दोपहर स्कूल से लौटने के बाद से ही नन्ही रुचि घर से गायब थी. मां परेशान. हर कमरे में देखा. पासपड़ोस में पूछा पर रुचि का कहीं पता न चला. कुछ ही देर बाद रुचि की सहेली की मम्मी भी आईं.
उन की मेधा भी कहीं दिख नहीं रही थी. दोनों महिलाएं अभी सोच ही रही थीं कि क्या किया जाए तभी उन्हें ड्राइंगरूम में धीरेधीरे खुसरपुसर की आवाज आई. जा कर देखा तो ड्राइंगरूम के दरवाजे और शोकेस के बीच बने कोने में दोनों बच्चियां बैठी हंसबोल रही थीं. दोनों अपने में इतनी खोई हुई थीं कि जब मम्मी ने दरवाजा हटाया तो दोनों चौंक गईं. फिर साथ ही बोल पड़ीं, ‘‘अं, मम्मी, जाओ न. यह हमारा घर है.’’
इस प्रकार के दृश्य हम अपने घरों में या अपने आसपास आम देखते हैं. बच्चे घर के किसी कोने में, पलंग या मेज के नीचे, सीढि़यों के नीचे या बगीचे में झाडि़यों, गमलों के पीछे खेलते हैं. यह बच्चों का अपना स्थान है. अपने हक की जगह जिस के लिए आजकल अंगरेजी में ‘स्पेस’ शब्द प्रयोग में आता है. ‘स्पेस’ का अर्थ है कोई भी खाली स्थान, पर आज के ग्लोबलाइजेशन के युग में यह एक बहुअर्थक शब्द बन गया है.
अपना कोई कोना ढूंढ़ना और वहां अपने मित्रों या सहेलियों के संग ‘घरघर’ का खेल रचना एक बहुत पुराना खेल है. इस पर अनुसंधान हो रहे हैं और इन के मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर प्रकाश डाला जा रहा है, जिस से यह साबित होता है कि बच्चों के यह खेल, जो लोकविधा या लोकपरंपरा का एक अंग हैं, निरर्थक नहीं हैं. यह खेल बच्चों के भावी जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं.
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