बच्चे बुढ़ापे में अकेले कष्ट उठा कर जिंदगी की शाम गुजार रहे माता पिता की परवा भले ही न करें लेकिन अंतिम समय पर दर्शन करने का दिखावा जरूर करते हैं.

अर्चि की सास बहुत बीमार थीं. दूर रहने की वजह से अर्चि उन से मिलने बारबार जा नहीं सकती थी. इस बार छुट्टियों में वह महीनाभर बीमार सास के पास बिता कर जैसे ही घर लौटी, सास की मृत्यु का समाचार मिला. उस के पति के बड़े भाई, भाभी, बहन कोई भी मृत्यु पूर्व उन से मिल नहीं पाए थे. अर्चि के मन में यही संतोष था कि कितना अच्छा हुआ कि वह महीनाभर मां के पास रह ली. ज्यादा नहीं तो थोड़ीबहुत ही अंतिम दिनों में उन की सेवा कर ली.

मृत्यु का समाचार मिलने पर वह बड़ी दुविधा में थी. सफर में 2-3 दिन लग जाना मामूली बात थी. तब तक मां का अंतिम दर्शन करना भी नहीं हो पाएगा. बड़े भाइयों ने मां की स्मृति में कोई भी कार्यक्रम न करने का निश्चय किया. ऐसी स्थिति में अर्चि को वहां जाना फुजूल ही लगा. सब बातें सोचविचार कर तय कर के अर्चि व उस के पति ने यही निश्चय किया कि अर्चि यहीं रहेगी. सिर्फ उस के पति चले जाएंगे. हालांकि अंतिम दर्शन तो उन्हें भी नहीं होंगे पर मां की मिट्टी ले आएंगे, यही सोच कर वे चले गए.

रिश्तेदारों परिचितों को पता चला कि अर्चि अपनी सास की मौत पर भी नहीं गई, उन के अंतिम दर्शन भी नहीं किए तो सब ने उसे बड़ा भलाबुरा कहा, आलोचना की, उसे निष्ठुर और पाषाणहृदया कहा.

अर्चि किसी को भी नहीं समझा पाई कि मृत्यु के बाद जबकि वह उन का आखिरी बार चेहरा भी न देख पाती, उस के वहां पहुंचने से पहले उन का अंतिम संस्कार हो जाना निश्चित था, वहां बेकार जा कर करती क्या? क्या यह अच्छा नहीं हुआ कि वह सास के जीतेजी ही महीनाभर वहां रह कर उन की सेवा कर आशीर्वाद ले आई. किसी ने भी उस की बात पर ध्यान नहीं दिया. सब के दिमाग में यही रहा कि कैसी बहू है, सास के मरने पर भी ससुराल नहीं गई.

यह हमारे समाज की विडंबना है कि अंतिम दर्शन को बड़ी मान्यता दी जाती है. बेटेबहू जीतेजी भले बूढ़े सासससुर की खैरखबर न लें, कभी उन के हालचाल न पूछें, उन की हारीबीमारी का खयाल न करें, उन के जीनेमरने की चिंता न करें, बुढ़ापे में अकेले कष्ट उठा कर जिंदगी की शाम गुजार रहे मातापिता की परवा न करें तो कोई बात नहीं लेकिन मरने पर उन के अंतिम दर्शन करने के कर्तव्य की औपचारिकता जरूर निभाएं, यह जरूरी है.

रोजी की सास गांव में अकेली रहती थी. बूढ़ी जान अकसर बीमार रहती थी. रोजी ने कभी उन्हें अपने पास बुला कर रखने की जहमत उठाना गवारा नहीं किया. गांव में जा कर, वहां रह कर सास की सेवा करने का तो प्रश्न ही नहीं था. अकेले बीमारी से लड़तीलड़ती बेटाबहू की उपेक्षा से टूटी बेचारी आखिर एक दिन मौत के गले लग गई. गांव के अन्य रिश्तेदार, परिचितों ने बेटाबहू को उन की मौत की खबर दी. जिस दिन उन की मौत की खबर आई, पड़ोसियों व अन्य लोगों को दिखाने के लिए रोजी छाती पीट कर, फूटफूट कर रोती हुई यही कहती रही, ‘‘हाय, अम्मा अचानक चल बसीं. मैं कैसी अभागी हूं कि उन के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाई. आखिरी बार उन के चरण नहीं छू पाई. आखिरी पल में कुछ कहसुन नहीं पाई.’’

जिंदा सास की खैरखबर लेने कभी गांव के घर में पैर नहीं रखा. अकेली सास को अपने साथ रखने में सदा कतराती रही. जब वह मर गई तो अंतिम दर्शन न कर पाने के मलाल में टसुए बहाती रही. क्या यह सिर्फ दिखावा व ढकोसला नहीं है?

मजबूरी व महत्त्वाकांक्षाएं

कामधंधे की तलाश में ज्यादातर बेटे आजकल मांबाप से दूर ही रहते हैं. मांबाप के बुढ़ापे की लाठी बनने के बजाय उन का संबल छीन लेते हैं. इन में कुछ तो मजबूरीवश घर छोड़ते हैं, कुछ अतिमहत्त्वाकांक्षा के तहत. दोनों ही परिस्थितियों में बूढ़े मांबाप को ही अकेलेपन की घुटन सहनी होती है.

जो मांबाप अपने बच्चों को जिंदगी की रफ्तार के साथ उड़ान भरना सिखाते हैं वे पंखों में मजबूती आते ही फुर्र हो जाते हैं. पीछे घिसटघिसट कर जिंदगी गुजारते मातापिता अकेले ही बच्चों की व्यस्तता, बेरुखी और बेगानेपन से टूटे जिंदगी को अलविदा कह जाते हैं. तब यही बच्चे मांबाप के अंतिम दर्शन न कर पाने, अंतिम समय पर न मिल पाने पर अफसोस जाहिर करते देखे जा सकते हैं.

मांबाप और सासससुर

बूढ़े मांबाप के साथ रहना या उन्हें साथ रखना आज की युवा पीढ़ी को स्वीकार्य नहीं है. आधुनिकता व स्टेटस मैंटेन करने में बूढ़े मांबाप अनफिट होते हैं. उन्हें साथ रख कर गंवारू कहलाना कोई पसंद नहीं करता. बहुत कम परिवार ऐसे होंगे जहां बेटाबहू मांबाप व सासससुर को उचित आदर, मान व सम्मान देते होंगे. अपने ही बच्चों का यह बरताव उन के जिंदगी जीने के उत्साह को खत्म कर देता है और वे असमय ही मौत का दामन थाम लेते हैं.

बुजुर्गों के दायित्व

कई बार गलती बुजुर्गों की भी होती है. वे युवाओं के सामान्य व्यवहार को भी अपने ही चश्मे से देखते हैं. उन की साधारण बातचीत को भी बतंगड़ बना कर अनेक समस्याएं खड़ी कर देते हैं. बदलते जमाने व नई पीढ़ी के साथ वे सामंजस्य बिठाना ही नहीं चाहते. बेटेबहू की समस्याओं को समझना ही नहीं चाहते. उन्हें थोड़ा खुलापन व आजादी देना उन्हें मंजूर नहीं. मांबाप के इस तानाशाही रवैए से तंग आ कर बेटाबहू अलग रहना ही हितकर समझते हैं तो सर्वस्व उन की आलोचना की जाती है कि बुढ़ापे में मांबाप को अकेला छोड़ दिया.

युवाओं के कर्तव्य

परिवार को खुशहाल बनाने के लिए सामंजस्य तो दोनों को ही बिठाना पड़ेगा. स्वार्थ व भौतिकता की अंधी दौड़ में लिप्त आज के युवाओं को मातापिता के उपकार, उन के कर्तव्य, बच्चों के लिए किए गए उन की इच्छाओं व आकांक्षाओं के दमन को याद रखना चाहिए और बुढ़ापे में उन्हें अकेला छोड़ कर यह सोचने के बजाय कि उन की उम्र तो बीत गई अब उन्हें भजनपूजन करते हुए मौत का इंतजार करना चाहिए, एकदम अनुचित है.

युवाओं को चाहिए कि वे बजाय मांबाप की मौत के बाद उन के अंतिम दर्शन की इच्छा रखने के उनके जीतेजी उन की देखभाल करें. उन का सम्मान व आदर करें, बुढ़ापे में उन्हें सुरक्षा व संबल प्रदान करें. साथ में रहना संभव न हो तो उन की देखभाल के लिए उचित बंदोबस्त करें. समयसमय पर फोन के जरिए उन के हालचाल लेते रहें. बच्चों को भी दादादादी, नानानानी का सम्मान करना सिखाएं. उन्हें दुत्कारने के बजाय उन के अनुभवों से शिक्षा लें. जीतेजी उन की सेवा करें और सम्मान करें, यही ज्यादा उचित है व मन को शांति भी प्रदान करता है.

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