एक दिलचस्प कहानी है कि एक बार एक राजा बहुत बीमार हो गया. बहुत से वैद्यों को दिखाया, पर किसी को उस का रोग समझ नहीं आया. फिर एक वैद्य ने सलाह दी कि राजा उसी सूरत में ठीक हो सकता है अगर वह सिर्फ हरा रंग ही देखे. राजा ने हर चीज हरी करवा दी. महल के रंग से ले कर कपड़े, यहां तक कि खाना भी हरे रंग का ही खाने लगा. एक बार एक साधु वहां से गुजरा और हर ओर हरे रंग का आधिपत्य देख उस ने लोगों से इस का कारण पूछा तो राजा की बीमारी के बारे में उसे पता लगा. यह जान वह राजा के पास गया और बोला, ‘‘महाराज, आप किसकिस चीज को हरे रंग में बदलेंगे? हर चीज को बदलना संभव नहीं है. इस से बेहतर होगा कि आप हरा चश्मा पहन लें, फिर आप को हर चीज हरी ही नजर आएगी.’’
प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन का स्वयं वास्तुशिल्पी होता है. वह जैसा चाहता है वैसा ही उस का निर्माण करता है. हालांकि निर्मित करने के बाद कई बार उसे एहसास होता है कि जो उस ने निर्मित किया है वह उसे पसंद नहीं आया है और उस में बदलाव करने के बजाय दूसरों को इस का दोषी ठहराने लगता है. वास्तव में तब तक कुछ नहीं बदलता जब तक कि हम खुद को नहीं बदलते. जिंदगी को देखने का चश्मा ही अगर गलत पहना हो तो खूबसूरत रंग बदरंग लगने स्वाभाविक हैं, फूलों की छुअन में कांटों की चुभन का एहसास होना स्वाभाविक है.
झुंझलाहट घेरे रहती है
अधिकतर लोग दूसरे लोगों के व्यवहार व विचारों की वजह से परेशान व क्रोधित होते रहते हैं और इस तरह वे न सिर्फ अपना समय बरबाद करते हैं बल्कि ऊर्जा भी खर्च करते हैं. अंत में उन के हाथ क्या लगता है, एक खीझ और झुंझलाहट ही न. आखिर हमें ऐसा क्यों लगता है कि हम दूसरों को बदल सकते हैं. दूसरे की भी तो सोच हमारी तरह स्वतंत्र होगी. लेकिन हम यह मानने के बजाय अकसर यही कहते हैं, ‘आखिर वह ऐसा कैसे कह सकता है?’ या ‘वह इतना कठोर कैसे हो सकता है?’ या ‘उसे तो इस बात का एहसास भी नहीं हुआ होगा कि उस ने मुझे कितना दुख पहुंचाया है?’
इस तरह के अनेक जुमले हम कहते और सुनते हैं. हम इसलिए इस तरह की प्रतिक्रिया करते हैं क्योंकि हम तार्किक व व्यावहारिक ढंग के बजाय अपनी भावनात्मक जरूरतों के अनुसार भावनात्मक रूप से ही व्यवहार करते हैं. इसलिए जब कोई दूसरा हमारी इन भावनात्मक जरूरतों पर प्रहार करता है तो हम इस तरह से प्रतिक्रिया करते हैं जो दूसरों की नजरों में अनुचित होती है. पर्सनैल्टी आर्किटैक्ट लैफ्टिनैंट रितु गंगवानी के अनुसार, ‘‘दुनिया में किसी दूसरे इंसान को बदलना या उस से इस बात की अपेक्षा रखना बहुत ही गलत व नकारात्मक स्थितियां उत्पन्न करता है. ऐसा इसलिए क्योंकि हर इंसान अलग है, यहां तक कि जुड़वां बच्चों की सोच, व्यवहार व जीवन जीने के ढंग में अंतर होता है.
‘‘हम सब एक डिजाइनर पीस हैं जिन का हर चीज को देखने का नजरिया दूसरे से अलग होता है. ऐसे में जब हम किसी दूसरे को अपने हिसाब से ढालने की कोशिश करते हैं तो यह जरूरी नहीं होता कि वह सही ही हो. हर व्यक्ति का चीजों को समझने का नजरिया भिन्न होता है और ऐसे में दूसरे व्यक्ति की सोच से उस का नजरिया टकराए, यह स्वाभाविक सी बात है. रिश्तों में टकराहट न आए या मतभेद न पैदा हों, इस के लिए बेहतर यही होगा कि खुद को बदल लो.’’
दूसरों को दोष न दें
किसी दूसरे व्यक्ति के व्यवहार या सोच को बदलने के लिए कोई जादू की छड़ी नहीं है, इसलिए जब आप यह कहते हैं कि काश उस ने ऐसा न किया होता या मुझे यकीन नहीं होता कि वह ऐसा कर सकता है तो यह कहने से पहले अपने विचारों पर अंकुश लगा कर कुछ पल ठहरें और दूसरे के नजरिए से उस के व्यवहार को परखें. तब आप स्वयं ही किसी के व्यवहार या सोच के बारे में निर्णय लेना बंद कर देंगे. जिस दिन आप दूसरों के नजरिए का फैसला करना छोड़ अपनी सोच के बारे में निर्धारण करना शुरू कर देंगे उसी दिन से दुनिया आप के लिए बदली हुई और खूबसूरत हो जाएगी.
सीनियर साइकोलौजिस्ट डा. भावना बर्मी के अनुसार, ‘‘आज व्यक्ति का मनोविज्ञान या सोच बाहरी स्थितियों द्वारा ज्यादा नियंत्रित होती है और आंतरिक स्थितियों द्वारा कम. लोग चाहने लगे हैं कि उन की जिम्मेदारियां कोई दूसरा पूरी कर दे और खुद जिम्मेदारियों से बचे रहना चाहते हैं. इस की वजह है कि आजकल तनाव व असुरक्षा का स्तर बहुत ज्यादा बढ़ गया है और सैल्फएस्टीम का स्तर घट गया है. यही कारण है कि खुद को बदलने की जिम्मेदारी भी वे दूसरों पर डाल देते हैं.’’
रखें सही सोच
अगर हम नाखुश हैं तो इस का सीधा सा अर्थ है कि हम कुछ गलत कर रहे हैं और हल ढूंढ़ने के बजाय चीजों को और उलझा रहे हैं. छोटे परदे की अभिनेत्री राजश्री ठाकुर का मानना है कि अगर आप सही हैं तो मुश्किलों का हल खुद ही मिल जाता है. वे कहती हैं, ‘‘हर इंसान अपनी स्थिति के हिसाब से जीता है और किसी दूसरे के हिसाब से खुद को बदलना उस के लिए मुश्किल होता है इसलिए जब दूसरे उस से बदलने की अपेक्षा रखते हैं तो गलतफहमियां पैदा हो जाती हैं और संबंध टूटने के कगार पर आ खड़े होते हैं.
‘‘सही यही रहता है कि दूसरे की स्थितियों के अनुसार सामंजस्य बिठाया जाए. नजरिया बदलते ही चीजें अलग दिखाई देने लगती हैं. नकारात्मक चीजें सकारात्मक लगने लगती हैं और लोगों में कमियों की जगह खूबियां नजर आने लगती हैं. हम में से हर किसी ने इस बात का अनुभव कभी न कभी अवश्य किया होगा, पर फिर भी जब अपेक्षाएं हम पर हावी होने लगती हैं तो हम दूसरों को बदलने की कोशिश में लग जाते हैं और दुनिया को खराब मान अपने को ही नहीं, अपने आसपास के लोगों को भी दुखी करते रहते हैं. सही सोच सही दिशा दिखाती है तब दुनिया बदली हुई और अपने हिसाब की भी लगने लगती है.’’
खुद का विश्लेषण जरूरी
डा. बर्मी का कहना है, ‘‘हमें खुद का विश्लेषण करना चाहिए. हमें अपनी कमजोरियों के साथसाथ अपनी ताकत व उन क्षेत्रों के बारे में भी जानना होगा जहां सुधार करने की आवश्यकता है. आकलन करने के लिए दिल और दिमाग में संतुलन होना चाहिए और साथ ही एक क्रमबद्ध जीवनशैली भी. गहराई से अपना आकलन करने से ही हम सही दिशा में बढ़ सकते हैं और सकारात्मक नजरिया पा सकते हैं. जैसे ही हमारा अपने प्रति दृष्टिकोण बदल जाएगा, दुनिया अच्छी लगने लगेगी. जिंदगी एक आईने की तरह होती है, हम जिस तरह से उसे देखते हैं, वह उसी रूप में वापस हमारे पास आती है.’’
लिहाजा, बेहतरी के लिए जब किसी और को बदलना संभव न हो तो स्वयं को बदलना ही एकमात्र विकल्प है. खराब से खराब स्थिति में भी उसे उपयोगी व अनुकूल बनाने के लिए केवल अपने नजरिए को बदलने की आवश्यकता होती है. आप की सोच तय करती है कि चीजें कैसा आकार लेंगी. फिर नकारात्मक सोच रखने का क्या फायदा? बल्कि जब आप सकारात्मक ढंग से सोचने लगते हैं और अपनी गलतियों की जिम्मेदारी खुद लेने लगते हैं तो कई बार हार व निराशा भी आप के पक्ष में काम करने लगती है. जिम्मेदारी लेने का अर्थ ही है अपनी परेशानियों व दुखों के लिए दुनिया को दोष देना बंद कर देना. दुनिया को अपने अनुसार ढालने के बजाय अपने विचारों को बदलें. आप की सोच सकारात्मक ढंग में ढलती जाएगी और दुनिया से भी कोई शिकायत नहीं रहेगी.