डा. नवीन कुमार बोहरा
पलाश को हिंदी में ढाक, बंगाली में पलाश, मराठी में पलस, गुजराती में खाखरो, तेलुगु में मोंदुगा, तमिल में परस, कन्नड़ में मुलुगा, मलयालम में पलास औैर वैज्ञानिक भाषा में ब्यूटिया मोनोस्पर्मा कहते हैं. मार्च माह में पूरा पेड़ सिंदूरी यानी लाल रंग के फूलों से लद जाता है और मीलों दूर से यह अपनी मौजूदगी की सूचना देता है. इसी वजह से इसे फ्लेम औफ फौरेस्ट यानी जंगल की आग भी कहते हैं.
पलाश मध्यम आकार का पर्णपाती यानी पत्तों से घिरा पेड़ है. यह पेपिलिओनेसी कुल का पौधा है. यह एक अति प्राचीन पेड़ है. इस का उल्लेख वेदों में कई जगहों पर आया है. आयुर्वेद के जनक चरक और सुश्रुत ने पलाश के समूचे पेड़ की अहमियत बताई है. इसे संस्कृत साहित्य में किशुक, रक्त पुष्पक, क्षार श्रेष्ठ, ब्रह्मा पादप वगैरह नामों से जाना जाता है. यह भारत के तकरीबन सभी भागों में पाया जाता है.
पलाश के पेड़ से हासिल लाख के कीडे़ के भू्रण से बेर और दूसरे लाख पोषियों को निवेशित भी किया जाता है, पर कुसुम पर निवेशित नहीं किया जाता है. इसे जड़ चूषकों यानी रूट सकर्स द्वारा पुनर्जीवित यानी फिर से जिंदा किया जा सकता है. इस के विभिन्न भाग भिन्नभिन्न रूपों में उपयोगी हैं :
1 पत्तियां :
पलाश की पत्तियां फरवरी माह में झड़ जाती हैं और नई पत्तियां फूल खिलने के बाद मार्चअप्रैल माह में निकलती हैं. इस की पत्ती में 20-30 सैंटीमीटर वृत्ताकार माप के 3 पत्रक पाए जाते हैं. पत्तियां शीतल, रुक्ष, ग्राही और कफरात शामक होने से प्राचीन काल से ही रेशभर में दोनापत्तल बनाने के काम आती हैं.