नेपाल में हुए आम चुनाव इस बार जुदा तसवीर के साथ संपन्न हुए. नतीजों में जनता ने माओवाद को न सिर्फ सिरे से खारिज किया बल्कि बंदूक और हिंसा की सियासत को भी नकार दिया. लेकिन लगता है माओवादी अभी भी गलतफहमी के शिकार हैं. कैसे, यह बता रहे हैं बीरेंद्र बरियार ज्योति.

पड़ोसी देश नेपाल में आम चुनाव संपन्न हो गए. नेपाली जनता ने माओवादियों की बंदूक और हिंसा की सियासत को सिरे से खारिज कर दिया है. चुनावी जनादेश को माओवादी हजम नहीं कर पा रहे और नए सिरे से जनांदोलन शुरू करने का ऐलान कर नेपाल में नया संकट खड़ा करने की योजना में जुट गए हैं. माओवादी सुप्रीमो पुष्प दहल कमल ‘प्रचंड’ खुद भारी अंतर से चुनाव हार गए और उन की बेटी रेनु दहल भी अपनी सीट नहीं बचा सकी हैं. ऐसे में माओवादियों का बौखलाना और नेपाल में फिर नए सिरे से उठापटक के हालात पैदा होना तय माना जा रहा है.

इसी साल की शुरुआत में माओवादियों के एक जलसे में माओवादी पार्टी के एक अदना कार्यकर्ता ने प्रचंड को थप्पड़ जड़ दिया था, उस थप्पड़ की गूंज को प्रचंड भूल भी नहीं पाए थे कि चुनाव में जनता ने भी जोरदार ‘चांटा’ रसीद कर उन की और माओवादियों की सियासत को मटियामेट कर दिया है.

अपनी और अपनी पार्टी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की करारी हार से बौखलाए प्रचंड ने नेपाल में नया जनांदोलन चालू करने का ऐलान कर नया बावेला मचा दिया है. नेपाल की जनता तो लोकतंत्र के रास्ते पर चलने को तैयार है पर माओवादी इस राह में मुश्किलें खड़ी कर अपना वजूद कायम रखने की कवायद में लगे हैं. माओवादी अपनी हार को स्वीकार कर जनता और लोकतंत्र का साथ देने के बजाय एक बार फिर से अपनी डफली अपना राग के फार्मूले पर आमादा दिख रहे हैं.

थप्पड़ की गूंज

गौरतलब है कि फरवरी महीने में प्रचंड अपनी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के नेताओं और कार्य- कर्ताओं से मिल रहे थे, तभी पदमा कुमार नाम के युवक ने पहले तो उन से हाथ मिलाया, फिर उन के चेहरे पर जोरदार तमाचा रसीद कर दिया. प्रचंड का चश्मा छिटक कर काफी दूर जा गिरा. नेपाल में राजशाही पर लोकतंत्र का तमाचा जड़ने वाले माओवादी सुप्रीमो के अपने ही कार्यकर्ता से थप्पड़ खाने की घटना ने यह साफ कर दिया था कि प्रचंड अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं तक का भरोसा खोते जा रहे हैं. नेपाल की जनता उन के खिलाफ पहले ही सड़कों पर उतर चुकी थी.

भरोसा जीतने में नाकाम प्रचंड

नेपाल के पोखरा जिले में रहने वाला रमेश गुरुंग बताता है कि प्रचंड ने नेपाल की जनता की उम्मीदों को तारतार कर दिया है. राजशाही के जाने के बाद जनता को उम्मीद थी कि नेपाल का भला होगा और जनता को रोजीरोटी का अधिकार मिलेगा, पर प्रचंड ऐसा करने में नाकाम रहे, जिस की वजह से वे सालभर भी प्रधानमंत्री की कुरसी पर बने नहीं रह सके.

10 साल तक नेपाल को हिंसा और गृहयुद्ध की आग में झोंकने वाले माओवादियों ने अपनी ताकत और बंदूक के बूते देश से राजशाही का खात्मा तो कर दिया पर नेपालियों के दिलों में अपनी जगह बनाने में कामयाब नहीं हो सके.

7 साल पहले माओवादियों ने चुनावी राजनीति की राह पकड़ी थी और साल 2008 में हुए पहले आम चुनाव में धमाकेदार जीत हासिल की थी.

माओवादी नेता प्रचंड पहले प्रधानमंत्री बने लेकिन बंदूक वाली मानसिकता की वजह से वे ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री की कुरसी पर टिक नहीं पाए.

ताजा चुनाव में काठमांडू निर्वाचन क्षेत्र-10 से प्रचंड को करारी हार का मुंह देखना पड़ा है. वे नेपाली कांगे्रस पार्टी के के सी राजन से 7 हजार से ज्यादा वोटों से हारे हैं. साल 2008 में हुए संविधान सभा के पहले चुनाव में इसी सीट से प्रचंड को भारी जीत मिली थी. प्रचंड को दूसरा तगड़ा झटका तब लगा जब काठमांडू निर्वाचन क्षेत्र-1 से उन की बेटी रेनू दहल नेपाली कांगे्रस पार्टी के महासचिव प्रकाश सिंह मान से बड़े अंतर से हार गई.

माओवादी नेता व पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई की पत्नी हिसिला यमी यानी पार्वती नेपाली माओवादी नेताओं में तीसरी सब से बड़ी दौलतमंद नेता हैं. वे काठमांडू-7 से चुनाव हार गईं. नेपाल की जनता ने बता दिया कि बंदूक और धमकियों के बूते न राजनीति की जा सकती है न ही चुनाव जीता जा सकता है.

हार से बौखलाए माओवादी

प्रचंड की तानाशाही से बगावत करने वाले माओवादी नेता मोहन वैद्य किरण मानते हैं कि माओवादियों के संगठन में बिखराव पैदा हो गया है. हार के बाद माओवादी नेता हल्ला मचा रहे हैं कि वोटिंग और वोटों की गिनती में धांधलियां हुई हैं. यह कह कर वे अपनी हार और लाज बचाने की फूहड़ दलील दे रहे हैं. दोबारा सत्ता मिलने की आस लगाए माओवादियों को जब हार का सामना करना पड़ा तो वे बौखला गए हैं और अनापशनाप बकने लगे हैं. वे नेपाल को फिर से गृहयुद्ध की ओर ढकेलने पर आमादा हैं.

नेपाल का पिछला आम चुनाव

10 अप्रैल, 2008 को हुआ था, जिस में 70 सियासी दलों ने हिस्सा लिया था. 601 सदस्यीय संसद में 25 दलों के प्रतिनिधि चुन कर पहुंचे थे. यूनाइटेड नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के 220, नेपाली कांगे्रस पार्टी के 110 और नेपाली कांगे्रस (एमाले) के 103 जीते थे. ये तीनों नेपाल के बड़े और मजबूत सियासी दलों के रूप में सामने आए थे. प्रचंड प्रधानमंत्री तो बन गए पर अपने तानाशाही रवैये और बेतुके फैसलों के चलते प्रधानमंत्री की कुरसी पर 1 साल भी नहीं टिक पाए. 18 अगस्त, 2008 से ले कर 25 मई, 2009 तक ही वे प्रधानमंत्री रहे थे.

नेपाल के 601 सदस्यीय संविधान सभा में नेपाल के पहाड़ी क्षेत्रों के 75 जिलों में 240 सीटों के लिए चुनाव हुए हैं. 335 सदस्यों को आनुपातिक प्रणाली के जरिए चुना जाएगा और बाकी 26 सदस्यों को सरकार द्वारा नामित किया जाएगा. इतनी ही सीटों पर अप्रत्यक्ष चुनाव होंगे. इस बार संविधान सभा का कार्यकाल 2 सालों का होगा, पिछली बार यह ढाई साल का था.

चुनाव पर चीनी साया

पिछले कुछेक सालों से नेपाल पर चीन मेहरबान है और दिल खोल कर उस पर रुपया लुटा रहा है. पिछले महीने ही चीन ने 17 करोड़ रुपए की चुनावी सामग्री नेपाल को सौंप कर चुनाव पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी.

चीन ने करीब 17 करोड़ रुपए की चुनावी सामग्री नेपाल के चुनाव आयोग को दे कर उसे अपने एहसानों के बोझ तले दबाने की कोशिश की है. चीनी राजदूत वू चुनथाई ने पिछले 27 सितंबर को ये सारा सामान सौंपते हुए कहा था कि चीन की जनता ने नेपाल को अपना समर्थन दिया है और चीन को भरोसा है कि वह नेपाल में शांति के माहौल में चुनाव करा लेगा.

नेपाल की सरकार और वहां के चुनाव आयोग के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि अगर यही काम भारत के राजदूत करते तो क्या नेपाल सरकार और वहां के सियासी दल चुप रह जाते? इस का जवाब सीधा यह है कि हरगिज नहीं. अगर ऐसा होता तो यह होहल्ला मचता कि भारत, नेपाल के भीतरी मामलों में दखलंदाजी कर रहा है.

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