देश के नागरिकों में विटामिन डी की कमी महामारी का रूप लेती प्रतीत हो रही है. तकरीबन 90 फीसदी आबादी विटामिन डी की कमी से पीडि़त है. देश के सभी हिस्सों में भरपूर मात्रा में धूप होने के बावजूद इतनी अधिक आबादी में विटामिन डी की कमी पाई जाना हैरानी का विषय है. विटामिन डी, जिसे विटामिन धूप भी कहा जाता है, धूप में बैठने से प्राप्त हो जाता है. यह शरीर में होमियोस्टेसिस को संतुलित रख कर हड्डियों को अच्छी सेहत देता है और कई बीमारियों से बचाने में मदद करता है. इस की कमी के प्रतिकूल प्रभावों के साथसाथ इस के हमारी सेहत पर दूरगामी प्रभाव भी होते हैं. विटामिन डी की कमी होने के चलते दिल के रोग, डायबिटीज और कैंसर जैसे रोग भी हो सकते हैं. देश में इस की कमी नवजात बच्चों से ले कर किशोरों, बालिगों, बड़ी उम्र के लोगों और महिला व पुरुषों में एकसमान पाईर् जा रही है. इस के साथ ही, अब गर्भवती महिलाओं और कामकाजी युवाओं में भी यह कमी पाईर् जाने लगी है.
लक्षण
भारतीयों में इस की कमी के कई कारण पाए जाते हैं, जैसे :
भारतीय चमड़ी की टोन :
मिलेनिन की कमी से चमड़ी की धूप सोखने की क्षमता कम हो जाती है, इसलिए गहरे रंग के भारतीयों को गोरे लोगों के मुकाबले 20 से 40 गुना ज्यादा धूप सेंकनी पड़ती है.
धूप से बचने की सोच :
बहुत से लोग ऐसे हैं जिन का रंग साफ है, वे यह सोचते हैं कि वे ज्यादा सुंदर दिखते हैं. इस मानसिकता के चलते लोग तीव्र धूप के समय बाहर निकलने से कतराते हैं या अत्यधिक एसपीएफ वाले सनस्क्रीन लोशन लगाते हैं. लोग बच्चों को बाहर धूप में खेलने के लिए भी नहीं भेजते, घर के अंदर ही खेलने के लिए उत्साहित करते हैं. फिर भी अगर किसी को बाहर जाना पड़े तो वह अपनेआप को पूरी तरह से ढक लेता है. इस तरह धूप से कतराने की वजह से शरीर में विटामिन डी की अत्यधिक कमी हो जाती है.
शाकाहारी भोजन को प्राथमिकता :
विटामिन डी आमतौर पर पशुओं से मिलने वाले खाद्य पदार्थों में पाया जाता है, जिन में डेयरी उत्पाद, अंडे, मछली आदि शामिल हैं. लेकिन ज्यादातर भारतीय शाकाहारी भोजन को प्राथमिकता देते हैं, जिस वजह से विटामिन डी की कमी होने की संभावना रहती है.
तनावपूर्ण कामकाजी माहौल :
बढ़ते कामकाजी दबाव और प्रतिस्पर्धा के माहौल में युवा पीढ़ी में विटामिन डी की कमी पाई जाती है. इस का मुख्य कारण बंद केबिनों में पूरा दिन बैठ के घंटों काम करना है, जिस वजह से वे लंबे समय तक धूप से दूर रहते हैं.
तकनीक पर अत्यधिक निर्भरता :
तकनीक के फायदों के साथ इस के नुकसान भी होते हैं. युवा अपने दोस्तों के साथ धूप में फुटबाल के मैदान में खेलने का मजा नहीं ले पाते. या तो वे पूरे दिन घर के अंदर बैठ कर वीडियो गेम खेलते हैं या फिर पूरे दिन टीवी के सामने बैठे रहते हैं. मनोरंजन के लिए तकनीक पर इतनी अधिक निर्भरता बच्चों को धूप से दूर रखती है और उन में विटामिन डी की कमी होने की संभावना बढ़ जाती है.
विटामिन डी फोर्टिफिकेशन के लिए राष्ट्रीय नीति न होना :
पश्चिमी देशों के मुकाबले भारत में फूड फोर्टिफिकेशन की कोई नीति नहीं है. अमेरिका और कनाडा में लागू फोर्टिफिकेशन कार्यक्रम को काफी सफलता मिली है. यूएसए में दूध की फोर्टिफिकेशन 1930 से लागू है, जबकि विटामिन डी की फोर्टिफिकेशन स्वैच्छिक है. फोर्टिफिकेशन का अर्थ किसी उपचार में मौजूद तत्वों की मात्रा से है. जरूरत से ज्यादा फोर्टिफिकेशन न हो, इसलिए इस पर सख्ती से नियंत्रण किया जाता है. यूएस में बिकने वाले ज्यादातर दूध में विटामिन डी मिलाया जाता है. पनीर और पनीरयुक्त उत्पादों को भी फोर्टिफिकेशन की मान्यता प्राप्त है. कुछ कंपनियां नाश्ते के उत्पादों दलिया, सोया दूध, राइस मिल्क और संतरे के जूस में विटामिन डी कैल्शियम के साथ डालती हैं. इस तर्ज पर अगर भारत में राष्ट्रीय नीति लागू की जाए तो यह इस महामारी को काबू करने में मदद कर सकती है.
अस्वस्थ खानपान आदतें :
औद्योगिकीकरण की वजह से लोगों में माइक्रोन्यूट्रिंएंट्स ग्रहण करने में कमी आ गई है, क्योंकि खाद्य उद्योग पूरी तरह से नमक, चीनी, सब्जियों की वसा और रिफाइंड अनाज पर निर्भर करता है, जो विटामिन और खनिज पदार्थों के बहुत ही कम गुणवत्ता के स्रोत हैं. जो लोग अपना पूरा पोषण इन्हीं उत्पादों से लेते हैं उन की पोषक तत्त्वों की प्रतिदिन की आवश्यक खुराक उन्हें मिल नहीं पाती, जिन में विटामिन डी की कमी भी शामिल है.
अज्ञानता व उपेक्षा
यह बीमारी जांच के दायरे में बहुत कम आ पाई है. इस की वजहें हैं :
लोगों को विटामिन डी की कमी से होने वाले खतरों के बारे में पता ही नहीं है.
डाक्टर मरीजों को विटामिन डी के महत्त्व के बारे में जागरूक ही नहीं करते हैं.
लोग छोटीमोटी थकावट और दर्द को बहुत गंभीरता से नहीं लेते और उन का इलाज आम दुकानों पर उपलब्ध दर्दनिवारक गोलियों से कर लेते हैं. लेकिन जो बात उन्हें नहीं पता, वह यह है कि मामूली थकान और दर्द विटामिन डी की कमी की वजह से होते हैं.
इस बीमारी के स्पष्ट लक्षण पता न होने की वजह से इस की जांच नहीं हो पाती. लोगों में इस बात की जानकारी की भी कमी है कि विटामिन डी की कमी से सिर्फ हड्डियों पर ही नहीं, संपूर्ण सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ता है. नतीजतन, विटामिन डी की कमी को हलके में नहीं लेना चाहिए. इस के कई तुरंत प्रभाव और कई दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव सेहत पर पड़ते हैं. इस के चलते कई जानलेवा बीमारियां जैसे कैंसर, दिल की बीमारियां और डायबिटीज के होने की संभावना बढ़ जाती है. इस कमी को जागरूकता फैलाने व सेहतमंद जीवनशैली अपनाने, फोर्टिफिकेशन की राष्ट्रीय नीति बनाने और सप्लीमैंटेशन के जरिए काबू में किया जा सकता है.
(लेखक मुंबई के सैफी अस्पताल में एंडोक्राइनोलौजिस्ट, डायबिटोलौजिस्ट और मैटाबोलिक स्पैशलिस्ट हैं.)