भारत में अंगूर की ज्यादातर व्यावसायिक खेती उष्ण कटिबंधीय जलवायु वाले क्षेत्रों में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु वाले उत्तरी राज्यों में विशेष रूप से की जा रही है.

जून के महीने में देश के उष्ण कटिबंधीय जलवायु वाले क्षेत्रों से ताजा अंगूर उपलब्ध नहीं होते हैं. ऐसे समय में उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु वाले क्षेत्रों जैसे पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली व राजस्थान के कुछ भागों में अंगूर की खेती की जा रही है, जिस से जून माह में अंगूर मिलते हैं. मृदा एवं जलवायु की आवश्यकता अंगूर की बागबानी हर प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन इस के लिए बड़े कणों वाली रेतीली से ले कर मटियार दोमट मिट्टी सब से अच्छी मानी गई है.

खाद व उर्वरक : दक्षिणी भारत में अंगूर के बागों में सब से ज्यादा खाद व उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाता है. वैसे यह भी सही है कि वहां पर उपज भी सब से ज्यादा यानी तकरीबन 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जाती है. दरअसल, वहां के हालात व जलवायु में काफी मात्रा में खाद व उर्वरकों की जरूरत पड़ती है. वहां पर हर तुड़ाई के बाद अंगूर के बगीचों में खाद डाली जाती है. पहली खुराक में नाइट्रोजन व फास्फोरस की पूरी मात्रा और पोटैशियम की आधी मात्रा दी जाती है. फल लगने के बाद पोटैशियम की बाकी मात्रा दी जाती है. उत्तर भारत में प्रति लता के हिसाब से हर साल 75 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद दी जाती है. इस के अलावा हर साल 125-250 किलोग्राम नाइट्रोजन, 62.5-125 किलोग्राम फास्फोरस और 250-375 किलोग्राम पोटैशियम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से दी जाती है. अंगूर की फसल में 5 साल की बेलों में 500 ग्राम नाइट्रोजन, 700 ग्राम म्यूरेट औफ पोटाश या 700 ग्राम पोटैशियम सल्फेट व 50-60 किलोग्राम नाइट्रोजन की खाद प्रति बेल हर साल देने को कहा जाता है. काटछांट के तुरंत बाद जनवरी के आखिरी हफ्ते में नाइट्रोजन व पोटाश की आधी मात्रा व फास्फोरस की पूरी मात्रा डालनी चाहिए. बाकी उर्वरकों की मात्रा फल लगने के बाद डाल कर जमीन में अच्छी तरह मिला देना चाहिए. ऐसा करने से अंगूर की भरपूर उपज मिलती है.

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