंध थे. इसी बात को ले कर दोनों में अकसर झगड़ा होता था.

पुलिस ने विक्रम से पूछताछ की तो उस ने बताया कि आज वह औफिस में लेट हो गया था. दीपिका बारबार फोन कर रही थी. वह उस से जल्दी आने को कह रही थी पर वह औफिस से जल्द नहीं आ सका. जब वह घर पहुंचा तो इस बात को ले कर दीपिका उस से झगड़ा करने लगी. वह कह रही थी कि वह मायके जा रही है. दीपिका मायके जाने के लिए निकली तो वह उसे सीढि़यों के पास छोड़ने के लिए आया, तभी दीपिका ने गुस्से में बालकनी से नीचे छलांग लगा दी.

मामला संदिग्ध था, इसलिए पुलिस ने रात को ही दीपिका के मायके वालों को सूचना दे दी. उस दिन पुलिस की जांचपड़ताल में आधी रात से ज्यादा का समय बीत गया, इसलिए आगे की काररवाई और पोस्टमार्टम अगले दिन करना तय किया गया.

दीपिका के पिता हरिकिशन आहूजा चंडीगढ़ में रहते हैं. खबर सुनते ही वह अपने घरवालों के साथ 28 अक्तूबर को गुड़गांव पहुंच गए. आहूजा ने पुलिस को बताया कि दीपिका ने करीब 5 साल पहले सन 2013 में गुड़गांव के रहने वाले विक्रम सिंह चौहान से प्रेम विवाह किया था. शादी के समय दीपिका की नियुक्ति गुड़गांव में ही थी.

आहूजा ने पुलिस को बताया कि विक्रम के अंसल वैली की ही रहने वाली शेफाली नाम की किसी विवाहित महिला से प्रेम संबंध थे. दीपिका इस का विरोध करती थी तो विक्रम उस से मारपीट करता था. कई बार विक्रम अपनी उस महिला मित्र के घर चला जाता था. वह महिला भी विक्रम के फ्लैट पर आती रहती थी.

आहूजा ने आरोप लगाया कि करवाचौथ की रात दीपिका और उस के पति विक्रम के बीच उसी महिला को ले कर विवाद हुआ था. इस की जानकारी दीपिका ने उन्हें फोन कर के दी थी. इस दौरान गुस्से में विक्रम ने दीपिका को बालकनी से नीचे फेंक दिया. उन्होंने दीपिका के पति विक्रम सिंह चौहान के खिलाफ हत्या की रिपोर्ट दर्ज करा दी.

पुलिस ने दीपिका के शव का पोस्टमार्टम कराने के बाद लाश उस के परिजनों को सौंप दी. दीपिका का विसरा जांच के लिए विधिविज्ञान प्रयोगशाला भेज दिया गया.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पता चला कि करवाचौथ के व्रत के कारण उस के पेट में अन्न का एक दाना नहीं गया था. भूख व प्यास की वजह से उस की अंतडि़यां सूखी हुई थीं. होंठों पर मोटी पपड़ी जम गई थी.

डीएलएफ फेज-1 थाना पुलिस ने आवश्यक जांचपड़ताल के बाद दीपिका के पति विक्रम सिंह को गिरफ्तार कर लिया. पुलिस ने 29 अक्तूबर को उसे अदालत में पेश कर 2 दिन के रिमांड पर लिया.

पुलिस ने जांचपड़ताल की तो यह बात सामने आई कि दीपिका को धक्का दे कर गिराया गया था. इस के कुछ चश्मदीद भी पुलिस को मिले. दूसरी ओर रिमांड के दौरान पूछताछ में विक्रम लगातार यही कहता रहा कि दीपिका ने खुद ही छलांग लगाई थी. अफेयर के बारे में विक्रम ने पुलिस को बताया कि शेफाली से केवल उस की जानपहचान थी. वह शादीशुदा महिला है.

पुलिस ने उस महिला के बारे में पता लगा कर उस से पूछताछ करने का फैसला किया. अपार्टमेंट के लोगों से महिला का पता मिल गया. पुलिस जब शेफाली के फ्लैट पर पहुंची तो पता चला, वह 6-7 महीने की गर्भवती है और फिलहाल अस्पताल में भरती है.

अस्पताल में शेफाली से पूछताछ संभव नहीं थी, इसलिए पुलिस ने अस्पताल से उसे छुट्टी मिलने का इंतजार किया. विक्रम की 2 दिन की रिमांड अवधि पूरी होने तक पुलिस उस से ऐसी कोई बात नहीं उगलवा सकी, जिस से यह साबित होता कि दीपिका की हत्या की गई थी.

इस दौरान पुलिस को कोई अन्य ठोस सबूत भी नहीं मिला. इस पर पुलिस ने 31 अक्तूबर को विक्रम को फिर अदालत में पेश कर 3 दिन का रिमांड मांगा. अदालत ने विक्रम का 2 दिन का रिमांड और बढ़ा दिया.

बाद में पुलिस ने विक्रम का मोबाइल और लैपटौप जब्त कर लिया. इन की जांच में पता चला कि विक्रम शेफाली के संपर्क में था. दोनों वाट्सऐप और कई सोशल साइट के जरिए चैटिंग करते थे.

ईमेल की जांच में गूगल ड्राइव पर दोनों के निजी फोटो और वीडियो भी पुलिस को मिले. इस बीच रिमांड अवधि पूरी होने पर पुलिस ने विक्रम को अदालत में पेश किया. अदालत ने उसे जेल भेज दिया.

दोनों की चैट हिस्ट्री और ईमेल में मिले सबूतों के आधार पर पुलिस ने कई दिन की जांचपड़ताल के बाद 13 नवंबर, 2018 को विक्रम सिंह चौहान की 35 वर्षीय महिला मित्र शेफाली भसीन को गिरफ्तार कर लिया.

पुलिस ने शेफाली को दीपिका की हत्या की साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया. जरूरी पूछताछ और सबूत जुटाने के बाद पुलिस ने उसे अदालत में पेश किया, जहां से उसे भोंडसी जेल भेज दिया. पुलिस को जांच में पता चला कि गुड़गांव की अंसल वैली व्यू के उसी अपार्टमेंट में रहने वाली शेफाली शादीशुदा थी. वह पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद एक टीवी न्यूज चैनल में भी काम कर चुकी थी.

पुलिस की ओर से विक्रम और शेफाली से की गई पूछताछ और जुटाए गए सबूतों से दीपिका हत्याकांड की जो कहानी सामने आई, वह इस प्रकार है—

शेफाली ने अपने कालेज के बौयफ्रैंड से शादी की थी. वह अपने पति के साथ गुड़गांव की अंसल वैली व्यू में रहती थी. शेफाली का पति अमेरिका की एक कंपनी में काम करता था.

उस का पति अप्रैल 2015 में अंसल वैली का अपना दूसरा फ्लैट बेचना चाहता था. इसी सिलसिले में शेफाली की विक्रम सिंह चौहान से पहली बार मुलाकात हुई थी. बाद में उन की मुलाकातें बढ़ती गईं और उन के बीच दोस्ती हो गई.

विक्रम और शेफाली की मौर्निंग वाक पर अकसर रोजाना मुलाकातें होने लगीं. ये मुलाकातें और दोस्ती धीरेधीरे प्यार में बदल गई. विक्रम को जब भी मौका मिलता, वह शेफाली के फ्लैट पर चला जाता था. शेफाली भी विक्रम के फ्लैट पर आतीजाती थी.

विक्रम और शेफाली की प्रेम कहानी की जानकारी उस अपार्टमेंट में रहने वाले लोगों को भी हो गई थी. बाद में विक्रम की पत्नी दीपिका को भी इस बारे में पता चल गया. दीपिका ने इस बात का विरोध किया तो विक्रम को यह बात नागवार लगी. उस ने दीपिका से मारपीट की. यह दीपिका की मौत से करीब साल भर पहले की बात है.

पत्नी के बारबार समझाने के बाद भी विक्रम की आदतों में कोई सुधार नहीं आया. वह शेफाली के मोहपाश में बंधा रहा. दोनों के बीच संबंध बने रहे. दीपिका किसी भी तरह अपने पति और परिवार को टूटने से बचाना चाहती थी. इसलिए उस ने अपने परिवारजनों और ससुराल वालों से बात की. सभी ने विक्रम को बहुत समझाया लेकिन विक्रम ने सब की बातों को अनसुना कर दिया. वह अपनी करतूतों से बाज नहीं आया.

विक्रम और शेफाली की नजदीकियां कम होने के बजाय बढ़ती गई. अप्रैल, 2018 में दोनों 5 दिन के टूर पैकेज पर घूमने के लिए लेह-लद्दाख गए. इसी दौरान विक्रम और शेफाली ने आपस में शादी करने का फैसला कर लिया. लेकिन परेशानी यह थी कि दोनों ही शादीशुदा थे.

शेफाली ने विक्रम को विश्वास दिलाया कि वह अपने पति से तलाक लेने की बात कर लेगी, लेकिन विक्रम के लिए दीपिका के रहते हुए शेफाली से शादी करना मुश्किल था. इस के बाद दोनों ने इस बात पर विचार किया कि दीपिका से कैसे पीछा छुड़ाया जाए.

लेह-लद्दाख से लौटने के बाद विक्रम ने दीपिका से तलाक लेने की बात कही. लेकिन दीपिका ने इनकार कर दिया. इस पर दोनों के बीच झगड़े होने लगे. दीपिका ने अपने पति से तलाक लेने के बारे में अपनी मां से बात की, तो मां ने उसे पति के परमेश्वर होने की सीख दे कर चुप करा दिया.

दीपिका की मां को भरोसा था कि बेटी की कोशिशों से विक्रम का मन बदल जाएगा. दीपिका ने सासससुर से भी विक्रम के तलाक मांगने पर बात की. इस पर उन्होंने भी बेटे को कई बार समझाया, लेकिन विक्रम ने किसी की बात नहीं मानी.

इस बीच शेफाली ने पति को अपने अफेयर के बारे में बता दिया और उस से तलाक लेने की बात कही. इस पर शेफाली का पति तलाक देने पर सहमत हो गया. उस ने तलाक के पेपर भी तैयार करवा लिए थे.

दूसरी ओर दीपिका के तलाक न देने से विक्रम और शेफाली परेशान थे. दीपिका से पीछा छुड़ाने के लिए विक्रम उसे नैनीताल ले कर गया. उस की योजना थी कि नैनीताल में वह पहाड़ों पर घूमने के दौरान दीपिका को धक्का दे देगा.

इस तरह उस का दीपिका से पीछा छूट जाएगा. लेकिन दीपिका को खतरे का अहसास हो गया, इसलिए वह होटल के कमरे से बाहर नहीं निकली. वह पहाड़ों पर भी नहीं गई. विक्रम के साथ वह केवल बाजार जाने को तैयार हुई.

विक्रम और दीपिका के नैनीताल में रहने के दौरान भी शेफाली की विक्रम से सोशल मीडिया पर लगातार चैटिंग होती रही. इस में शेफाली विक्रम को दीपिका से छुटकारा पाने के लिए उकसाती रही. दीपिका के पहाड़ों पर चलने से इनकार करने पर विक्रम और दीपिका में झगड़ा हो गया था.

इस के बाद विक्रम पत्नी व बच्चों के साथ तीसरे दिन ही गुड़गांव वापस लौट आया. नैनीताल से लौटने से पहले विक्रम ने शेफाली को मैसेज भेज दिया था कि वह कहीं नहीं जा रही, इसलिए साइट सीन देखने का प्लान रद्द करना पड़ा है.

दीपिका और विक्रम के नैनीताल से गुड़गांव लौटने के दूसरे ही दिन करवाचौथ थी. करवाचौथ पर विक्रम के लिए दीपिका ने तो व्रत रखा ही था, विक्रम के लिए उस की प्रेमिका शेफाली ने भी व्रत किया था. करवाचौथ के दिन भी शेफाली ने विक्रम से दीपिका को मारने के संबंध में गूगल टाक के जरिए बात की थी. इस में शेफाली ने कहा, ‘‘कमीनी को बालकनी से नीचे फेंक दो.’’

उस दिन शाम को जब विक्रम औफिस से अपने फ्लैट पर आया तो उसे दीपिका के साथ मातापिता भी मिले. मातापिता ने भी उसे समझाया. लेकिन उस ने उन की बात नहीं मानी.

इस दौरान शेफाली का मैसेज विक्रम के मोबाइल पर फिर आया. इस में उस ने विक्रम को ताना मारते हुए कहा कि तुम लूजर हो. तुम से कुछ नहीं होगा. इस से विक्रम बौखला गया. उस ने दीपिका से उसी समय पीछा छुड़ाने का फैसला कर लिया.

रात करीब 9 बज कर 37 मिनट पर उस ने बाहर बालकनी में खड़ी दीपिका को आठवीं मंजिल से नीचे धक्का दे दिया. कहा जाता है कि इस दौरान विक्रम का भाई अमित भी उस के साथ था. दीपिका उस से विनती करती रही कि मुझे मत मारो, मैं अपने बच्चों से बेहद प्यार करती हूं.

धक्का देते समय दीपिका ने विक्रम के एक हाथ को कस कर पकड़ लिया था. लेकिन विक्रम ने अपना हाथ उस से छुड़ा लिया. इस से विक्रम की कलाई पर दीपिका के नाखूनों के निशान भी आ गए, जो बाद में मैडिकल जांच में सामने आए.

दीपिका ने अपने बचाव के लिए काफी हाथपैर मारे. उस ने अपने पैर बालकनी की रेलिंग में फंसा लिए, लेकिन विक्रम ने उस के पैरों को रेलिंग से खींच कर धक्का दे दिया.

दीपिका के नीचे गिरते ही विक्रम मदद के लिए चिल्लाता हुआ नीचे की तरफ भागा. जिस समय दीपिका को धक्का दिया गया था, उस समय दीपिका का दुधमुंहा बेटा और मासूम बेटी अपने कमरे में सो रहे थे.

पुलिस को जांचपड़ताल में दीपिका की हत्या में अमित के शामिल होने का भी पता चला है. पड़ोसियों ने पुलिस को बताया कि दीपिका को 8वीं मंजिल से फेंकने के दौरान अमित भी फ्लैट पर मौजूद था. अमित गुड़गांव में ही एक कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर है. अमित अंसल वैली में ही अपने मातापिता के साथ दूसरे फ्लैट में रहता है.

शेफाली की गिरफ्तारी के बाद वह फरार हो गया. कथा लिखे जाने तक पुलिस अमित को तलाश रही थी. अमित के पिता ने उस के विदेश जाने की बात पुलिस को बताई है, जबकि पुलिस का मानना है कि आरोपी अमित देश में ही कहीं छिपा हुआ है. पुलिस ने अमित की गिरफ्तारी के लिए हवाई अड्डों पर अलर्ट भेजा है.

गुड़गांव की जिला अदालत ने दीपिका की हत्या की सहआरोपी शेफाली को 25 नवंबर, 2018 को 2 महीने के लिए अंतरिम जमानत पर रिहा कर दिया. अदालत ने मैडिकल ग्राउंड पर शेफाली को यह राहत दी.

करीब 8 महीने की गर्भवती शेफाली ने अदालत में याचिका दाखिल कर कहा था कि डाक्टरों ने उस की प्रीमैच्योर डिलिवरी की आशंका जताई है. अदालत ने शेफाली की याचिका मंजूर करते हुए आदेश दिया कि इस 2 महीने के दौरान उसे देश से बाहर जाने की इजाजत नहीं होगी.

यह विडंबना रही कि दीपिका के लिए करवाचौथ का त्यौहार काल बन कर आया. जिस पति के लिए दीपिका ने करवाचौथ का व्रत रखा, उसी ने दूसरी मोहब्बत के लिए ब्याहता को मौत की नींद सुला दिया.

शेफाली ने विक्रम को हासिल करने के लिए भले ही दीपिका को मरवा दिया, लेकिन क्या वह कभी चैन की नींद सो पाएगी.

सामाजिक पतन की इंतहा में 2 मासूम बच्चों के सिर से मां का आंचल तो छिन ही गया, पिता का प्यार भी उन्हें नहीं मिल पाएगा. फिलहाल दोनों मासूम ननिहाल में हैं.

चिराग नहीं बुझा

गोंडू लुटेरा उस कसबे के लोगों के लिए खौफ का दूसरा नाम बना हुआ था. भद्दे चेहरे, भारी डीलडौल वाला गोंडू बहुत ही बेरहम था. वह लोफरों के एक दल का सरदार था. अपने दल के साथ वह कालोनियों पर धावा बोलता था. कहीं चोरी करता, कहीं मारपीट करता और जोकुछ लूटते बनता लूट कर चला जाता.

कसबे के सभी लोग गोंडू का नाम सुन कर कांप उठते थे. उसे तरस और दया नाम की चीज का पता नहीं था. वह और उस का दल सारे इलाके पर राज करता था.

पुलिस वाले भी गोंडू लुटेरा से मिले हुए थे. पार्टी का गमछा डाले वह कहीं भी घुस जाता और अपनी मनमानी कर के ही लौटता.

गोंडू का मुकाबला करने की ताकत कसबे वालों में नहीं थी. जैसे ही उन्हें पता चलता कि गोंडू आ रहा है, वे अपनी दुकान व बाजार छोड़ कर अपनी जान बचाने के लिए इधरउधर छिप जाते.

यह इतने लंबे अरसे से हो रहा था कि गोंडू और उस के दल को सूनी गलियां देखने की आदत पड़ गई थी.

बहुत दिनों से उन्होंने कोई दुकान नहीं देखी थी जिस में लाइट जल रही हो. उन्हें सूनी और मातम मनाती गलियों और दुकानों के अलावा और कुछ भी देखने को नहीं मिलता था.

एक अंधेरी रात में गोंडू और उस के साथी लुटेरे जब एक के बाद एक दुकानों को लूटे जा रहे थे तो उन्हें बाजार खाली ही मिला था.

‘‘तुम सब रुको…’’ अचानक गोंडू ने अपने साथियों से कहा, ‘‘क्या तुम्हें वह रोशनी दिखाई दे रही है जो वहां एक दुकान में जल रही है?

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‘‘जब गोंडू लूटपाट पर निकला हो तो यह रोशनी कैसी? जब मैं किसी महल्ले में घुसता हूं तो हमेशा अंधेरा ही मिलता है.

‘‘उस रोशनी से पता चलता है कि कोई ऐसा भी है जो मुझ से जरा भी नहीं डरता. बहुत दिनों के बाद मैं ने ऐसा देखा है कि मेरे आने पर कोई आदमी न भागा हो.’’

‘‘हम सब जा कर उस आदमी को पकड़ लाएं?’’ लुटेरों के दल में से एक ने कहा.

‘‘नहीं…’’ गोंडू ने मजबूती से कहा, ‘‘तुम सब यहीं ठहरो. मैं अकेला ही उस हिम्मती और पागल आदमी से अपनी ताकत आजमाने जाऊंगा.

‘‘उस ने अपनी दुकान में लाइट जला कर मेरी बेइज्जती की है. वह आदमी जरूर कोई जांबाज सैनिक होगा. आज बहुत लंबे समय बाद मुझे किसी से लड़ने का मौका मिला है.’’

जब गोंडू दुकान के पास पहुंचा तो यह देख कर हैरान रह गया कि एक बूढ़ी औरत के पास दुकान पर केवल 12 साल का एक लड़का बैठा था.

औरत लड़के से कह रही थी, ‘‘सभी लोग बाजार छोड़ कर चले गए हैं. गोंडू के यहां आने से पहले तुम भी भाग जाओ.’’

लड़के ने कहा, ‘‘मां, तुम ने मुझे जन्म  दिया, पालापोसा, मेरी देखभाल की और मेरे लिए इतनी तकलीफें उठाईं. मैं तुम्हें इस हाल में छोड़ कर कैसे जा सकता हूं? तुम्हें यहां छोड़ कर जाना बहुत गलत होगा.

‘‘देखो मां, मैं लड़ाकू तो नहीं??? हूं, एक कमजोर लड़का हूं, पर तुम्हारी हिफाजत के लिए मैं उन से लड़ कर मरमिटूंगा.’’

एक मामूली से लड़के की हिम्मत को देख कर गोंडू हैरान हो उठा. उस समय उसे बहुत खुशी होती थी जब लोग उस से जान की भीख मांगते थे, लेकिन इस लड़के को उस का जरा भी डर नहीं.

‘इस में इतनी हिम्मत और ताकत कहां से आई? जरूर यह मां के प्रति प्यार होगा,’ गोंडू को अपनी मां का खयाल आया जो उसे जन्म देने के बाद मर गई थी. अपनी मां के चेहरे की हलकी सी याद उस के मन में थी.

उसे अभी तक याद है कि वह किस तरह खुद भूखी रह कर उसे खिलाती थी. एक बार जब वह बीमार था तब वह कई रात उसे अपनी बांहों में लिए खड़ी रही थी. वह मर गई और गोंडू को अकेला छोड़ गई. वह लुटेरा बन गया और अंधेरे में भटकने लगा.

गोंडू को ऐसा महसूस हुआ कि मां की याद ने उस के दिल में एक रोशनी जला दी है. उस की जालिम आंखों में आंसू भर आए. उसे लगा कि वह फिर बच्चा बन गया है. उस का दिल पुकार उठा, ‘मां… मां…’

उस औरत ने लड़के से फिर कहा, ‘‘भाग जाओ मेरे बच्चे… किसी भी पल गोंडू इस जलती लाइट को देख कर दुकान लूटने आ सकता है.’’

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तभी गोंडू दुकान में घुसा. मां और बेटा दोनों डर गए.

गोंडू ने कहा, ‘‘डरो नहीं, किसी में इस लाइट को बुझाने की ताकत नहीं है. मां के प्यार ने इसे रोशनी दी है और यह सूरज की तरह चमकेगा. दुकान छोड़ कर मत जाओ.

‘‘बदमाश गोंडू मर गया है. तुम लोग यहां शांति से रहो. लुटेरों का कोई दल कभी इस जगह पर हमला नहीं करेगा.’’

‘‘लेकिन… लेकिन, आप कौन हैं?’’ लड़के ने पूछा.

वहां अब खामोशी थी. गोंडू बाहर निकल चुका था.

उस रात के बाद किसी ने गोंडू और उस के लुटेरे साथियों के बारे में कुछ नहीं सुना.

कहीं से उड़ती सी खबर आई कि गोंडू ने कोलकाता जा कर एक फैक्टरी में काम ले लिया था. उस के साथी भी अब उसी के साथ मेहनत का काम करने लगे थे.

ऐसा तो होना ही था

नमिता की बातें सुन कर ऋचा पलंग पर कटी पतंग की तरह गिर पड़ी. दिल इतनी जोरों से धड़क रहा था मानो निकल कर बाहर ही आ जाएगा. आखिर उस के साथ ही ऐसा क्यों होता है कि उस के हर अच्छे काम में बुराई निकाली जाती है. नमिता के कहे शब्द उस के दिलोदिमाग पर प्रहार करते से लग रहे थे :

‘दीदी मंगलसूत्र और हार के एक सेट के साथ विवाह के स्वागत समारोह का खर्च भी उठा रही हैं तो क्या हुआ, दिव्या उन की भी तो बहन है. फिर जीजाजी के पास दो नंबर का पैसा है, उसे  जैसे भी चाहें खर्च करें. हमारी 2 बेटियां हैं, हमें उन के बारे में भी तो सोचना है. सब जमा पूंजी बहन के विवाह में ही खर्च कर दीजिएगा या उन के लिए भी कुछ बचा कर रखिएगा.’

भाई के साथ हो रही नमिता भाभी की बात सुन कर ऋचा अवाक््रह गई थी तथा बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली आई.

नमिता भाभी तो दूसरे घर से आई हैं लेकिन सुरेंद्र तो अपना सगा भाई है. उस को तो प्रतिवाद करना चाहिए था. वह तो अपने जीजा के बारे में जानता है. यह ठीक है कि उस के पति अमरकांत एक ऐसे विभाग में अधीक्षण अभियंता हैं जिस में नियुक्ति पाना, खोया हुआ खजाना पाने जैसा है. लेकिन सब को एक ही रंग में रंग लेना क्या उचित है? क्या आज वास्तव में सच्चे और ईमानदार लोग रह ही नहीं गए हैं?

बाहर वाले इस तरह के आरोप लगाएं तो बात समझ में भी आती है. क्योंकि उन्हें तो खुद को अच्छा साबित करने के लिए दूसरों पर कीचड़ उछालनी ही है पर जब अपने ही अपनों को न समझ पाएं तो बात बरदाश्त से बाहर हो जाती है.

एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है. आज उसे वह कहावत अक्षरश: सत्य प्रतीत हो रही थी. वरना अमर का नाम, उन्हें जानने वाले लोग आज भी श्रद्धा से लेते हैं. स्थानांतरण के साथ ही कभी- कभी उन की शोहरत उन के वहां पहुंचने से पहले ही पहुंच जाया करती है.

ऐसा नहीं है कि अपनी ईमानदारी की वजह से अमर को कोई तकलीफ नहीं उठानी पड़ी. बारबार स्थानांतरण, अपने ही सहयोगियों द्वारा असहयोग सबकुछ तो उन्होंने झेला है. कभीकभी तो उन के सीनियर भी उन से कह देते थे, ‘भाई, तुम्हारे साथ तो काम करना भी कठिन है. स्वयं को कुछ तो हालात के साथ बदलना सीखो.’ पर अमर न जाने किस मिट्टी के बने थे कि उन्होेंने बड़ी से बड़ी परेशानियां सहीं पर हालात से समझौता नहीं किया और न ही सचाई व ईमानदारी के रास्ते से विचलित हुए.

मर्मांतक पीड़ा सहने के बाद अगर कोई समय की धारा के साथ चलने को मजबूर हो जाए तो उस में उस का नहीं बल्कि परिस्थितियों का दोष होता है. परिस्थितियों को चेतावनी दे कर समय की धारा के विपरीत चलने वाले पुरुष बिरले ही होते हैं. अमर को उस ने हालात से जूझते देखा था. यही कारण था कि अमर जैसे निष्ठावान व्यक्ति के लिए नमिता के वचन ऋचा को असहनीय पीड़ा पहुंचा गए थे तथा उस से भी ज्यादा दुख भाई की मौन सहमति पा कर हुआ था.

एक समय था जब अमर की ईमानदारी पर वह खुद भी चिढ़ जाती थी. खासकर तब जब घर में सरकारी गाड़ी खाली खड़ी हो और उसे रिकशे से या पैदल, बाजार जाना पड़ता था. उस के विरोध करने पर या अपनी दूसरों से तुलना करने पर अमर का एक ही कहना होता, ‘ऋचा, यह मत भूलो कि असली शांति मन की होती है. पैसा तो हाथ का मैल है, जितना भी हो उतना ही कम है. फिर व्यर्थ की आपाधापी क्यों? वैसे भी सरकार से वेतन के रूप में हमें इतना तो मिल ही जाता है कि रोजमर्रा की जरूरत की पूर्ति करने के बाद भी थोड़ा बचा सकें…और इसी बचत से हम किसी जरूरतमंद की सहायता कर सकें तो मन को दुख नहीं प्रसन्नता ही होनी चाहिए. इनसान को दो वक्त की रोटी के अलावा और क्या चाहिए?’

अमर की बातें ऋचा को सदा ही आदर्शवाद से प्रेरित लगती रही थीं. भला अपनी खूनपसीने की कमाई को दूसरों पर लुटाने की क्या जरूरत है. खासकर तब जब वह सहयोगियों की पत्नियों को गहने और कीमती कपड़ों से लदेफदे देखती और किटी पार्टियों में काजूबादाम के साथ शीतल पेय परोसते समय उस की ओर लक्ष्य कर व्यंग्यात्मक मुसकान फेंकतीं. बाद में ऋचा को लगने लगा था कि ऐसी स्त्रियां गलत और सही में भेद नहीं कर पाती हैं. शायद वे यह भी नहीं समझ पातीं कि उन का यह दिखावा उस काली कमाई से है जिसे देखना भी भले लोग पाप समझते हैं.

ऋचा के संस्कारी मन ने सदा अमर की इस ईमानदारी की दाद दी है. अचानक उसे वह घटना याद आ गई जब अमर के विभाग के ही एक अधिकारी के घर छापा पड़ा और तब लाखों रुपए कैश और ज्वैलरी मिलने पर उन की जो फजीहत हुई उसे देखने के बाद तो उसे भी लगने लगा कि ऐसी आपाधापी किस काम की जिस से कि बाद में किसी को मुंह दिखाने के काबिल ही न रहें.

आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब उस अधिकारी के बहुत करीबी दोस्त, जो वफादारी का दम भरते थे, उस घटना के बाद उस से कन्नी काटने लगे. शायद उन्हें लगने लगा था कि कहीं उस के साथ वह भी लपेटे में न आ जाएं. उस समय उस की पत्नी को अकेले ही उन की जमानत के लिए भागदौड़ करते देख यही लगा था कि बुरे काम का नतीजा भी अंतत: बुरा ही होता है.

आज नमिता की बातें ऋचा को बेहद व्यथित कर गईं. आज उसे दुख इस बात का था कि बाहर वाले तो बाहर वाले उस के अपने घर वाले ही अमर की ईमानदारी पर शक कर रहे हैं, जिन की जबतब वह सहायता करते रहे हैं. दूसरों से इनसान लड़ भी ले पर जब अपने ही कीचड़ उछालने लगें तो इनसान जाए भी तो कहां जाए. वह तो अच्छा हुआ कि अमर उस के साथ नहीं आए वरना उन के कानों में नमिता के शब्द पड़ते तो.

ऋचा को नींद नहीं आ रही थी. अनायास ही अतीत उस के सामने चलचित्र की भांति गुजरने लगा…

पिताजी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. अपनी पढ़ाने की कला के कारण वह स्कूल के सभी विद्यार्थियों में लोकप्रिय थे. वह शिक्षा को समाज उत्थान का जरिया मानते थे. यही कारण था कि उन्होंने कभी ट्यूशन नहीं ली पर अपने छात्रों की समस्याओं के लिए उन का द्वार हमेशा खुला रहता था.

अमर भी उन के ही स्कूल में पढ़ते थे. पढ़ने में तेज तथा धीरगंभीर और अन्य छात्रों से अलग पढ़ाई में ही लगे रहते थे. पिताजी का स्नेह पा कर वह कभीकभी अपनी समस्याओं के लिए हमारे के घर आया करते थे. न जाने क्यों अमर का धीरगंभीर स्वभाव मां को बेहद भाता था. कभीकभी वह हम भाईबहनों को उन का उदाहरण भी देती थीं.

एक बार पिताजी घर पर नहीं थे. मां ने उन के परिवार के बारे में पूछ लिया. मां की सहानुभूति पा कर उन के मन का लावा फूटफूट कर बह निकला. पता चला कि उन की मां सौतेली हैं तथा पिताजी अपने व्यवसाय में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते. सौतेली मां से उन के 2 भाई थे. उन की मां को शायद यह डर था कि उन के कारण उस के पुत्रों को पिता की संपत्ति से पूरा हिस्सा नहीं मिल पाएगा.

अमर की आपबीती सुन कर मां द्रवित हो उठी थीं. उस के बाद वह अकसर ही घर आने लगे. अमर के बालमन पर मां की कही बातें इतनी बुरी तरह से बैठ गई थीं कि वह अनजाने ही अपना बचपना खो बैठे तथा उन्होंने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित कर लिया, जिस से कुछ बन कर अपने व्यर्थ हो आए जीवन को नया मकसद दे सकें. पिताजी के रूप में अमर को न केवल गुरु वरन अभिभावक एवं संरक्षक भी मिल गया था. अत: जबतब अपनी समस्याओं को ले कर अमर पिताजी के पास आने लगे थे और पिताजी के द्वारा मार्गदर्शन पा कर उन का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था.

अमर के बारबार घर आने से हम दोनों में मित्रता हो गई. समय पंख लगा कर उड़ता रहा और समय के साथ ही हमारी मित्रता प्रगाढ़ता में बदलती चली गई. अमर का परिश्रम रंग लाया. प्रथम प्रयास में ही उन का रुड़की इंजीनियरिंग कालिज में चयन हो गया और वह वहां चले गए.

अमर के जाने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मेरे मन में उन्होंने ऐसी जगह बना ली है जहां से उन्हें निकाल पाना असंभव है. पिताजी को भी मेरी मनोस्थिति का आभास हो चला था किंतु वह अमर पर दबाव डाल कर कोई फैसला नहीं करवाना चाहते थे और यही मत मेरा भी था.

रुड़की पहुंच कर अमर ने एक छोटा सा पत्र पिताजी को लिखा था जिस में अपनी पढ़ाई के जिक्र के साथ घर भर की कुशलक्षेम पूछी थी. पर पत्र में कहीं भी मेरा कोई जिक्र नहीं था. इस के बाद भी जो पत्र आते मैं ध्यान से पढ़ती पर हर बार मुझे निराशा ही मिलती. मैं ने अमर का यह रुख देख कर अपना ध्यान पढ़ाई में लगा लिया तथा अमर को भूलने का प्रयत्न करने लगी.

दिन बीतने के साथ यादें भी धुंधली पड़ने लगी थीं. मैं ने भी धुंध हटाने का प्रयत्न न कर पढ़ाई में दिल लगा लिया. हायर सेकंडरी करने के बाद मैं इंटीरियर डेकोरेशन का कोर्स करने लगी थी. एक दिन मैं कालिज से लौटी तो एक लिफाफा छोटी बहन दिव्या ने मुझे दिया.

पत्र पर जानीपहचानी लिखावट देख कर मैं चौंक उठी. धड़कते दिल से लिफाफा खोला. लिखा था, ‘ऋचा इतने सालों बाद मेरा पत्र पा कर आश्चर्य कर रही होगी पर फिर भी आशा करता हूं कि मेरी बेरुखी को तुम अन्यथा नहीं लोगी. यद्यपि हम ने कभी अपने प्रेम का इजहार नहीं किया पर हमारे दिलों में एकदूसरे की चाहत की जो लौ जली थी, उस से मैं अनजान नहीं था. मुझे अपने प्यार पर विश्वास था. बस, समय का इंतजार कर रहा था. आज वह समय आ गया है.

‘तुम सोच रही होगी कि अगर मैं वास्तव में तुम से प्यार करता था तो इतने सालों तक तुम्हें पत्र क्यों नहीं लिखा? तुम्हारा सोचना सच है पर उन दिनों मैं इन सब बातों से हट कर अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना चाहता था. मैं तुम्हारे योग्य बन कर ही तुम्हारे साथ आगे बढ़ना चाहता था. अब मेरी पढ़ाई समाप्त हो गई है तथा मुझे अच्छी नौकरी भी मिल गई है. आज ही ज्वाइन करने जा रहा हूं अगर तुम कहो तो अगले सप्ताह आ कर गुरुजी से तुम्हारा हाथ मांग लूं. लेकिन विवाह मैं एक साल बाद ही करूंगा. क्योंकि तुम तो जानती ही हो कि मेरे पास कुछ भी नहीं है तथा पिताजी से कुछ भी मांगना या लेना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ है.

‘मैं चाहता हूं कि जब तुम घर में कदम रखो तो घर में कुछ तो हो, घरगृहस्थी का थोड़ाबहुत जरूरी सामान जुटाने के बाद ही तुम्हें ले कर आना चाहूंगा. अत: मुझे आशा है कि मेरी भावनाओं का सम्मान करते हुए जहां इतना इंतजार किया है वहीं कुछ दिन और करोगी पर यह कदम मैं तुम्हारी स्वीकृति के बाद ही उठाऊंगा. एक पत्र इसी बारे में गुरुजी को लिख रहा हूं. अगर इस रिश्ते के लिए तुम तैयार हो तो दूसरा पत्र गुरुजी को दे देना. जब वे चाहेंगे मैं आ जाऊंगा.’

पत्र पढ़ने के साथ ही मेरे मन के तार झंकृत हो उठे थे. इंतजार की एकएक घड़ी काटनी कठिन हो रही थी. पिताजी को पत्र दिया तो वह भी खुशी से उछल पडे़. घर में सभी खुश थे. इतने योग्य दामाद की तो शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब सीधेसादे समारोह में मात्र 2 जोड़ी कपड़ों में मैं विदा हो गई. मां को मुझे सिर्फ 2 जोड़ी कपड़ों में विदा करना अच्छा नहीं लगा था लेकिन अमर की जिद के आगे सब विवश थे. हां, पिताजी जरूर अपने दामाद के मनोभावों को जान कर गर्वोन्मुक्त हो उठे थे.

विवाह के कुछ साल बाद ही पिताजी का निधन हो गया. सुरेंद्र उस समय मेडिकल के प्रथम वर्ष में था. दिव्या छोटी थी. मां पर तो जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था. पेंशन में देरी के साथ पीएफ का पैसा भी नहीं मिल पाया था. घर खर्च के साथ ही सुरेंद्र की पढ़ाई का खर्च चलाना मां के लिए कठिन काम था. तब अमर ने ही मां की सहायता की थी.

अमर से सहायता लेने पर मां झिझकतीं तो अमर कहते, ‘मांजी, क्या मैं आप का बेटा नहीं हूं, जब सुरेंद्र आप के लिए करेगा तो क्या आप को बुरा लगेगा?’

यद्यपि मां ने पिताजी का पैसा मिलने पर जबतब मांगी रकम को लौटाया भी था, पर अमर को उन का ऐसे लौटाना अच्छा नहीं लगा था. उन का कहना था कि ऐसी सहायता से क्या लाभ जिस का हम प्रतिदान चाहें. अत: जबजब भी ऐसा हुआ मैं मां के द्वारा लौटाई राशि को बैंक में दिव्या के नाम से जमा करती गई. यह सुझाव भी अमर का ही था.

दिव्या उस के विवाह के समय केवल 7 वर्ष की थी. अमर ने उसे गोद में खिलाया था. वह उसे अपनी बेटी मानते थे. इसीलिए दिव्या के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति करना चाहते थे और साथ ही मां का भार कम करने में अपना योगदान दे कर उन की मदद के साथ गुरुजी के प्रति अपनी श्रद्धा को बनाए रखना चाहते थे. वैसे भी हमारे 2 पुत्र ही हैं. पुत्री की चाह दिल में ही रह गई थी. शायद ऐसा कर के अमर दिव्या के विवाह में बेटी न होने के अपने अरमान को पूरा करना चाहते थे.

मां की लौटाई रकम से मैं ने दिव्या के लिए मंगलसूत्र के साथ हार का एक सेट भी खरीदा था मगर स्वागत समारोह का खर्चा अमर दिव्या को अपनी बेटी मानने के कारण कर रहे हैं. पर यह बात मैं किसकिस को समझाऊं.

आज सुरेंद्र के मौन और नमिता की बातों ने ऋचा को मर्माहत पीड़ा पहुंचाई थी. कितना बड़ा आरोप लगाया है उस ने अमर की ईमानदारी पर. सुनियोजित बचत के कारण जिस धन से आज वह बहन के विवाह में सहायता कर पा रही है उसे दो नंबर का धन कह दिया. वैसे भी 20 साल की नौकरी में क्या इतना भी नहीं बचा सकते कि कुछ गहनों के साथ एक स्वागत समारोह का खर्चा उठा सकें. इस से दो नंबर के पैसे की बात कहां से आ गई. क्या इनसानी रिश्तों का, भावनाओं का कोई महत्त्व नहीं रह गया है.

निज स्वार्थ में लोग इतने अंधे क्यों होते जा रहे हैं कि खुद को सही साबित करने के प्रयास में दूसरों को कठघरे में खड़ा करने में भी उन्हें हिचक नहीं होती. उस का मन किया कि जा कर नमिता की बात का प्रतिवाद करे. लेकिन नमिता के मन में जो संदेह का कीड़ा कुलबुला रहा है, वह क्या उस के प्रतिरोध करने भर से दूर हो पाएगा. नहींनहीं, वह अपनी तरफ से कोई सफाई पेश नहीं करेगी. यदि इनसान सही है और निस्वार्थ भाव से कर्म में लगा है तो देरसबेर सचाई दुनिया के सामने आ ही जाएगी.

अचानक ऋचा ने एक निर्णय लिया कि दिव्या के विवाह के बाद वह इस घर से नाता तोड़ लेगी. जहां उसे तथा उस के पति को मानसम्मान नहीं मिलता वहां आने से क्या लाभ. उस ने बड़ी बहन का कर्तव्य निभा दिया है. भाई पहले ही स्थापित हो चुका है तथा 2 दिन बाद छोटी बहन भी नए जीवन में प्रवेश कर जाएगी. अब उस की या उस की सहायता की किसी को क्या जरूरत? लेकिन क्या जब तक मां है, भाई है, उस का इस घर से रिश्ता टूट सकता है…अंतर्मन ने उसे झकझोरा.

आखिर वह दिन भी आ गया जब दिव्या को दूसरी दुनिया में कदम रखना था. वह भी ऐसे व्यक्ति के साथ जिस को वह पहले से जानती तक नहीं है. जयमाला के बाद दिव्या और दीपेश समस्त स्नेहीजनों से शुभकामनाएं स्वीकार कर रहे थे. समस्त परिवार उन दोनों के साथ सामूहिक फोटोग्राफ के लिए मंच पर जमा हुआ था तभी दीपेश के पिताजी ने एक सज्जन को दीपेश के चाचा के रूप में अमर से परिचय करवाया तो वह एकाएक चौंक कर कह उठे, ‘‘अमर साहब, आप की ईमानदारी के चर्चे तो पूरे विभाग में मशहूर हैं. आज आप से मिलने का भी अवसर प्राप्त हो गया. मुझे खुशी है कि ऐसे परिवार की बेटी हमारे परिवार की शोभा बनने जा रही है.’’

दीपेश के चाचा, जो अमर के विभाग में ही उच्चपदाधिकारी थे, ने यह बात इतनी गर्मजोशी के साथ कही कि अनायास ही मंच पर मौजूद सभी की नजर अमर की ओर उठ गई.

एकाएक ऋचा के चेहरे पर चमक आ गई. उस ने मुड़ कर नमिता की ओर देखा तो उसे सुरेंद्र की ओर देखते हुए पाया. उस की निगाहों में क्षमा का भाव था या कुछ और वह समझ नहीं पाई लेकिन उन सज्जन के इतना कहने भर से ही उस के दिलोदिमाग पर से पिछले कुछ दिनों से रखा बोझ हट गया. सुखद आश्चर्य तो उसे इस बात का था कि एक अजनबी ने पल भर में ही उस के दिल के उस दंश को कम किया जिसे उस के अपनों ने दिया था.

आखिर सचाई सामने आ ही गई. ऐसा तो एक दिन होना ही था पर इतनी जल्दी और ऐसे होगा ऋचा ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था. वास्तव में जीवन के नैतिक मूल्यों में कभी बदलाव नहीं होता. वह हर काल, परिस्थिति और समाज में हमेशा एक से ही रहे हैं और रहेंगे, यह बात अलग है कि मानव निज स्वार्थ के लिए मूल्यों को तोड़तामरोड़ता रहता है. प्रसन्नता तो उसे इस बात की थी कि आज भी हमारे समाज में ईमानदारी जिंदा है.

एक रिक्त कोना

सुशांत मेरे सामने बैठे अपना अतीत बयान कर रहे थे:

‘‘जीवन में कुछ भी तो चाहने से नहीं होता है. इनसान सोचता कुछ है होता कुछ और है. बचपन से ले कर जवानी तक मैं यही सोचता रहा…आज ठीक होगा, कल ठीक होगा मगर कुछ भी ठीक नहीं हुआ. किसी ने मेरी नहीं सुनी…सभी अपनेअपने रास्ते चले गए. मां अपने रास्ते, पिता अपने रास्ते, भाई अपने रास्ते और मैं खड़ा हूं यहां अकेला. सब के रास्तों पर नजर गड़ाए. कोई पीछे मुड़ कर देखता ही नहीं. मैं क्या करूं?’’

वास्तव में कल उन का कहां था, कल तो उन के पिता का था. उन की मां का था, वैसे कल उस के पिता का भी कहां था, कल तो था उस की दादी का.

विधवा दादी की मां से कभी नहीं बनी और पिता ने मां को तलाक दे दिया. जिस दादी ने अकेले रह जाने पर पिता को पाला था क्या बुढ़ापे में मां से हाथ छुड़ा लेते?

आज उन का घर श्मशान हो गया. घर में सिर्फ रात गुजारने आते हैं वह और उन के पिता, बस.

‘‘मेरा तो घर जाने का मन ही नहीं होता, कोई बोलने वाला नहीं. पानी पीना चाहो तो खुद पिओ. चाय को जी चाहे तो रसोई में जा कर खुद बना लो. साथ कुछ खाना चाहो तो बिस्कुट का पैकेट, नमकीन का पैकेट, कोई चिप्स कोई दाल, भुजिया खा लो.

‘‘मेरे दोस्तों के घर जाओ तो सामने उन की मां हाथ में गरमगरम चाय के साथ खाने को कुछ न कुछ जरूर ले कर चली आती हैं. किसी की मां को देखता हूं तो गलती से अपनी मां की याद आने लगती है.’’

‘‘गलती से क्यों? मां को याद करना क्या गलत है?’’

‘‘गलत ही होगा. ठीक होता तो हम दोनों भाई कभी तो पापा से पूछते कि हमारी मां कहां है. मुझे तो मां की सूरत भी ठीक से याद नहीं है, कैसी थीं वह…कैसी सूरत थी. मन का कोना सदा से रिक्त है… क्या मुझे यह जानने का अधिकार नहीं कि मेरी मां कैसी थीं जिन के शरीर का मैं एक हिस्सा हूं?

‘‘कितनी मजबूर हो गई होंगी मां जब उन्होंने घर छोड़ा होगा…दादी और पापा ने कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा होगा उन के लिए वरना 2-2 बेटों को यों छोड़ कर कभी नहीं जातीं.’’

‘‘आप की भाभी भी तो हैं. उन्होंने घर क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘वह भी साथ नहीं रहना चाहती थीं. उन का दम घुटता था हमारे साथ. वह आजाद रहना चाहती थीं इसलिए शादी के कुछ समय बाद ही अलग हो गईं… कभीकभी तो मुझे लगता है कि मेरा घर ही शापित है. शायद मेरी मां ने ही जातेजाते श्राप दिया होगा.’’

‘‘नहीं, कोई मां अपनी संतान को श्राप नहीं देती.’’

‘‘आप कैसे कह सकती हैं?’’

‘‘क्योंकि मेरे पेशे में मनुष्य की मानसिकता का गहन अध्ययन कराया जाता है. बेटा मां का गला काट सकता है लेकिन मां मरती मर जाए, बच्चे को कभी श्राप नहीं देती. यह अलग बात है कि बेटा बहुत बुरा हो तो कोई दुआ भी देने को उस के हाथ न उठें.’’

‘‘मैं नहीं मानता. रोज अखबारों में आप पढ़ती नहीं कि आजकल मां भी मां कहां रह गई हैं.’’

‘‘आप खूनी लोगों की बात छोड़ दीजिए न, जो लोग अपराधी स्वभाव के होते हैं वे तो बस अपराधी होते हैं. वे न मां होते हैं न पिता होते हैं. शराफत के दायरे से बाहर के लोग हमारे दायरे में नहीं आते. हमारा दायरा सामान्य है, हम आम लोग हैं. हमारी अपेक्षाएं, हमारी इच्छाएं साधारण हैं.’’

बेहद गौर से वह मेरा चेहरा पढ़ते रहे. कुछ चुभ सा गया. जब कुछ अच्छा समझाती हूं तो कुछ रुक सा जाते हैं. उन के भाव, उन के चेहरे की रेखाएं फैलती सी लगती हैं मानो कुछ ऐसा सुना जो सुनना चाहते थे.

आंखों में आंसू आ रहे थे सुशांत की.

मुझे यह सोच कर बहुत तकलीफ होती है कि मेरी मां जिंदा हैं और मेरे पास नहीं हैं. वह अब किसी और की पत्नी हैं. मैं मिलना चाह कर भी उन से नहीं मिल सकता. पापा से चोरीचोरी मैं ने और भाई ने उन्हें तलाश किया था. हम दोनों मां के घर तक भी पहुंच गए थे लेकिन मां हो कर भी उन्होंने हमें लौटा दिया था… सामने पा कर भी उन्होंने हमें छुआ तक नहीं था, और आप कहती हैं कि मां मरती मर जाए पर अपनी संतान को…’’

‘‘अच्छा ही तो किया आप की मां ने. बेचारी, अपने नए परिवार के सामने आप को गले लगा लेतीं तो क्या अपने परिवार के सामने एक प्रश्नचिह्न न खड़ा कर देतीं. कौन जाने आप के पापा की तरह उन्होंने भी इस विषय को पूरी तरह भुला दिया हो. क्या आप चाहते हैं कि वह एक बार फिर से उजड़ जाएं?’’

सुशांत अवाक् मेरा मुंह देखते रह गए थे.

‘‘आप बचपना छोड़ दीजिए. जो छूट गया उसे जाने दीजिए. कम से कम आप तो अपनी मां के साथ अन्याय न कीजिए.’’

मेरी डांट सुन कर सुशांत की आंखों में उमड़ता नमकीन पानी वहीं रुक गया था.

‘‘इनसान के जीवन में सदा वही नहीं होता जो होना चाहिए. याद रखिए, जीवन में मात्र 10 प्रतिशत ऐसा होता है जो संयोग द्वारा निर्धारित किया जाता है, बाकी 90 प्रतिशत तो वही होता है जिस का निर्धारण व्यक्ति स्वयं करता है. अपना कल्याण या अपना सर्वनाश व्यक्ति अपने ही अच्छे या बुरे फैसले द्वारा करता है.

‘‘आप की मां ने समझदारी की जो आप को पहचाना नहीं. उन्हें अपना घर बचाना चाहिए जो उन के पास है…आप को वह गले क्यों लगातीं जबकि आप उन के पास हैं ही नहीं.

‘‘देखिए, आप अपनी मां का पीछा छोड़ दीजिए. यही मान लीजिए कि वह इस संसार में ही नहीं हैं.’’

‘‘कैसे मान लूं, जब मैं ने उन का दाहसंस्कार किया ही नहीं.’’

‘‘आप के पापा ने तो तलाक दे कर रिश्ते का दाहसंस्कार कर दिया था न… फिर अब आप क्यों उस राख को चौराहे का मजाक बनाना चाहते हैं? आप समझते क्यों नहीं कि जो भी आप कर रहे हैं उस से किसी का भी भला होने वाला नहीं है.’’

अपनी जबान की तल्खी का अंदाज मुझे तब हुआ जब सुशांत बिना कुछ कहे उठ कर चले गए. जातेजाते उन्होंने यह भी नहीं बताया कि अब कब मिलेंगे वह. शायद अब कभी नहीं मिलेंगे.

सुशांत पर तरस आ रहा था मुझे क्योंकि उन से मेरे रिश्ते की बात चल रही थी. वह मुझ से मिलने मेरे क्लीनिक में आए थे. अखबार में ही उन का विज्ञापन पढ़ा था मेरे पिताजी ने.

‘‘सुशांत तुम्हें कैसा लगा?’’ मेरे पिता ने मुझ से पूछा.

‘‘बिलकुल वैसा ही जैसा कि एक टूटे परिवार का बच्चा होता है.’’

पिताजी थोड़ी देर तक मेरा चेहरा पढ़ते रहे फिर कहने लगे, ‘‘सोच रहा हूं कि बात आगे बढ़ाऊं या नहीं.’’

पिताजी मेरी सुरक्षा को ले कर परेशान थे…बिलकुल वैसे जैसे उन्हें होना चाहिए था. सुशांत के पिता मेरे पिता को पसंद थे. संयोग से दोनों एक ही विभाग में कार्य करते थे उसी नाते सुशांत 1-2 बार मुझे मेरे क्लीनिक में ही मिलने चले आए थे और अपना रिक्त कोना दिखा बैठे थे.

मैं सुशांत को मात्र एक मरीज मान कर भूल सी गई थी. उस दिन मरीज कम थे सो घर जल्दी आ गई. फुरसत थी और पिताजी भी आने वाले थे इसलिए सोचा, क्यों न आज  चाय के साथ गरमागरम पकौडि़यां और सूजी का हलवा बना लूं.

5 बजे बाहर का दरवाजा खुला और सामने सुशांत को पा कर मैं स्तब्ध रह गई.

‘‘आज आप क्लीनिक से जल्दी आ गईं?’’ दरवाजे पर खड़े हो सुशांत बोले, ‘‘आप के पिताजी मेरे पिताजी के पास गए हैं और मैं उन की इजाजत से ही घर आया हूं…कुछ बुरा तो नहीं किया?’’

‘‘जी,’’ मैं कुछ हैरान सी इतना ही कह पाई थी कि चेहरे पर नारी सुलभ संकोच तैर आया था.

अंदर आने के मेरे आग्रह पर सुशांत दो कदम ही आगे बढे़ थे कि फिर कुछ सोच कर वहीं रुक गए जहां खड़े थे.

‘‘आप के घर में घर जैसी खुशबू है, प्यारीप्यारी सी, मीठीमीठी सी जो मेरे घर में कभी नहीं होती है.’’

‘‘आप उस दिन मेरी बातें सुन कर नाराज हो गए होंगे यही सोच कर मैं ने भी फोन नहीं किया,’’ अपनी सफाई में मुझे कुछ तो कहना था न.

‘‘नहीं…नाराजगी कैसी. आप ने तो दिशा दी है मुझे…मेरी भटकन को एक ठहराव दिया है…आप ने अच्छे से समझा दिया वरना मैं तो बस भटकता ही रहता न…चलिए, छोडि़ए उन बातों को. मैं सीधा आफिस से आ रहा हूं, कुछ खाने को मिलेगा.’’

पता नहीं क्यों, मन भर आया मेरा. एक लंबाचौड़ा पुरुष जो हर महीने लगभग 30 हजार रुपए कमाता है, जिस का अपना घर है, बेघर सा लगता है, मानो सदियों से लावारिस हो.

पापा का और मेरा गरमागरम नाश्ता मेज पर रखा था. अपने दोस्तों के घर जा कर उन की मां के हाथों में छिपी ममता को तरसी आंखों से देखने वाला पुरुष मुझ में भी शायद वही सब तलाश रहा था.

‘‘आइए, बैठिए, मैं आप के लिए चाय लाती हूं. आप पहले हाथमुंह धोना चाहेंगे…मैं आप के लिए तौलिया लाऊं?’’

मैं हतप्रभ सी थी. क्या कहूं और क्या न कहूं. बालक की तरह असहाय से लग रहे थे सुशांत मुझे. मैं ने तौलिया पकड़ा दिया तब एकटक निहारते से लगे.

मैं ने नाश्ता प्लेट में सजा कर सामने रखा. खाया नहीं बस, देखते रहे. मात्र चम्मच चलाते रहे प्लेट में.

‘‘आप लीजिए न,’’ मैं ने खाने का आग्रह किया.

वह मेरी ओर देख कर कहने लगे, ‘‘कल एक डिपार्टमेंटल स्टोर में मेरी मां मिल गईं. वह अकेली थीं इसलिए उन्होंने मुझे पुकार लिया. उन्होंने बड़े प्यार से मेरा हाथ पकड़ लिया था लेकिन मैं ने अपना हाथ छुड़ा लिया.’’

सुशांत की बातें सुन कर मेरी तो सांस रुक सी गई. बरसों बाद मां का स्पर्श कैसा सुखद लगा होगा सुशांत को.

सहसा सुशांत दोनों हाथों में चेहरा छिपा कर बच्चे की तरह रो पड़े. मैं देर तक उन्हें देखती रही. फिर धीरे से सुशांत के कंधे पर हाथ रखा. सहलाती भी रही. काफी समय लग गया उन्हें सहज होने में.

‘‘मैं ने ठीक किया ना?’’ मेरा हाथ पकड़ कर सुशांत बोले, ‘‘आप ने कहा था न कि मुझे अपनी मां को जीने देना चाहिए इसलिए मैं अपना हाथ खींच कर चला आया.’’

क्या कहती मैं? रो पड़ी थी मैं भी. सुशांत मेरा हाथ पकड़े रो रहे थे और मैं उन की पीड़ा, उन की मजबूरी देख कर रो रही थी. हम दोनों ही रो रहे थे. कोई रिश्ता नहीं था हम में फिर भी हम पास बैठे एकदूसरे की पीड़ा को जी रहे थे. सहसा मेरे सिर पर सुशांत का हाथ आया और थपक दिया.

‘‘तुम बहुत अच्छी हो. जिस दिन से तुम से मिला हूं ऐसा लगता है कोई अपना मिल गया है. 10 दिनों के लिए शहर से बाहर गया था इसलिए मिलने नहीं आ पाया. मैं टूटाफूटा इनसान हूं…स्वीकार कर जोड़ना चाहोगी…मेरे घर को घर बना सकोगी? बस, मैं शांति व सुकून से जीना चाहता हूं. क्या तुम भी मेरे साथ जीना चाहोगी?’’

डबडबाई आंखों से मुझे देख रहे थे सुशांत. एक रिश्ते की डोर को तोड़ कर दुखी भी थे और आहत भी. मुझ में सुशांत क्याक्या तलाश रहे होंगे यह मैं भलीभांति महसूस कर सकती थी. अनायास ही मेरा हाथ उठा और दूसरे ही पल सुशांत मेरी बांहों में समाए फिर उसी पीड़ा में बह गए जिसे मां से हाथ छुड़ाते समय जिया था.

‘‘मैं अपनी मां से हाथ छुड़ा कर चला आया? मैं ने अच्छा किया न…शुभा मैं ने अच्छा किया न?’’ वह बारबार पूछ रहे थे.

‘‘हां, आप ने बहुत अच्छा किया. अब वह भी पीछे मुड़ कर देखने से बच जाएंगी…बहुत अच्छा किया आप ने.’’

एक तड़पतेबिलखते इनसान को किसी तरह संभाला मैं ने. तनिक चेते तब खुद ही अपने को मुझ से अलग कर लिया.

शीशे की तरह पारदर्शी सुशांत का चरित्र मेरे सामने था. कैसे एक साफसुथरे सचरित्र इनसान को यों ही अपने जीवन से चला जाने देती. इसलिए मैं ने सुशांत की बांह पकड़ ली थी.

साड़ी के पल्लू से आंखों को पोंछने का प्रयास किया तो सहसा सुशांत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और देर तक मेरा चेहरा निहारते रहे. रोतेरोते मुसकराने लगे. समीप आ कर धीरे से गरदन झुकाई और मेरे ललाट पर एक प्रगाढ़ चुंबन अंकित कर दिया. फिर अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ लिए.

अपने लिए मैं ने सुशांत को चुन लिया. उन्हें भावनात्मक सहारा दे पाऊंगी यह विश्वास है मुझे. लेकिन उन के मन का वह रिक्त स्थान कभी भर पाऊंगी ऐसा विश्वास नहीं क्योंकि संतान के मन में मां का स्थान तो सदा सुरक्षित होता है न, जिसे मां के सिवा कोई नहीं भर सकता.

इंसाफ का अंधेर

वह कैद में है. उसे बदतर खाना दिया जाता है. वह जिंदा लाश की तरह है. उस की जिंदगी का फैसला दूसरे लोग करेंगे. वे लोग जो न उसे जानते हैं, न वह उन को. कागज पर जो उस के खिलाफ लिखा गया है उसी की बुनियाद पर सारे फैसले होने हैं.

वह कैद क्यों किया गया? वह यादों में चला जाता है. बुंदेलखंड का छोटा सा गांव. डकैतों की भरमार. सब का अपनाअपना इलाका.

डाकू मानसिंह का गांव और पुलिस. कई बार पुलिस और डाकू मानसिंह का आमनासामना हुआ. गोलियां चलीं. मुठभेड़ हुई. दोनों तरफ से लोग मारे गए.

कई बार डाकू मानसिंह भारी पड़ा, तो कई बार पुलिस. दोनों के बीच समझौता हुआ और तय हुआ कि डाकू मानसिंह के साथ मुठभेड़ नहीं की जाएगी. लेकिन पुलिस को सरकार को दिखाने और जनता को समझाने के लिए कुछ तो करना होगा.

दारोगा गोपसिंह ने कहा, ‘‘ऐसा करो कि हफ्ते, 15 दिन में तुम अपना एक आदमी हमें सौंप देना. जिंदा या मुरदा, ताकि हमारी नौकरी होती रहे.’’

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शुरू में तो मानसिंह राजी हो गया, लेकिन जब उसे यह घाटे का सौदा लगा तब उस के साथियों में से एक ने उस से कहा, ‘‘आप अपने लोगों को ही मरवा रहे हैं. इस तरह पूरा गिरोह खत्म हो जाएगा. लोग गिरोह में शामिल होने से कतराएंगे.’’

मानसिंह ने कहा, ‘‘मैं अपने आदमी नहीं दूंगा. पासपड़ोस के गांव के लोगों को सौंप दूंगा अपना आदमी बता कर.’’

‘‘क्या यह ठीक रहेगा? क्या हम पुलिस को बलि देने के लिए डाकू बने हैं?’’ गिरोह के एक सदस्य ने पूछा.

मानसिंह बोला, ‘‘नहीं, यह कुछ समय की मजबूरी है. अभी हमारे गिरोह पर पुलिस का शिकंजा कसा हुआ है. जैसे ही हम पुलिस को मुंहतोड़ जवाब देने लायक हो जाएंगे तब पुलिस वालों की ही बलि चढ़ेगी.’’

‘‘कब तक?’’ गिरोह के दूसरे सदस्य ने पूछा.

‘‘दिमाग पर जोर मत दो. 1-2 आदमी पुलिस को सौंपने से कुछ नहीं बिगड़ जाता. हम गांव के अपने किसी दुश्मन को पकड़ कर पुलिस को सौंपेंगे, वह भी जिंदा. तब तक हमें भी संभलने का मौका मिल जाएगा.’’

‘‘और दारोगा मान जाएगा?’’ गिरोह के एक सदस्य ने पूछा.

मानसिंह चुप रहा. उस ने एक योजना बनाई. शहर से लगे गांवों में रहने वाले पुलिस वालों को उठाना शुरू किया. उन्हें डकैतों के कपड़े पहनाए. कुछ दिन उन्हें बांध कर रखा. जब उन की दाढ़ीबाल बढ़ गए, तो गोली मार कर उन्हें थाने के सामने फेंक दिया.

हैरानी की बात यह थी कि यह खेल कुछ समय तक चलता रहा. जब बात खुली तो पुलिस बल समेत दारोगा ने कई मुठभेड़ें कीं और हर मुठभेड़ में कामयाबी हासिल की.

मानसिंह कुछ समय के लिए अंडरग्राउंड हो गया. दारोगा गोपसिंह ने गांव वालों को थाने बुला कर थर्ड डिगरी देना शुरू कर दिया. उसे मानसिंह का पता चाहिए था और मानसिंह की मदद उस के गांव के लोग करते थे, यह बात दारोगा जानता था.

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एक बार खेत को ले कर गांव के 2 पक्षों में झगड़ा हुआ. दूसरा पक्ष मजबूत था और जेल में बंद शख्स का पक्ष कमजोर था. पैसे से और सामाजिक रूप से भी. उस के पिता के पास महज 5 एकड़ जमीन थी. दूसरे पक्ष को जब लगा कि मामला उस के पक्ष में नहीं जा पाएगा तब उस ने दारोगा गोपसिंह से बात की.

गोपसिंह ने बापबेटे को थाने में बुला कर धमकाया कि एक एकड़ खेती दूसरे पक्ष के लिए छोड़ दो, नहीं तो अंजाम बुरा होगा. लेकिन बापबेटा धमकी से डरे नहीं.

एक दिन जब बेटा शहर से मैट्रिक का इम्तिहान दे कर पैदल ही गांव आ रहा था कि तभी दारोगा की जीप उस के पास आ कर रुकी. 4 सिपाही उतरे. उसे जबरन गाड़ी में बिठाया और थाने ले गए.

उस ने लाख कहा कि वह बेकुसूर है, तो दारोगा गोपसिंह ने गुस्से में कहा, ‘‘तुम्हारे बाप ने मेरी बात नहीं मानी.

अब भुगतो. आज से कानून की नजर में तुम डाकू हो. आज रात में ही तुम्हारा ऐनकाउंटर होगा.’’

उसे हवालात में बंद कर दिया गया. अपनी मौत के डर से वह अंदर तक कांप गया.

रात होने से पहले मानसिंह के गिरोह ने थाने पर हमला कर दिया. दोनों तरफ से फायरिंग हुई. मानसिंह गिरोह के कई सदस्य मारे गए. दारोगा गोपसिंह और कई पुलिस वाले भी मारे गए.

शहर से जब एसपी आया तो नतीजा यह निकाला गया कि वह लड़का मानसिंह गिरोह का आदमी था. मानसिंह अपने गिरोह के साथ उसे छुड़ाने आया था. गिरोह की जानकारी के बारे में उसे थर्ड डिगरी टौर्चर से गुजरना पड़ा. आखिर में उसे जेल भेज दिया गया.

बाप को बहुत बाद में पता चला कि उस का बेटा डकैत होने के आरोप में जेल में बंद है. बाप ने अपनी औकात के मुताबिक वकील किया. जमानत रिजैक्ट हो गई.

बेटे का कानून पर से यकीन उठ चुका था. उसे अपने आगे अंधेरा दिखाई दे रहा था. उसे तब गुस्सा आया जब अदालत ने उसे गुनाहगार मान कर उम्रकैद की सजा सुना दी. अब उस की तमाम उम्मीदों पर पानी फिर गया. पहली बार उस के मन में खयाल आया कि उसे भाग जाना चाहिए और जब उसे अपने जैसी सोच के कुछ लोग मिले तो वे आपस में भागने की योजना बनाने लगे.

वे सब जेल में एकसाथ टेलर का काम करते थे जो उन्हें सिखाता था और उस के अलावा 3 और कैदी मिला कर वे 5 लोग थे. पांचों को उम्रकैद की सजा हुई थी.

इधर बूढ़े बाप ने सोचा, ‘क्या करूंगा 5 एकड़ खेती का. इस से अच्छा है कि जमीन बेच कर बेटे के लिए हाईकोर्ट में अपील की जाए.’

बाप ने गांव की खेती औनेपौने दाम में बेच कर सारा रुपया वकील को दे दिया. बेटे को इसलिए नहीं बताया क्योंकि उसे लगेगा कि बाप उसे झूठा ढांढस बंधा रहा है.

हाईकोर्ट में सुनवाई का दौर शुरू हो चुका था. वे पांचों जेल के अंदर जितनी योजनाएं बनाते, उन में कहीं न कहीं कोई गलती नजर आती. एकदम जबरदस्त प्लान नहीं था उन के पास. शायद उन के अंदर पकड़े जाने का डर था. वे भागने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे. योजना पर बात करते लंबा समय हो गया था.

झुंझला कर पहले कैदी ने कहा, ‘‘आजादी का सपना अब सपना ही रहेगा. हमारे नसीब में कैद ही है. हम क्यों बात कर के अपना दिमाग खराब कर रहे हैं.’’

दूसरे कैदी ने कहा, ‘‘हां, एक ही बात बारबार करने से दिमाग पक चुका है. तय कर लो कि भागना है या नहीं.’’

तीसरे कैदी ने कहा, ‘‘कोई तो रास्ता होगा यहां से निकलने का. क्या हम उम्रभर जेल में सड़ते रहेंगे.’’

चौथे कैदी ने कहा, ‘‘उम्रकैद का मतलब है पूरी जिंदगी जेल में. जब तक शरीर में जान है, तब तक कैद में.’’

अब 5वें यानी उस की बारी थी. उस ने कहा, ‘‘मुझे तो सोच कर ही घबराहट होती है कि हमारी लाश जेल से बाहर जाएगी. मैं बिना कुसूर के जेल में सड़ने को तैयार नहीं हूं.

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‘‘किस आदमी ने बनाया कैदखाना. कितना जालिम होगा वह. मैं कोई तोता नहीं हूं कि पिंजरे में कैद रहूं. अगर कोई कुसूरवार है तब भी उसे किसी दूसरे किस्म की सजा दी जा सकती है.

‘‘कैदखाना वह जगह है जहां आदमी पलपल मरता है. उसे दूर कर दिया जाता है अपने परिवार से, अपनी जिम्मेदारियों से.

‘‘मेरे बूढ़े बाप का क्या कुसूर है? उन्हें किस बात की सजा दी जा रही है? क्या गुनाह है उस बेटी का जिस से छीन लिया जाता है उस का पिता? क्या गुनाह है उस बेटे का जिसे बाप के होते हुए यतीम कर दिया जाता है? उस मां के बारे में नहीं सोचा कैद करने वाले ने कि उस की देखरेख कौन करेगा? उस पत्नी का क्या जो जीतेजी विधवा की जिंदगी भोगती है. हमें मौत की सजा दे दो. कम से कम बाहर कोई इंतजार तो न करता रहे.

‘‘हमें किसी ऐसे काम पर लगा दो कि पछतावा भी हो और जनसेवा, देशसेवा भी. कैद करने से किस का भला? जेलों पर सरकार के करोड़ों रुपए खर्च होते हैं. एक आदमी की सजा कई लोग भुगतते हैं. मुझे मंजूर नहीं यह अंधेरगर्दी.

‘‘यह क्या बात हुई कि किसी अपराध में पुलिस ने पकड़ा और भेज दिया जेल. अब जमानत के लिए कोर्ट के चक्कर लगाओ. वकीलों को पैसा दो. घरबार जमापूंजी सब बेच दो अपने को बेगुनाह साबित करने के लिए.

‘‘सालों मुकदमा चलता रहता है. कुसूरवार अकसर छूट जाते हैं और बेगुनाह की जमानत तक नहीं हो पाती. ऐसे अंधे कानून पर भरोसा नहीं कर सकता मैं. न ही ऐसे कानून को मैं मानता हूं.

‘‘इस जेल में ऐसे कई लोग हैं जिन के मुकदमे का फैसला तब हुआ जब वे आधी जिंदगी जेल में काट चुके थे. बाद में उन्हें बाइज्जत रिहा कर दिया गया. उन के कीमती साल कौन लौटाएगा उन्हें?

‘‘यहां सभी को बिकते देखा है मैं ने. जाति, भाषा, धर्म की बुनियाद पर फैसले देते हुए. मैं आजाद हवा में सांस ले कर मरूंगा, चाहे कुछ भी हो जाए.’’

बाकी चारों ने उस की बात का समर्थन किया. एक ने कहा, ‘‘तुम कहो, करना क्या है? हम तुम्हारे साथ हैं.’’

उस ने कहा, ‘‘हम पांचों मेन गेट के पास ड्यूटी करते हैं. 12 बजे मुलाकात बंद हो जाती?है. जेलर अपने बंगले पर चला जाता है. मेन गेट पर महज 2 सिपाही रहते हैं. एक के पास चाबी होती है, दूसरे के पास लाठी. हमें अपनी कैंचियों को हथियार बना कर एक से चाबी छीन कर गेट खोलना है.

‘‘हम लौकअप के समय 12 बजे खाना खाने जाएंगे. उस के बाद हमें फिर बुलाया जाएगा. उस समय हम 5 होंगे और वे 2. अब इतनी हिम्मत हमें करनी ही होगी.’’

पहले कैदी ने कहा, ‘‘लेकिन, हमें कितना कम समय मिलेगा. हमारे बाहर निकलते ही खतरे का सायरन बजेगा. हम ज्यादा दूर नहीं भाग पाएंगे. सारे शहर की पुलिस हमारे पीछे होगी.’’

उस ने कहा, ‘‘पहले हमें बाहर निकलना है. जहां हम काम करते हैं उसी कमरे में एकएक कर के अपनी ड्रैस बदलनी है और तेजी से बाहर निकलना है. एक बार भीड़ में गुम हो गए तो फिर आसानी से नहीं पकड़े जाएंगे. किसी की गाड़ी छीन कर भी भाग सकते हैं. पुलिस चैकपोस्ट पर होगी. हमें शहर के अंदर ही रहना है भीड़ में. इस के अलावा और कोई रास्ता नहीं है.’’

दूसरे कैदी ने कहा, ‘‘मैं इमर्जैंसी सायरन बंद कर सकता हूं.’’

उस ने कहा, ‘‘यह तो अच्छी बात है. लेकिन ध्यान रहे, कम समय में. उतने ही समय में जितने समय में हम चाबी छीन कर दोनों संतरियों को काबू में कर के बाहर निकलेंगे.’’

तीसरे कैदी ने कहा, ‘‘अगर आसानी से काबू में न आए संतरी तो…?’’

‘‘तो कैंची से वार कर देना,’’ चौथे कैदी ने जवाब दिया.

‘‘और यह सब कब करना है?’’ पहले कैदी ने पूछा.

‘‘4 घंटे की ड्यूटी में कोई एक पुलिस वाला अंदर का गेट पार कर के पेशाब के लिए तो जाएगा ही. हमें उसी समय अंदर का गेट बंद कर देना है. एक सिपाही रहेगा. बहुत आसानी रहेगी. और अगर किसी तरह हम मेन गेट के संतरी को अपने काम करने वाले कमरे तक ला सके और उसे किसी तरह कमरे में बंद कर दिया तो हमें ज्यादा समय मिल सकता है. बोलो, तैयार हो?’’

सब ने सहमति जताई. यह योजना बाकी चारों को बहुत पसंद आई थी. वे अब बारीक निगाहों से समय का, गेट के संतरी का, चाबी का, इमर्जैंसी सायरन पर ध्यान देने लगे थे.

इधर बूढ़े बाप के शरीर में अब इतनी ताकत नहीं थी कि वह चलफिर सके. बेटे की जिंदगी को ले कर जो इच्छाएं मन में थीं, वे तो खत्म होने के कगार पर थीं. बस यही आखिरी इच्छा थी कि मरने से पहले बेटा कैद से बाहर आ जाए.

बाप को बेटे की शादी की तो उम्मीद नहीं थी. कौन देगा जेल गए बेटे को अपनी लड़की? खेतीबारी बिक चुकी थी. मजदूरी करने की शरीर में ताकत नहीं थी. इस बुढ़ापे में वह मंदिर के पास पड़ा रहता. वकील से भी बहुत पहले कह दिया था कि हाईकोर्ट का जो फैसला हो, खबर भेज देना. वकील की एकमुश्त फीस दी जा चुकी थी.

आज मौका मिल ही गया उन पांचों को. दोपहर 2 बजे एक संतरी ने अपने साथ ड्यूटी करने वाले संतरी से कहा, ‘‘मैं हलका हो कर आता हूं.’’

जैसे ही उन्हें अंदर का गेट खोलने की आवाज आई, वे पांचों फुरती से बाहर निकले. एक ने दौड़ कर अंदर का गेट बंद किया. 2 लोग कैंची अड़ा कर संतरी को अंदर कमरे में ले गए. जो कपड़े सिल कर तैयार थे, उन्होंने पहन लिए थे. उस ने चाबी छीन कर मेन गेट पर लगाई.

एक कैदी ने इमर्जैंसी सायरन बंद करने की कोशिश की, लेकिन बात बन नहीं पाई. मेन गेट खुलते ही उस ने बाकी चारों से कहा, ‘‘जल्दी निकलो,’’ और वे तेज कदमों से बाहर की ओर बढ़े.

किसी काम से आते हुए एक संतरी ने उन्हें देख लिया. उसे हैरानी हुई. उस ने सोचा, ‘शायद पांचों की जमानत हो गई है या हाईकोर्ट से बरी हो गए हैं. लेकिन इन्हें तो शाम को छोड़ा जाता…’

उसे कुछ शक हुआ. वह तेजी से जेल की तरह बढ़ा. मेन गेट का दरवाजा खुला हुआ था और अंदर से दोनों संतरियों के चीखने की आवाजें आ रही थीं.

वह संतरी अंदर गया. उस ने अंदर के गेट का दरवाजा खोला. दोनों ने सारी बातें बताईं और तुरंत इमर्जैंसी सायरन के स्विच पर उंगली रखी.

सायरन की आवाज उन पांचों के कानों में पड़ी. वे मेन सड़क तक आ चुके थे. उन्होंने सामने से आती हुई बस देखी और बस के पीछे लटक गए. बसस्टैंड के आने से पहले ही वे पांचों अलगअलग हो गए.

उस ने पहले गांव जाने पर विचार किया, फिर तुरंत अपना इरादा बदला. वह पैदल ही शहर की भीड़भाड़ से गुजरते हुए आगे बढ़ता रहा. वह कहां जा रहा था, उसे खुद पता नहीं था.

वह शहर के बाहर चलते हुए खेतखलिहानों को पार करते हुए एक पहाड़ी पर पहुंचा. पहाड़ी पर एक उजाड़ सा मंदिर बना हुआ था. वह वहीं एक पत्थर पर बैठ गया. उसे नींद आई या वह बेहोश हो गया.

अचानक उस की नींद खुल गई. उसे कुछ खतरे का आभास हुआ. उस ने उजाड़ मंदिर की दीवार की आड़ से देखा. दर्जनभर हथियारबंद पुलिस वाले उसे तेजी से अपनी तरफ बढ़ते हुए दिखाई दिए. वह भागा. नीचे गहरी खाई थी. बड़ीबड़ी चट्टानों के बीच बहती हुई नदी थी. सिपाही उस पर बंदूकें ताने हुए थे.

एक सबइंस्पैक्टर था. उस ने उसे अपनी रिवौल्वर के निशाने पर लेते हुए कहा, ‘‘बचने का कोई रास्ता नहीं है. रुक जाओ, नहीं तो मारे जाओगे.’’

उस ने अपनेआप को पहाड़ से नीचे गिरा दिया. सैकड़ों फुट की ऊंचाई से गिरता हुआ वह पथरीली चट्टान से टकराया. तत्काल उस की मौत हो गई.

जेल से भागने के एक घंटे पहले ही हाईकोर्ट ने उसे बाइज्जत बरी कर दिया था. उस की रिहाई के आदेश जारी कर दिए गए थे. बूढ़े बाप तक वकील ने खुद गांव जा कर खबर सुनाई.

पर थोड़ी देर में गांव की चौकी से एक पुलिस वाले ने आ कर उस से कहा, ‘‘तुम्हारा बेटा 4 लोगों के साथ जेल तोड़ कर भागा था. 3 पकड़े गए हैं. एक भागते हुए ट्रक के नीचे आ गया और तुम्हारे बेटे ने पुलिस से बचने के लिए पहाड़ी से छलांग लगा दी और मर गया.’’

कुछ देर तक बाप सकते में रहा, फिर उस ने अपनेआप से कहा, ‘‘मेरी चिंता खत्म. आज सचमुच रिहा हो गया मेरा बेटा और मैं भी.’’

बाप भी लड़खड़ा कर गिर पड़ा और फिर दोबारा न उठ सका.

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