एक समय था जब खिलाडि़यों के लिए उन का सब से बड़ा सम्मान उन का ट्रौफी या मैडल हुआ करता था लेकिन बदलते वक्त के साथ इन की भी फितरत बदल गई है. अब ये सरकारी पुरस्कारों को ही सब से बड़ा मैडल मानने लगे हैं. शायद इसीलिए अब वे मैदान में मैडलों के लिए जुझारूपन दिखाने के बजाय मैदान के बाहर सम्मान या पुरस्कार पाने के लिए ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं. कुछ महीने पहले अर्जुन पुरस्कार के लिए विवाद हुआ था और अब पद्मभूषण के लिए मामला गरमाया हुआ है. इस बार भारतीय बैडमिंटन की स्टार सायना नेहवाल को ले कर विवाद खड़ा हो गया. सायना ने अपना स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि उन्होंने कभी भी सम्मान की मांग नहीं की. उन का सवाल सिर्फ इतना था कि उन का नाम गृह मंत्रालय में क्यों नहीं भेजा गया. किसी भी खिलाड़ी को सम्मान उस के योगदान को देख कर दिया जाता है, यह बात सायना को भी मालूम है पर उन्हें यह समझने की जरूरत है कि इस के लिए किसी सिफारिश या आवेदन की जरूरत नहीं होती है. ऐसा भी नहीं है कि सायना को सम्मान नहीं दिया गया है. उन्हें वर्ष 2009 में अर्जुन अवार्ड और वर्ष 2010 में देश का सर्वोच्च खेल पुरस्कार राजीव गांधी खेलरत्न तथा पद्मश्री अवार्ड मिल चुके हैं. बावजूद इस के, एक पुरस्कार की दावेदारी में अपने नाम न आने पर बखेड़ा खड़ा करना उन की जैसी प्रतिभावान खिलाड़ी को शोभा नहीं देता.

दरअसल, आज के खिलाडि़यों को अब खेल की भूख कम, अवार्डों की भूख ज्यादा लगने लगी है. ओलिंपिक या राष्ट्रमंडल खेल में एक पदक हासिल किया नहीं कि अवार्ड्स के लिए हल्ला शुरू कर देते हैं. यह भी सही है कि अवार्ड्स के मामले में खेल मंत्रालय से ले कर खेल संघों के बीच गुटबंदी इतनी है कि खिलाड़ी अपने आकाओं को खुश करने के लिए चमचागीरी में लग जाते हैं ताकि उन का नाम अवार्ड के लिए आगे भेजा जाए. सम्मान मिलना वाकई गर्व की बात होती है. लेकिन सम्मान अपनेआप पैदा होता है, आप उसे जबरन पैदा नहीं कर सकते. यह तो किसी हस्ती को उन के योगदानों को देखते हुए दिया जाता है. इस के लिए किसी की सिफारिश या मीडिया में शोरगुल करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. माना कि देश में चमचागीरी, राजनीति और खेमेबाजी के चलते खेल और खिलाडि़यों के साथ पक्षपात होता है लेकिन एक खिलाड़ी की सच्ची प्रतिभा, हुनर कोे बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकता, उसे जाहिर होना ही है.

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