इस वर्ष फुटबौल में इंडियन वूमंस लीग में लड़कियों के लिए नए द्वार खोल दिए गए हैं. सामाजिक भेदभाव को तोड़ते हुए लड़कियां अब फुटबौल में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं. मगर इतने बड़े देश में 5-7 राज्यों को छोड़ दीजिए तो महिला फुटबौल की स्थिति अभी भी बहुत अच्छी नहीं है.

महिला फुटबौल के लिए खेल संघों की कोई दिलचस्पी नहीं दिखती. केवल फुटबौल चैंपियनशिप में भाग लेने की अनिवार्यता के कारण यह औपचारिकता निभानी पड़ती है. वूमंस लीग से अब उम्मीद जगी है कि कम से कम महिलाओं को आगे बढ़ने का मौका मिलेगा, उन का आत्मविश्वास बढ़ेगा. इस कदम से महिला फुटबौल को विकास की नई राह मिलेगी.

हालांकि केवल कहने भर से ऐसा होगा नहीं. महिला खिलाडि़यों को इस के लिए सुरक्षित वातावरण मुहैया कराना होगा. राज्य फुटबौल संघों को इस के लिए जमीनी स्तर पर काम करना होगा. विश्व स्तरीय ट्रेनिंग देनी होगी, गांवकसबों में प्रतिभाओं को ढूंढ़ना होगा. उन्हें निखारना होगा, तभी महिला फुटबौल की तसवीर बदलेगी. नहीं तो बातें हैं बातों का क्या.

वैसे भी भारत में खेलप्रेमियों की कमी नहीं है. 125 करोड़ में से करीब 123.5 करोड़ लोग इस देश में खेलों से प्यार करते हैं. आप को जान कर हैरानी होगी कि इस में 97 फीसदी लोग क्रिकेट के दीवाने हैं. यदि दूसरे खेलों की बात करें तो इस के लिए दूसरे खेल समय बरबाद करने जैसे हैं. इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि दूसरे खेलों को ले कर समाज में कितना भेदभाव होगा. खासकर वे खेल जिन में लड़कियां हिस्सा लेती हैं.

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